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बाई जीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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(५) सेवत विषय नृपति नहि मान-प्रस्तुन पद में कवि ने संक्षिप्त रूप में
मानव स्वभाव पर प्रकाश डाला है कि वह संसार में विषयों के सेवन करते रहने पर प्रस्ने भाषको अतृप्त मानता है और दिन रात उन्हीं के पीछे
दौड़ता रहता है। (६) सब दुःख मूल है मिथ्यात-इस पद में कवि ने मिथ्यात्व को ही
मानव के जग में भ्रमित होते रहने का प्रधान कारण माना है तथा पच्चीस दोषों को छोड़ने एवं पंच परमेष्ठी का ध्यान ही मिथ्यात्व को दूर करने एवं सम्मकत्व प्राप्ति का उपाय बतलाया है।
(0) करणा करो भगवंत जिनेश्वर पय नव-यह पद भक्ति परक है जिसमें
प्रम् भक्ति से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसका वर्णन कियागया है । जिनेन्द्रदेव की महिमा वेद भी बखान करने में असमर्थ रहे हैं इसलिए उन्होंने "नेति नेति' शब्द के द्वारा उनके महात्म्य को प्रगट किया है। वेदों
के नेति नेति शब्दों का वैष्णव कवियों ने मी वरात किया है । (4) "वेतन का मामलाना" चेतन पोलत' क्य नहि मनमैं-इन पदों
में कषि ने बहुत ही रोमांचक शब्दों में मानव को सावधान रहने का आग्रह किया है । वह प्राणी मारम स्वभाव को छोड़ कर पर स्वभाव में लग जाता और रतन को छोड़ कर कांय के टुकड़े में ही लुभाता रहता है।
इस प्रकार उक्त पदों के मूल्यांकन से पता चलता है कि भट्टारक महेन्द्र कीर्ति माध्यात्मिक संत थे जो अपने प्रवचनों एवं साहित्य रचना केद्वारा सदैव समाज को नैतिकता एवं प्रारम स्वरूप को पहिचानने का पाठ पढ़ाया करते थे। उनके सभी पदों में प्रात्मचिंतन एवं पात्मज्ञान की जो घारा दिखायी देती है बह प्रत्यधिक स्वाभाविक है। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे महेन्द्रकीत्ति को रात दिन प्रारमज्ञान प्राप्त करने की चिंता सताती रहती थी और उसी चिता को उन्होंने अपने हिन्दी पदों में व्यक्त किया हो। कवि के पक्षों में महावावि बनारसीदास के पदों की छाप दिखायी देती है तथा काबीर एवं दूसरे निगुंए पंधी कवियों की झलक दुष्टिगोचर होती है लेकिन इतना अवश्य है कि कवि ने इन पदों में अपने संद्धान्तिक ज्ञान का भी अच्छा उपयोग किया है ।
भाषा-महेन्द्रकीत्ति के पदो की भाषा राजस्थानी के समीप है। १८वीं शताब्दी
में जिस प्रकार भाषा में निखार प्राने लगा था वही रूप में हमें इन पदों की भाषा में दिखाई देता है लेकिन फिर भी राजस्थानी के शब्दों की बहुलता है स्यु,राच्यो, माच्यों जैसी त्रिया पद पाद राजस्थानी भाषाक साथ अपनी अधिक निकटता प्रदर्शित करते हैं।