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कषिकर परिमल गोभरी
श्री महावीरजी) के एक मुटके में संग्रहीत पाण्डुलिपि मिलता लेखन काल संबद १६६० द्वितीय वंशाण शुक्ला दोज है। उक्त प्रति के अतिरिक्त १७ १८वीं राती मैं लिपि की गयी निम्न पाण्डुलिपिया भी उल्लेखनीय है। १. शास्त्र भण्डार दि. जैन नेरह मेथी मन्दिर, दौसा पत्र सं. १८० लिपि फाल
सं. १६६१ फागुण सुदी१३ २.
दि. जैन मन्दिर चेतनवास दीवान पुरानी डीग
गुटके में है सं. १७५७ वि. जैन मीस पंथी मन्दिर पौसा १७ १७७४ ४.
दि. जैन तेरहपंथी बस मंदिर जयपुर. १५६ १७७६ ५. दि. जैन मंदिर गोषों का, जयपुर ५
१ ७६. ६.
दि. जैन मंदिर वर (भरतपुर) १५८ १५९ लेकिन संवत् १८४० के पश्चात् लिपि की हुई पचामों पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत है। किसी २ शास्त्र भण्डार में तो ५-६ अथवा इससे भी अधिक पाण्टुलिपियों का संग्रह मिकता है। रामस्थान के अतिरिक्त पागरा, बेहली, मैनपुरी भादिनपरों स्त्र भण्डारों में भी श्रीपाल चरित्र काव्य की मच्छी संख्या में पाण्डुलिपियां मिलनी चाहिये ।
पद्य संस्था
श्रीपाल चरित की विभिन्न पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकल सकता है कि उनमें पक्षों की संख्या समान नहीं है। श्री दि. जैन मन्दिर चौधरियों को पाण्डुलिपि में २२२२ पत्रों की संख्या दी गयी है जबकि राजमहल [टोक] की पाण्डुलिपि २२०० पथ, बयाना की पाण्डुलिपि में २२६० तथा गोधा मन्दिर जयपुर वाली पाण्डुलिपि में पद्यों की संख्या २३४१ दी हुई है। यह संवत् १७६० की पाण्डुलिपि है। इस तरह अन्य पाण्डुलिपियों में पद्यों की संख्या में अन्तर हो सकता है।
भाषा-श्रीपाल चरित ब्रज भाषा का कान्य है । प्रागरा व्रज भाषा का प्रमुख केन्द्र रहा है इसलिये परिमल कषि ने भी अपने काव्य में व्रज भाषा का प्रयोग किया है।
मापस में सब मती कराह पायो बोरगान जाहि । जो पाईस है हम लोग, सोई मानि लेह सब लोग.॥१४॥