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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
कन्यादान लियो नरनाङ् । तब भरि हीयौ मूकी बांह ।। मंत्री जन सब लए बुलाइ + मरौं मुह मति देपो प्राइ ॥१२५।।
राजा द्वारा पश्चाताप करमा
है है हूँ पापी वरवांन । है है हूं मतिहीन अयान ।। महादः परयन की दम । अजस सकल लोक म भयो ।।१२६।। बार वार अंसो उच्चरं । असे काम नीच नहीं करें ।। सय गुवाई कुल की रीति । नर भी षोयौ करी प्रनीति ।।१२।। अब कहां वदन दिषांक लोइ । चही कालिमा मेटै कोइ ।। है है पुत्री सत्र गुन लीन । जन धर्म पाला परवीन ।।१२८।। मो निर्मल मति पोटी भई । तू कन्यां कोढी को दई । पुत्री कहैं सुनी ही तात | मिटै केम जिन भाषी बात ।।१२६।। कछु षोंरि नहीं दीजे तोहि । उ कर्म पायौ सनि मोहि । जो कुछ निमित्त होइ जिह काल । तेई अंक लिषे मम भाल ।।१३।। पहल विधनां यह जीय धरी । पीछ हौ मरभ संचरी ।। जो कछु पाप कर करतार | ताको कोज कहां बिचार ॥१३१। काह पास न भाषी जाइ । प्रजह कहा होयगी राइ ।। घंसौ बचन भूप जब मुन्यौ । मन पिछतानी मांयौ धुन्मौ ॥१३२।। नीकं कार देषों चित चाहि । अपनी चूक मुनावों काहि ।। यह चितप्त दीनी ज्योनार । सोवो दोन्ही प्रगन अपार ।।१३३३॥ शुत्र चमर दीन्हे भंडार । दीन मेगल तुरीय ते सार । पाटंबर दी। वह पीर । जिने लगे निर्मोलिक हीर ।।१४।। पोइस वर्षनि झीने अंग | पहिरै पंचू सबै सुरंग ।। अति सुदरि दासी गनि लई । एक सहस्र सुधरि कौं दई ।।१३५ ।
सहस दास सुंदर गुन रेहं । दीए सिरीपाल कौ तेह ।। मेवग भले भले जे भए । बहूत और सेवा कौं दए ।।१३६।। पुश्री देषि विसूरै राइ ॥ बार बार मनमैं पिछताइ ।। कंचू दीन्हे काही न जाइ । बहुत दीए प्राभन गाय ।।१३।।