Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 301
________________ बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि २७७ मलमलीन सरीर सही ए । घण घण घोषय जोय वो ॥ सात पात मल मूत्रे भरघोए । पवित्र सुगंध नहीं तोयें तो ॥३५॥ सील संयम तप पालताए । एह होये पवित्र तो।। मसूची कहो ए किम हो ए । ज्ञान नदी झोले नौत्यतो ।।३६।। सील प्रवाह तट सत्य तो। दया कलोल गीताएं का ए॥ प्रात्मा नदी संयम जल ए । पांडव ताा नीत्यतो ।।३।। कुल एहनु कहू' सांभलो । कलिंग देशनु रायतु ।। . मुदत्ताराय नाम रुपए । क्षत्रीय कुल गुण ठाय तो ।।३।। सपताग राजे मंडीयो ए । राजपाल तो एक वास्तु ।। कोटयालि घोर धरी प्रारण्यो ए । रायप्रति फहि वीचार ती ।।३६॥ एणि चोरि गृहपती मारयो ए । वित्त बोरथ उत्तंग तो।। चंड देवा ब्राह्मण पूछीया ए। ते बोल्या सुचंग तो ॥४०।। नाक हस्त पग खंड करोए । राय कहि कोहि पाप तो॥ ब्राह्मण कहें पाप रायने ए । मूक्यां करि पाप व्यापतो ॥४१॥ ते पाप पण रायने सही ए । तब राय लह्यो वैराग्य तो।। राजभार सुतने दीउए । संजम लीधो मोक्ष मार्ग वो ॥४२॥ कोष फरि नहीं सह्म तणो ए। घाय फूल हार तो॥ सुर नर फण विवाषर ए । पूजि चरण सुखकार तु ।।४३।। राजा द्वारा वाबमा करना तब राजा बोल मानीयो ए। मुनीवर भागल जाय सो ॥ नमोऽस्तु करप बहू जारिगए । जोग पारयो मुनीराज तो॥४४॥ प्रासुकं ठामें बेसीयाए । धर्म वृद्धि हुने दीषतो । राय पणं प्राचंभीयोए । मनसू पीचार तम कीपतु ।।४।। मुनीवरनि रामा कहि, कवण देउं उपमान ।। सगष दीसि नही । क्षमा तणो नीधान ॥११॥ ब्रह्मा कहूँ तो उर्वसो चल्यो । हरी तो गोपी लुब्ध ।। सौच कहू तो पीतृ वने फरि । रवि कहू तो ताप कीष ।।२।।

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