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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
सिंघ चक्र पाराधे चित्त 1 जैन धरम प्रतिपाल वित्त । पुत्र कलि मित्र सुभ ठान | करै राज चक्रव समान ||१५७।। इच्छित काम भोगरस लेइ । मैनासुदरि मान घरेह ।। नाटिक नर्च बेद घुनि हो । सत्र राज पार नृग सोइ ।।१५८।। दुरजन वसि कीए बलि बंड । हय गय नग ली बहु हँड ।। इन्द्र तुल्प सुप जाइ न गिन्यौं । महाराज सब ही विधि बन्यौं ॥१५६।। बहुत काल गयो इह रीति । वसुधा सकल करी व सि जीति । गज गुजरै महामदमंत । हय हीस देषिये अनन्त ।।१६०॥ से पाइ बहुंत नर पाल | निति प्रति मा सरस रसाल ॥ प्रष्ट सहस सुदरि भोग । जा प्रताप महि मंडल सबै ।।१६१५॥ बांचे वृधजन काब्य पुरांन । गुनियन जन को राप मान ॥
गुनियन जन राय दरवार । पाचै ह्य गय विभी अपार ॥१६२॥ मैराग्य भाव उत्पन्न होमा
एकह दिन प्रासन विहसत । चोहूंघा चौकियो जोवंत ॥ . उनकापात भयौ अति आम | देषत ही चित चित्यो ताम ॥१६॥ ज्यों चिंतत यह गयो दिलाय । त्याही मो विभूति सब जाय ।
राज भौग धन जोवन गवं । प्रसे ही मौ जैहैं सर्व ॥१६४॥ पुत्र को राज्य देना
यह मनमैं चितवै नरेस । सो उदास मन भयो असेस ! धनपाल सुप्त लमो बुलाय । कही राजभारु सुष पाइ ।।१६।। स्त्त राज पाली धरधीर । हम निज काज सबार बीर ।। यह सुनि बिलथ्यौ भवन कुवार । एतु अमन ते कमी असार ११६६।। बालापन सुप लह्यो न जांनि । हय सुत्र पय सुष ललौ न मानि ।। है निहचित न कोयौ भोग । राज भार ह्रौं नाहीं जोग ॥१६७।। तुम बिन सजन मोप होय । महा दुष को देखें जो ॥ तासौं राव कहै सुनि धीर । कुल मारग प्रगटी बर बीर ।।१६८।। पून न बहै गिता को राज । कहा सरची तिन जाऐ काज ।। जे सुत पिता सुख नहि देहि । अरु कुटंब को भारु न लेहि ।।१६६।। अरू जे कुल कलंक नहि हरे। ते सूत मही भार न पोतरं ।। ता सुत जाये हो इक सूत । तातै वपरौ भलो अपूत ॥१७॥