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चर्चरी बाद श्री जिनेश्वर देव सन्मुख धरा हुआ नैवेद्य-बलि-जहाँ नहीं दीखता है। अर्थात् रातमें नैवेद्य भी नहीं चढाया जाता, और न लोगीके सो जानेपर बाजोंका अवाज ही होता हैबाजे रातमें नहीं बजाये जाते।
जहिं रणिहि रहभमणु कयाइ न कारियइ, लउडारसु जहिं पुरिमु वि दितउ वारियइ । जहि जलकीडंदोलण हुति न देवयह,
माहमाल न निसिद्धी कय अठ्ठाहियह ॥१९॥ अर्थ- जहाँ विधिजिन चैत्योंमें रात्रीमें कभी भी रथ यात्रा नहीं कराई जाती । जहाँ दांडिया रास देते हुए पुरुषोंको भी रोका जाता है। जहाँ जल क्रोडा देवताओंके हिंडोले आदि भी नहीं होते । अष्टाह्निक पूजा करने वालोंको माघमालाका निषेध नहीं है।
यद्यपि उपदेश रसायनमें 'माघमाला' करनेका निषेध है। यहाँ जो “निषेध नहीं है"लिखा है यह दिगम्बर भक्त नये प्रतिबोध पाये पेल्हक श्रावक आदिके उपरोधसे प्रभूततर दूषणके अभावसे कहा है। उपदेश रसायनोक्त निषेध सर्वदेशीय है यहाँ 'एक देशीय विधि' है।
जहि सावय जिणपडिमह करिहि पइ न य इच्छाच्छंद न दीसहि जहि मुद्धंगिनय । जहि उस्सुत्तपयट्टह वयणु न निसुणियइ
जहि अज्जुत्तु जिण-गुरुहु वि गेउ न गोइयइ ॥२०॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्योंमें श्री जिन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा श्रावक नहीं कराते हैं। जहाँ भोले जी वो द्वारा बंदन कराते हुए स्वेच्छाचारी उत्सूत्र भाषी साध्वाभास व्याख्याननाहि देते हुए न तो देखे जाते हैं न सुने जाते हैं। जहाँ जिनेश्वर देवोंके या गुरुओंके अयोग्य भजन-गीत गहूँली-जिनसे श्री संसारिक वासनाओंकी वृद्धि हो ऐसे–नहीं गाये जाते ।
जहि सावय तबोलु न भक्खहि लिंति न य जहि पाणहि य धरंति न सावय सुद्धनय । जहि भोयणु न य सयणु न अणुचिउ बइसणउ, सह पहरणि न पवेसु न दु[उ बुल्लणउ ॥२१॥
देते हुए न तो देखे जाते हैं ।
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