Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 286
________________ २६२ यशोधर रास मांस तणो लोभी बक हयो । भीमसेन हाधि से मुयो॥ मुनिष्य खातो काहाव्यों राक्षसु । नरकगति ते कर्मइ कस्पो ॥१११।। मद्य नियोगि यद् राजीया। माहो माहि वडो क्षय गया । मद्य निगोद पासिक नो ठाम । जीवनि नरकि प्रापि विश्राम ।।११२॥ प्रवटि मूल्यू जेहे ऊसारण । वेश्यानि ते सरखी भणं ।। कूसरा एक प्रावि छ । चारुदत पर दुख हाय । ११॥ पारष बसने ब्रह्मदत्त भरणो । हिंसा दौखि नरक भयो गरगो॥ बापता तृण पर किहिन न खाय । दुर्शन प्राण लेवा पूठि धाय ।।११४१३ परपारा व्यसनि भागजो । रावण क्षय गयो मन प्राणजो॥ प्रवर पुरुष कर केही मात्र । व्यसन ध्यलधो नरकह पात्र ॥११५।। चोरी व्यसन ते मुक्यो दूर । तीणि पाप लागि अति पूर ।। मरी नरकि सिवभूली गयो । परधन हरतां दुखीयो थयो ।११६।। सात व्यसन ए मुकि जाण । प्राणी पामि सुखनी खाए । एछ लोक परलोक जय होस । अनुक्रमि शिवपद पामि जोय ॥११७१० पया धर्म का प्रमाण समता रस सहूसू पादरो । कर चिप्त कोई पर मत करो॥ समा घरता जीवनें जोष । पदे पदे घरम अनौपम होय ।।११८॥ कोमल मन आपणं कोणीइ । जीव जयणा करी धर्म लीजीई। मार्दव त्रिकरण शुधि अरो। भवसागर यम हेला तरो ॥११॥ प्राजय कहोइ कपट रहीत । जीव दमा उपरि घरजें चित्त ॥ कलुम भाव टारलीजे जोय । नश्चेतो अविचल पद होय ।।१२।। सत्य वचन बोली में सही । एटला ऊकर पुण्यज नहीं ।। पर अपवाद रिकथा । त्यसो । गती नारी सूवेगि भजो ।।१२१॥ लोभ रहीस कीजि अंतरंग । परमातम सूलीजि रंग ।। बाह्य अम्र्पतर शौच धराय । मुगति नारी लीला बस भाय ॥१२१॥ कीजे संयम करत विधान । इन्द्रिय रोधी धर्म निवान ।। काम महागज बम प्राणी । संयमि मृगति कजी जामोयि ।।१२३!। बार भेद ये तप प्रापरि ! धीरवीर मेद उरि ।।। कर्म महावन अग्नी समान । पाम नीमल केवल ज्ञान ॥१२४।।

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