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चर्चरी
अर्थ-जहाँ विधिचैत्यों में श्रावक न ताम्बूल खाते हैं और न लाते हैं । जहाँ शुद्धनीति संपन्न श्रावक लोग पैरोंमें जूतेनहीं धारण करते । जहाँ न भोजन होता है, न सोना होता है, न अनुचित बैठना होता है न शस्त्रों के साथ प्रवेश होता है और न गाली गलोज आदि दुष्ट बोलना ही होता है ॥२१॥
जहिं न हासु न वि हुड्डु न खिड्ड न रूसणउ, कित्तिनिमित्तु न दिज्जइ जहिं धणु अपणउ । करहि जि बहु आसायण जहिं ति न मेलियहि,
मिलिय ति केलि करंति समाणु महेलियहिं ॥२२॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्योंमें न हँसी मजाक की जाती और न होड ही बदी जाती हैं । न जुए आदि खेले जाते हैं और न रोष ही किया जाता है । जहाँ कीर्तिके लिये न अपना धन ही दिया जाता है, जो बहुत आसातना करते हैं, उन नटविरोंको न इकट्ठा ही किया जाता है। क्यों कि वैसे लोग कुचेष्टाओंसे स्त्रियोंके साथ क्रीडा कुतूहल करने लगजाते हैं ॥२२॥
जहिं संकंति न गहण न माहि न मंडलउ जहिं सावयसिरि दीसइ कियउ न विंटलउ । ण्हवणयार जण मिल्लिवि जहि न विभूसणउ
सावयजगिहि न कीरइ जहि गिहचिंतणउ ॥२३॥ - अर्थ-जहाँ न संक्रांतिमें न ग्रहण' में स्नान दान ही होता है न माध मासमें मंडल
आदि की रचना हो की जाती है । जहाँ श्रावकोंके सिरमें पगड़ो फेटा आदि भी नहीं होता है । स्नान कराने वाले मनुष्योंको छोड़कर दूसरे लोग जहाँ विशेष-भूषण नहीं रखते हैं। जहाँ श्रावक लोग गृहव्यापारकी चिंता भी नहीं करते ॥२३॥
जहिं मलिणचेलंगिहिं जिणवरु पूइयइ मूलपडिम सुइभूइ वि छिवइ न सावियइ । आरत्तिउ उत्तारिउ जं किर जिणवरह
तंपि न उत्तारिज्जइ बीयजिणेसरह ॥२४॥ अर्थ---जहाँ विधिचैत्योंमें मलिन वस्त्र एवं मलिन शरीरसे जिनेश्वरदेव नहीं पूजे जाते। पवित्र हुई भी श्राविका आकस्मिक स्त्री शरीर धर्मके हो जानेसे महान अनर्थकी संभावनासे मूल नायकजीकी प्रतिमाको स्पर्श नहीं करती हैं। क्योंकि कहा भी है-आउहिया बरा
१ ग्रहणमें स्नान और दान करने से मिथ्यात्व लगता है।
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