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गाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
भोपाल परित्र का अन्तिम पाठ
चौपई भोपाल की सेना
वीरदमन सो मुकतिह गयो । परमसिष सिधारी भयो ।। श्रीपाल मुंज सुषराज । सिद्धचक फल की शुभ साज ।।१।। सरव जीव की रक्षा करें । पुन्य भाव सब जीय मैं धरै । मनमैं परिगह संष्या करी । और बिभूति सबै परहरि ।।२।। पाठ सहस अतैवर संत । दोस सहस हाथी मैमंत । बौस लाष राषिया तुरंग । सोलह लाख रथ' बर चंग ।।३।। पंदल संख्या कहीयन जाइ । बहुत रिधि को कहै बढाइ ।। संध्या सकलवमि जो कहीं । कहत कथा कछु भंत न लहों ॥४॥
दोहा
प्रशुभ कर्म भयौ दूर सब, शुभ प्रगट्यो जु अपंख ।। ' राज कर बिलस विभौ, श्रीपाल बलि बंड ।।५।। कीयो सुजस मुव लोक मैं, दुर्जन के उर सल्ल ।। सकल जीव रक्षा करन, श्रीपाल भुव मल्ल ।।६।। एक छत्र सो भयौ नरेस, जाको परिजन बहुत प्रसेस ।। दीपानी ते नृप पाए साथ, बह सुख दै सम दे नरनाय ||७||
चौपई
सत्त ज पारं घर धीर । दुष्ट जननि मर्दै बरकीर ॥ दयावंत नहीं ताहि समान । कोऊ मिटि म सकई प्रोन ।।८।। तिनसों नेह कियो असमांन । बोली श्रीपाल की मांन । सेकम ह अपने घरि गए । ते निरम सबही ते भए ।।६।। भरथ चक्रधरि पाली जिसी । राजनीति वह पार तिसी ।। जिनको नाम पई चित्त । अतुल मुष सो भुज नित्त ॥१०॥ इह विधि राज कार नरनाह । सब ही जनमक्ष भमौ उछाह ।। दीन दुषित जग पोर्ष प्राम । कोटि टका दिन बीज बोन ।।११।।