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बाई प्रीतमति उसके समकालीन कवि
बार बिभी बिना उनमान । करे राज सो इम्ड समान ।। नाना फल बिलसे मुषपाइ । मरिफ बहर्या मुफति जाइ ||२२१॥ जाके जन्न न्हायें कवि कहै । कुष्ट व्याधि नहिं तन में रहे । याको इचरन कट्स न प्राहि । जा करि है सो पार्न ताहि ॥२२२॥ मैंनांमुदरि पिय की देह । देषत गह भरि पाई नह ।। सब तासों मुनिवर यो कधी ! यह फल ते पर तुरत ही सही ॥२२३।।
मुनि की बन्दना करना
स्वामी सुम प्रसाद सव एह । बहुत बिनति कोयो धरि नेह ।। चरन कमल मुनियर के दि । दोऊ घरि मार मानदि ।। २२४।। गयो अशुभ सब वर्म सहाय । बाड्यो सुख को कह खाउ ।। धर्म एक त्रिभुवन मैं सार । धर्म दुःय विनासन हार 11२५॥
धर्म की महिमा
धर्म हि ते पर भी प्राइए । घमं हि कूल उत्तिम पाइए॥ धर्म हि से कीरति विस्तरं । धर्म हि ते कोऊ वर न करें ।।२२६।। धर्म हि ते बाद परिवार | पुत्त कालिस बिभौ अपार ॥ धर्म हि ग्रह व्यापै नहि कोर । धर्म हि ते सब काग्जि होइ ।।२२७॥
धर्म हि से नहि च कलंक । धर्म हि ते नवं सुर रंक ।। शम हि से नर बैर न बहे । धर्म हि ते कोई बुरी नवि कहै ।। २२८॥ धर्म तिहठी लेह छिडाउ। अब जमु नाम दिया था। गहें केस वपयो, जई। घरम राषि स है तब 1॥२२६।। धर्म हि त सब मिट किलेस । धर्म हि ते मरि होड़ मुरेस ॥ बहुत बात को कहै बदाइ । धर्म हि के ना मुक्तिह बाइ ॥२३ ० ।। कषि परमल्ल कहैं चित पाहि । घमं विनों को हिमू न प्राहि ।। प्रानी तजि परपंच विकार । करहु . धर्म ज्यों उतरं पार ॥२३१॥ पौर कछु सब दुख को पाम 1 धर्म एक जु सुख को नाम । धर्म हि ते श्रीपालह रूप । मकरध्वज सम भनौ अनूप ।।२३२।।