Book Title: Bai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 281
________________ बाई अजीतमात एवं उसके समकालीन कवि दीप सिन्वा पवने लोप । कहो ने कावण दिसे ते जाइ ।। तर लोपायें लीपायि खाय । सिम सनू जातां जीव न ठाय ||३६।। पवन से समन सीसो गति । पानो सम्पजेमा दुःख दलि ।। जीवन बंधायन बमू काय । फोकि गहवी भ्रांतज थाय ॥४०॥ सुक नतीका पर बंछो जेल । विरण बधि बंत्र लेखे एम ।। मुनि का उत्तर मुनीबर बोल्या बोल वीचार । कर्जा ए जीव मल्यो भूत च्यार ॥४१॥ माटी पात्र अलिवली भरय । पवन जलीत आग ऊपरे धरयो ।। चार मलि जु उपजि जीव । माटी पात्र तो होय प्रतीव ।।४२।। जे गुड मादि कए दृष्टांत । ते तुझान के मोटी भ्रांत ।। जीव चेतन म्यानमु पूतलो 1 अपेत नए दृष्टांत न भलो ||४३|| वली मद शक्ति घेतन ने जोय । काठ पूतला ने मद नध्य होय ।। गल गंध दृष्टांत जे दीप । भबला वाल गोपाल प्रसीद्ध ।।४४।। फूल त्यजी गंध तेन सु रमि । पवर देह लेइ तिम जीव भचे ॥ जो पूर्व भव जीवनं न होइ । सीसु वाछह नु धावे न कोय ।।४।। जण्यू' पाछरु जाणि स्तन ठाय । प्रण मोखव्यू लगिते पाय ।। जारगे काल प्रनाद बीव भौ । करमें सीखवयो काल मीगमि ।।४६।। जीव तनु प्रति जूजूवा जाणवा । साधु असाधु भेद प्राणवा ॥ एक राय एक किकर जाग । वाहन एक बडीया वखाए 110) धनवंस एक एक धन हीन । एक मुन्द्री एक दीसि दीन ।। कोतवाल को पुन शंका कहि कोटयाल मुनी अवधार । चोर एक घर , पेइ मझार ॥४॥ लाख विछो न राख्यो ठांम । त्याहा पको चौर मरी गयो ताम ।। छीद्रन पडभो एकज रसी । जंतु गयो कुण मारगि प्रती ।।४।। एक चोर तोली मारघरे । बली तोल्यो ले तु भारयो ।। हलयो न मारे हबो लगार । तो किम जीव छि तनु मझार ॥५०॥ एक चोर करयो खंड खंड । जोयो दृष्ट लगाडी प्रचंड ।। जीवन जातो दीठो तेह तणे । एह उत्तर अहण्यें मुझ भरगो ॥५१॥

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