Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 294
________________ यगोषर राम २७० बान पूजा नव्य गमि हो । धरम कथा न सुहाय ।। विकथा कुटि कपटणी हो । जीव जसन न कराय हो जी॥३५।। पुत्र पुत्री होह नहीं हो । होइ तु मरीनि जाय ।। घमं कहीं करें नहीं हो . व्यसनि भूडा सहाय हो जीना३६॥ मित्र तेछि तारा मलि हो । सायि पापह बाट ।। इष्टतणां वियोग होइ हो। परि परि पामि उचाट हो जी०॥३७।। मीच फुलि बली अवतरि हो। करतो नीच जे काम ।। पोखि पिड पापि आपणो हो । न पाणि धम्म नू नाम हो जी०॥३८॥ लांच लेइ चाडी करी हो। धूतारी भरे पेट ।। पर अपवाद जूठा दीयि हो । पापन कारण नेट हो बी०॥३६॥ पाप प्रारंभ पोढां करि हो । करि पाप व्यापार ।। पापी यूं संगत करि हो । पाप मारण ए वीचार हो जो||४०॥ साधु साधीनी मीदि हो । धर्मनी वाटि न जाय ।। दान पूजाये कलेश करि हो । तीणि किम सुखलहाय हो जी ०॥४१॥ कोटवाल द्वारा धर्म के स्वरूप को कहने के लिये प्रार्थना कोटवाल कहि धर्म नो । कोहो स्वामी स्वरूप ॥ जिम भेद आणं घो। धरम लेऊ सुख कूप ।।१।। मूनिवर स्वामी कोलीया। दया परम करु सार ।। सुरग मुगती फल पामीयि : जिभ तरीयि संसार ॥२॥ कोटवालका पुनः प्रश्न कोटवाल तन्न बोलीयो । ब्राह्मण कहित क्यम् ॥ दान दीजि विप्र सेयथी । भूट नहि धर्म एम ॥३॥ क्षत्रीनि हींसा कही । पारघे प्राधिक कर्म । मांस खायते दोष ज नहीं। न्याय पालि होय धर्म ॥४॥ मद्य मांस दूषण नहीं । बेस्या सग प्रकृति ।। ए जीव सहिल छि प्रती भलं । नो करे एह थी नीयत ॥५॥ ब्रह्माई पशू सरजयां । ममृति कहि यन्न काज ।। वेद कहि पशू पा थी। लाहि ते स्वर्गद्द राज ।।६।।

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