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बाई अजीतमति उसके समका तीन कवि
या भेदै जान नहिं कोई । हीन बरको चितं सोइ ।। असी कथा कहत ते रही । कवि परमल्ल प्रगटि करि कहीं ॥१०॥ मुख की काही न समझत बात । यो जानंगे मन की बात ।। यह कहि तहां पहुँतौ राउ । पुनि पुनि अवलोक परि भाउ ॥११॥ प्रछ तापह मपाल नरेस । को तु ग्राहि बहुत अलबेस ॥ हंडत महि डोले तन मंग | बहूत रिंगह तेरै संग ॥१२॥ क्यों इह नगर कियौ परनाम । सांचौ कहो आप व्योहार ।। तब श्रीपाल कियो परनाम । हम सुनि पाए तेरो नाम ।।१३।। दयावंत सब कोउ कहै । प्रति उदादता तो जिय रहै ।। तात सुनि प्राये हम राह । बहुत कहा हम कहूँ बनाय ।।१४।। पुर गिरवर सरवर नाषत । अब हम पडते आइ तुरंत ।। चिता रोग सोग सब गयो । सुम्हरौ नए जब दरसन भयो १५।। यह सुनि नप फल्पो सब गात । सुनि कुष्टी न प मेरी बान ।। मंगि मंगि अघि तूठो अवै । बहुर्यो ल्याग लेइ मी कबै ।। १६ । विलम न की प्रोसर एह । मनको छांडि देहु संदेह ।। बोई भू मांगगो दान । सोई देउ रात्रिही मान ॥१७॥ तब तिन जप्यो पुत्रि देह । राजा प्रगट पहमि जस लेह ॥ यह सुनि राउ कोप अति भयो । फुनि अपने मन मैं चिंतयो ।।१।। यह तो निमत्त पहंतों आइ । वहत कहा है कही बढाइ । देषों सूरि को हो करें । याहि देह भजे सत्र भर्म ।।१६।।
नि कछु मेरी कानन निकारी । मलिन बात मुख लें उवरी ॥ यह मनमांहि विचार राउ । तब तिन जंप्यो जिन सती भाउ ।।२०।।
श्रीपाल को मैनासुन्दरी देने का प्रस्ताव
कुष्टी राइ बात सुनि मोहि । मैनासुन्दरी दीनी तोहि ॥ तेरे मन को भायो भो । तौ को मुह माग्यो थर दयौ ।।२१।। चलो सीहि पर नहि कंनि । मन वंचित सुघ देषिवि बंनि ।। जब मह बधन राइ को सुष्यो । तब सब मंत्रिन माथी धुन्यौ ।।२२।। ए नरनाह कियो कहा करें। कियौ गुपत न कहियो ममुं ।। यह कुष्टि तन भंग बिकार । पुत्री दे जो कहा विचार ।।२३।।