Book Title: Chaityavandan Parvamala Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Abhinav Shrut Prakashan View full book textPage 8
________________ चैत्य वन्दन - दुविध बंधन टाळिजे, जे वळी राग ने द्वेष, आर्त रौद्र दोय अशुभ ध्यान, नवि करो लवलेश...१... बीज दिने वळी बोधि बीज, चित्त ठाणे वावो, जेम दुःख दुर्गति नवि लहो, जगमां जश चहावो...२. भावो रूडो भावनाओ, वाधो शुभ गुण ठाण, ज्ञानविमल तप तेज थी, होवे कोडि कल्याण...३.. [६] द्विविध धर्म आराधवा, भविजन बीज आराधो, जिम अन्तर परमातमा, संप्राप्ति फल साधो...१... अभिनन्दन ने सुमतिनाथ, वळी शीतलस्वामी, इत्यादिक बहु जिनवरे, केवल श्री पामी...२... जन्म दिवस पण कैंकना, कैक लह्या निर्वाण, ज्ञान विमल गुणथी वधे, जो कीजे तप मंडाण...३... द्विविध धर्म आराधतां, अविचल सुख लहो, समकित मूल सोहामणो, प्रवचन जे कहीओ...१... धर्मध्यान ने शुक्लध्यान, केरां जे अंग, द्विविध विरति जे देश सर्व, चारित्र अभंग...२... संगति कीजे बहु परे ओ, ज्ञानविमल गुरु भाण, बीज तणो तप आदरो, जिम होय कोडि कल्याण...३... बीज तिथि अति दीपति, भाखी वीर जिणंद, अभिनंदन प्रभु जनमिया, चविया सुमति जिणंद...१... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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