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बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
राजा कई व्याह के चार । वेगे करौ बहौइ प्रवार || मेरी मन को इष्ट सु थाहि । बेगि जवांई ल्यावी नाहि ॥७॥ करों से जो मोते होइ। बार बार यौ भाव सोइ ॥
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मंत्री गये सीस धूनि जहां। नगर निकासह बरही जहां ॥ ९८ ।। coat महत प्रति विपरीति । तन मन जाकी है गल पीति ।। ले आए प्रति कुष्टी देह व राषि प्ररु लागी षेह ॥१६॥ कोसी हंसी करें क
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टेषत राजा प्रति सुष कियो । कंचन कलस न्हावन दियो ।। १०० ॥ सौधों मर द्यौ बहुत प्रवीर । तौभी बास न वजे सरीर ॥ कंकन कर बांध्य सहरी मूरिष राउ भयो बाउरी ॥ १०१ ॥ कामनि घोरी गाव' जवे । दूल्हा व्याहृन चलियो त ॥ चंचल तुरी चढावन लियो । मंत्री चाहे हांती कियो ।। डिठ बाग मही कर चाउ । राजवंस क्यों मिट सुभाउ ।। १०२ ।।
श्रीपाल को बारात
चलो बरात उडी तहां बूरि । रही तहां घर घंवर पूरि ।। रतनजति सिर उपरि छ । हरें छत्र सोभले महत्तु ।। १०३ ।। श्रीपाल मन हर्षित भयौ । मंडफ द्वारे ठाकरे भयौ ॥
पनि सयल देखियो श्राइ मांनी अंबुज हुए तुसार सो भयो चित्त नराउ | मांनी भयौ बच को घाउ ।। १०५॥
तिनके बदन गये कुमिलाई || १०४ || मानों तबर हुए कुठार ॥
से बहु रुदन करें गह भरें। राजा की ते निंदा करें ॥
नारी नर अंतेवर जिते । प्रति विलयांहि बिसूर तिले ॥ १०६ ॥ तिनके बिल कहा सिराह । राजा मनमें परो लजाइ ॥ मूंड राम्रो नीची करि नारि । काहू तन नहि सकै निहारि ।। १०७ ।।
माता बहन बरी गह भरें। हैहेकार लोग सब करें ।
माता महा दुःष तन दगी हा पुत्री दुःख सागर परी । वयीं है तिर मैना सुन्दरी ॥ पूरक कियो पाप
भौमासुन्दरी द्वारा समझाना
पुत्री के एह कंठह लागी ॥ १०८ ॥
जाते भयौ नाह संताप ॥ १०६॥
सुन्दरी बोली जिन मत लीन । समभावं परियन परवीन ॥ कोउ दुःष करों मति । शुभ अरु अशुभ कर्म को जोग ।। ११० ।।
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