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श्रीपाल चरित्र
मुनि द्वारा धर्मोपदेश
यह सुनि मुनि जप सुभ कंद । सुनौं राइ निज कुलके चंद ।। धर्म वृद्धि ही भाषर्षों पिसी । श्रीजिन प्रापुन भाषी जिसी ॥६३।। बडो धर्म दस लक्षन जानि | गुन अनंत को कई बषांनि ।। अरु सम्मिक दरसन सुभ जोइ । धर्ममूल है प्रथमह सोइ ॥६४॥ अतुल लछि समिकत ते सर्व । समकित ते लहिए सिव दर्य ।। समिकत तीर्थ कर पद कर । समिकत गुन अनंत संघरै ॥६५।। सम्यकु सर्व होष दुष नास । सम्मकु सबही सुषको बास ॥ समिकत बिन दुष वा तर्फ । सम्यक विन नर भव, भर्म ।। ६६।। सम्पक गुन जाकै मन पाहि । सबै मुन मालवं ताहि ।। तपु जपु संजमवृत मरु पुन्न । सम्यक एफ विना सब सुन्न ।। ६७॥ अरु सुनि श्रावक व्रत हो राइ । संषेपों कहीं समझाइ ॥ मन वच काइ त्रिसुध्यो चित्त । जी भइ न कीजिए नित्त ।।६।। थावर बिनु कारन ठारिए । प्रथम अनोवृत यह पारिए । सचं मुष सचें जी रहैं । मिथ्या पचन मूलि नहि कहै ।।६।। अलियो बोल बोलिए जब । जीव विराधत उबर तब ।। पुरपट्टन मारग मैं जाइ । परधन दिष्टि पर जो आइ ।।७।। लेइ भवत्तन उत्तिम लोइ । त्रिन समान देवं जिय जोय ।। कबहुं न चोर संग जाइए । लाको हर्यों न धनु खाइए ।१७१।। परदारा न देषिए नैन । माता बहन सम वोलहु बैन 11 हय गय रथ अरु दासी दास । वस्त्राभरन पीर घरबास ।।७२।। गाह मैसि अरु षेत वर्षान । इन संख्या कीजिए प्रवान । अनोवरत एकावस सार । प्रोरु दया गुन पंच प्रकार ॥७३||
दोहा
जो को पार भाव घरि, सुष भुज मन सोह। भव दुष सकल निर्कदिको, मुक्ति श्रीफल होइ ।।७४।।