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मीपाल चरित्र
माता पिता नहि दोनी कासु 1 तिन सब छोड्यौ भोग विलासु । मन मैं लाज भई प्रतिगाह । दुहूंनि छाड्यौ छिन मैं व्याह ॥२८॥ भई मजिका ते सुभ चित्त । जाने एक सत्रु अरु मित्र । भेदाभेद कछ नहि जांनि । जान सब जिन धर्म बानि ॥२८२।। लोक बिरूद्ध व्याह की लाज । भव सुष छडि दियो सुभ काज ।। अरु सुनि उत्तर कही विचारि । जीबी निज नैन निहारि ॥२३॥ तुमही वेषी सुरसुदरी । हीन बुधि तिन मनमैं धरी ।। ताहि दोष नहिं दीजै राइ । यह कारन सब गुरू पसाई ॥२८४।। जैसे जीव विचक्षन जांनि । है प्रैलोक माहि परधान ।।
षोर्ट संग करमकै रहे । निस वासुर महादुष सहै ।।२८५।। कमों की विचित्रता
छिन मैं नीच कहा सोइ । छिन ही मैं उत्तिम पद होइ ।। छिन ही मैं दुष पावै घनौं । छिन हो मैं सुष हुँ तुम सुनौं ।। २८६।। छिन ही मैं सु कहावै राइ । छिन ही मैं महारंक ह जाइ ।। छिन ही मूड महा भय भरै । छिन ही मैं संका पर हरे ॥२७॥ छिन ही में सौ दुर्गति जाह । छिन मैं स्वर्ग पहुंचे धाइ । जितने दुष पाब जड एहु । तितनी कहा कहाँ परि नेहु ॥२८८।। पै कछु जीवं खौरिन जानि । कर्म कुसंगति को फलु मानि ।। सुरसुदरी कुमति त्यो लही । कुगरू पढ़ाई तंसी कही ।।२८९॥ अरु सुनि गई वचन द कान । जातें सुअस होइ परवान ।। माइ बाप जाइ गुन साए । कुल उत्तिम जाको प्रोतार ॥२६॥ जोवनवंति देखें राउ । छिन लिन मन चितब सुभाउ ॥ मन वंछ मी वर मांग सोइ । सौलवंत नहि गनिका होइ १२६१।। बाप विचार जाको चित्त । पुत्री को जब देष नित्त । निर्भ होउ यह दी कास । कोबरु जोग सुकलह पयास ॥२६२६॥ यह चिस परिजन जु महत । सकल वोल कीजे सुभवंत ॥ उत्तिम कुल सोधिजे प्रवानु । विद्यापतरु पापु समान ॥२६३।। सुज्जन अन सब मंगल कर । होइ व्याह दो कुल उधरं ॥ कन्यां दान भाम तव लेइ । सौबौ तूठि वहुत करि देइ ।।२६४।।