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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
पुभि अनोवृत सुनि हो राइ । दिसि अरु विदिसि नाम कौं जाइ ।। इनकी संख्या ल है जोइ । एक प्रधमगुन जानौं सोइ ।।७४।। हीन मलेछ यसत हैं जहां । कबहूँ भलिन जयं तहां ।। पुल प्रभावना जहां न सोइ । तहां विबेकी लोग न कोइ ।।७५|| नषी मजार स्वांन जिय जिते । भोजन इन्छ गहन हो तिते ।। तिनपं ते लीजिए छिडाइ । बडो एक गुण है यह राज ||७६|| मैंन लोह लाष अरु राल । महु बासिरा मूत हरिताल || अरु तिन मै बसिए परवान । धर्मवंत सर्व गुन जान ॥७॥ यह उद्यम सबही ते हीन । पर इन दंडिन लेड प्रवीन । प्रथमहि जिन चैत्याल जाइ । तब उदिम आरंभ प्राइ ।।७।। के प्रतिमा पूजं निज गेह । तव भोजन सौं पोष देह ।। उत्तर दिसि सनमुष सुभथान । पालिक संन कगै नर जान !|७६।। कीजे सामाइक भिन्न काल । मूलमंत्र जपिय सुबिसाल ।। राग दोस दीजै छिटकाय | पंच परमगुर चित्त गुगाय ॥८०|| संजम सरवर बसो छांह । सुभ भावना घरो मनमाह ।। विहता प्रासन मांडौ सार । पान न जहां बहे पसार । ८१।। एक मांस मै पंचह वार । कीज बुत मन सुघ विचार || बक्षा भरण रैन अरुघांम । पान सुगंध भोग अभिराम ।।८।। इंद्री पोषन कीजे भाव । इनकी संख्या की राव ।। अंसी बिधि ते बाढे धर्मं । नार्म सकल पाप भरि कर्म ।।३।। मुनि जिया श्रावक बहबास । अम जे रोग लीन जन पास ।। च्यारि प्रकार दान जो देइ । मनवांछित फल सोज लहेइ ।।४।। द्वारापेषन कर निहारि । जो लो बजे पहर परि धारि ।। कारै सोधि घर भीतर जोई । सोई जानी श्रावक लोइ ।।८।। सर्च जोब करतां रापियं । अमिल बोल सबसौं भाषियो ।। जौलौं अपनौं कछु बसाइ । जीउ बिराषत लेहु छिराइ ।।८।। तो करना मनमांहि अनाइ । समकित धरिफ नीकै भाइ ।। हाइ हाइ मुषते उचरी। दया भाव उर. अंवर घरी ||७|| निसल्ल मरन करि भ्रमी विवेत् । काल पाइ पावै सिब रेह ।। ए बारह व्रत विविध प्रकार । या संसार माहि जो सार ।।८।।