Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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बाई अजितमती एवं उसके समकालिन कवि
२५६
नाम गोत्र कही यि प्रतराय । पाठ करम प्रागमे कहियाय ।। मंद कहू पहना वेगला । संस्खेपि जाणि जो भला ॥६॥ ज्ञान माचरें ते ज्ञानावरण । पंच प्रकार तेह बिस्तरण । सिद्ध इष्टपद नव्य घेखीय । देवमुख परी वस्त्र लेखीयि ।।६।। दर्शनावरण देखावान देय । दरसन प्राचरे छे नवभेय ।। इष्ट वस्तु तेश्री नथ्य पामीयि । गज पोलीयानी पिरवामीयि 11६६11 मुख दुख:नि जणावि जेह । वे प्रकार वेदनी कही सेह ।। खडगधार मधुलीप्त छि जेम । सुख दुःख जीबि लहीयि तेम ॥७०।। आत्मानि मोहि जे घण । मोहनी नाम कहीपि तेह सणं ॥ भेद अठावीस तेहना ते सही । मदिरा माया कोइ वपिरत कही ॥७१॥ अायुकरमि भव माहि रात्रीयि । च्यार प्रकार केवली भाखीयि ॥ हर माल्या नरनी पिर ओय । भबधी नीकलवा नही दीपि सोय ॥७२॥ नाना रूप कारण ए लह्यो । ताणं भेद नाम करम कह्यो ।। चीत्रक पिर परिलखे चोत्राम । नाम करम एहवा परीणाम ॥७३॥ गी करमना छे वे भेद । ऊंच नीच जाणो त्यजी खेद 11 कुंभकार भाजन परी जेम । जीप ऊंच नीच कुल लहे तेम ।।७४।। इष्ट वस्तु पामता जोय । अंतरकर मंतराय कर्म होय ।। पच प्रकार आमम माहूँ को। मंडारी परि गुणे ते लह्यो ।।७।। पाठ करमि करी ए जीव । अनाद कालनो दौथो अतीव ।। मिथ्यात अविरत प्रसाद कषाय । बंध हैत कह्या मन वच काय ॥७६॥ एकांते प्रथम मिथ्यात बिचार । क्षण प्रातमा ते मानि गमार ।। कम खटमास अवधि कहिवात । पुण्य पाप कुण लहि मात तास ।।७७॥ विपरित से जे दयामने कहि । विधि बीसेखि हीसा ने प्रहि ।। सात व्यसन शास्त्र माहि पारि । ते केम पर तारि आप तरे ॥७८।। खर कूतर गो महीखह तणो । तरूवर पथर गौरीनो भयो । विनय करि गुणविण देव कही । बिनय भीथ्यात कहो ते सही ।।७६॥ नर निमुगति स्वीनि सिं नहीं । एह प्रादि संसथ रहि ग्रही ।। धर्म माहिं करि संदेह । संसय मिथ्यात फहीपि तेह ।।50॥ प्रशान मिध्याप्त पंचेंद्री हों । एकद्री मोडतो कण करिण ।। देव धर्म प्रतिमा उखेद । पंच पापना कहया भेद ।।८१॥

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