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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
काहूतो मैंसी बरनई । सुरकन्यां सुरगत चई ।। कौऊ कह नहीं इह सौह । यह तो नाग सुता पनि होइ ।।३२०।। काहू कहू इम अंसी भनी । यह पुत्री विधना पर तनी॥ काहू तो यह उपमा दीय । काहू पाहि जक्ष की धीय ।।३२१॥ कोक कहै को देवी पाहि । पटनर दई न सके हम ताहि ।। षोडस बरस घड़ी परवांन । कोक रूप न ताहि समान ।।३२२।। मैना को जस वरन इंच ताको मुष सोहै मकरंद ।। लोचन भरुन श्रवन अति बनें । ज्यौ चक्रित भृग स्वादल तने ।।३२३।। कर कटाक्ष दृष्टि धनु' बान । अकुटि कुटिल मनमथ कमांन ।। मार्थ मंग विराज बार | अति कोमल अति स्याम सुटार ||३२४।।
वन नि कइल राजत कंद । मानों बात कहे दैनंद ।। भीक सौमित अधर अभंग । विट म उपम बिराजहि अंग 11 ३२५।। ऊंची नांक इसी जनहारि । जानों कंचन घरी सवारि ॥ दसन पंति बीसै चमकति । कृपली दाहिम कीसी मति ॥३२६।। छोटी ग्रीव मुक्ति की मार । ताकी जोति जग अधिकार ।। उर उपरि द्वे सुबनित गुभ । मानौ मैंन के कंचन कुंभ ।।३२७।। मृगपति लंक मध्य प्रक्षीन । त्रिबलि नरंग सोभ करि लीन ।। कोमल पान कमलता वाल । बाहु जुगल सोमै सुबिसाल ॥३२८॥ जंष जुगल कदली के तूल । कोमल पत्रा गौर बनफल ।। धंगक बर्न पुष्प तन जानि । अति कोमल को काहे वषांनि ॥३२६|| अति मुगंध तासु को सरीर । बाब लपटें बहुत समीर ।। अति कुल संभ्रम दिन रनि । चितवत चितचोर गमनगैनि ।।३३०॥ महि पर मंद मंद पग धरं । देषत मनमथ को मन हरे ॥ हस चाल सी पहली तहां । निज घर जननी जोन्नति जहां ।।३३१।। दिव्य वस्त्र पहरे सति सची । तब जिनबर की सूजा रची ।। अष्ट प्रकारी जिय धरि नेह । मद बच का छांडि संदेह ॥३३२।। द्वारापेषन भाव लिन किया। मुनि कोऊ न तहाँ देखियो । भावना भाई पूजी नाम । फुनि भोजन श्री मइ प्राबास ।।३३३॥ स्मल्योयन छह रस शुभचित्त । पारनं रस लग्यौ पवित्त ।। अति सुदर मुख सोधि जो लई । तवरुचि सी टि ठाठी भई ॥३३४।। प्रेस मुष मुजे बहु बाल । सीलवंत अरु गुनह घिसाल ।। गाहा दोहा छंद बवेक 1 परस पास भाष सु अनेक ।। ३३५।।