Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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बाई प्रजीवमति एवं उसके समकालीन कबि
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ईसि सृष्टि कारज जो करयो । ईस सरीर को घडी घरयो ।। थिए सन् ईस जो कारज करे । विरण तनू बेद वाणी उच्चरि ||७|
गगन फूले कंठ हार सू' होय । व्यंध्या सुत जातो ए जोय ॥३ सस सृगह धनुष कर धरी । मृगतृष्णा जल नाही करी ||८|| करुरणा ईस जगनी पाय । एक सुखी एक दुःखी को बाय || मात तात सीसु नव्य मारेय तो किम कहीयि संहार करेय ॥ ६६॥ एक ब्रह्म सह व्यापी रह्यो । सवे घट चंद्र बिंब पेर को || ब्रह्म ने बेद कहि नीकलंक | जय ए जीव मलिन सकलंक ।। १००॥ एक कहि जो मन बंधाय । जीव कमल परें रहयो जल द्वाय ॥ सुक नलीका पेर उपजि भ्रांत । कोकि देखाडो एदृष्टांत ॥ १०१ ॥ मन बंधन कारण सही होय । सुक परिजीव बंघातो होय || कोलीयो बंधाय जिम नीज लाख । तिम जीव बंधातु स्वयं भाल ।। १०२ ।। जो ए जीव धाय नहीं तो दीन दुखी को दौर्सि नहीं || जागो जीव करमि बांधवो विषय बलूषो दुखि घाषयो । १०३|| इन्द्रियों के कारण बन्धन
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स्पर्शन विषय बांध्यो हाथीयो । खाड पडयो अंकुश बस श्रीयो || बहू पेर भार लेईजे भम्यो विषय तृष्णायिए घणुं दम्यो ।। १०४ ।। रसना विषय वाहीयो होय । माछलो दुःख सहतो जोम |
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रसना विषय जीया कि जीवं । माछला पिर दुःख पावे श्रतीव ।। १०५ ।।
areer in at लोभीयो । भमये कमल माहि थोभीयु 11
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बांस कोरि एलो कठण सभाज । तिहां मूल विषय अनुराज ॥ १०६॥ | नवरण विषय छे तरामु पतंग | दीबा मांहि नावे निज मंग ||
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काई पण काज सरम गणो । फोकिं खोहि जीद प्रापणो ॥ १०७॥ पारधी घोट नाद वन सुखी । बेधाया हरणां हरणी ||
श्रवण विषय भोगव्याने पसाय । प्रथं न साध्यो प्राणे जाय ॥ १०८ ॥
हम जाली विषया मन त्यजो । सुष नीरंजन श्रायें भजो ॥ जिम पामो सुख केवल णाण । प्रवीचल पद पामो निर्धारण ।। १०९ ।। समों के कारण दुखी हुये मनुष्य
द्यूत वसन जुधिष्टर राव राज रुष्य हारि कहिवाय ॥
पायां दन मह पिरपिर दुःख धूत क्रीडाइ गयो राहु सुख ॥ ११०॥

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