Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 317
________________ बाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि २६३ सुख भोगवि तिहाँ प्रती घणं ए। दीयीय मानस मोग ।। प्रनेक यात्रा कल्याणक करे ए ! पुण्य तरणो संयोग ।।८०॥ मारीदत्त प्रादि मुनी सहीए । तप कीधो महंत ।। प्रापापणा तप फलीए । सरग साध्यु जयवत ।।६१॥ वस्तु राय जसोधर कथा विस्तार । गौतम स्वामी इम कह्यो । दया तगो मंशार जारणो । अचेतन जीव हण्या थी ।। सात भवांतर भम्पा वखाणो । पुण्य पाप फल दाखध्यां ।। स्वामी ज्ञान मंडार 1 बार सभा सहीत तदा ॥ श्रेणीक हरषु अपार ।।२॥१॥ मास वषामगानी-राग धन्यासी मगवान के धर्मोपवेश का प्रभाव वीर स्वामी तणी सार । दीव्यश्वन प्रती नोरमसीए । गणधर गौतम स्वामी । विस्तारी प्रती सोहोजलीए ॥१॥ सुरवर फणधर स्वामी । ध्यंतर ज्योतिकि सहमलीए ।। बली तिर्यच नर जाण । विद्याधरे घणे सांभली ।।२।। हरख पाम्या सहू कोय । मानंद घणो मन मांहि वस्यो ए॥ चन्द्र पूरण जिम जोय । सामर कस्लोल उत्सस्योए ॥३॥ केता सील व्रत लीष । केते अहिंसा व्रत प्रादरथ ए॥ फेता मिध्यातनि स्वीप । केते मणुव्रत महावत भाचरपो ए ॥४॥ सोभली श्रेणीक राय । हरख ऊपनो मनमाहि घणो ए । जिनवारणी मुरण्ठाय । स्तवन करि हवि तेह तरणो एशा वीर वाणी जाणे मेह । तब नय रूपं राजती ए॥ वरसि धर्मामृत जेह । मीथात पंखी मद भांजती ए ॥६॥ स्वर्ग मोक्ष सुख क्षेत्र । द्धिप माडती दिन दिन ए। ज्ञान प्रवाह पवित्र । बुधि नदी बाषि क्षण सण ए ॥७॥ सुरपति मादि भय्य जीव । मोरनि घणं नचावतीए ।। संसारतापनें प्रतीव । निवारती भली भावती ए ।।

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