________________
श्रीपाल चरित्र
मन में पुत्री कियो प्रानन्द । जान्यो निहचे पाप निकन्द ।।
श्रीजिन पूजा करि मनु लाइ । मुनिवर के बंदे तिन पाइ ॥२३१। दोनों का अध्ययन समाप्त कर पाना
निज जननी हू बैठी जहां । सुरसुन्दर पडती तहाँ । प्रथम पुत्री बहु पद पुरांन । सामुद्रिक व्याकरणं सूजान २३२।। कोक कला नाटक गुन जिते । पढे कुवरि सुरसून्दर तिते ॥ पढि गुनि, महा विचछन भई । तब पांडेस्यों गोलि लई ।।२३३॥ राजा पासि पडतो जाइ । पुत्री देषि राज बिहसाइ ।। तबहि चिन बोल्यो करि सेब । मेरी बात सुनौ हो देव ।।२३४।। पुत्री के मन को तम गयो । विद्या दान याहि मैं दयो। और कहा हूँ कहू बघानि । करी परीक्षा आपुन जानि ॥२३५।। तब राउ प्रति हर्षित भयो । बहुत दान पांडे को दयो ।। दै असीस सिंकगुरु घरि गयो । पुत्री सभा देषि सूस्खभयो ॥२३६।। जो जो बात प्रयास कोई । सो सो निरभास कहि सोइ ।। चपल चित्त जोशन श्रीलही । राजा पासि वात तिन कही ॥२३॥ प्ररथ सिधासन जाइ बईट्ट ! दह दिशि जौवं चंचल दी? ।। राजा कही समस्या तेन । लॉि कहा कुवरि पुन एन ।।२३८।।
दोहा
पुन्यह लहिए एह, विद्या जोबन रूप धन ।। धरि परियन के नेह, मनबंछित सुष पाइये ।।२३।।
औपई
तब नृप रहो मुहां मुह चाहि । नीक करि मन चरथ्यो ताहि ।।
मांगि पुत्री वरु जो मन बसे । देषत ताहि चित्त उल्लस ।।२४०।। सुरसुन्दरी का विवाह
सुनौ सात हौं भाषौ तिसी । मेरे मन में बर्तत जिसी। कौसम्धीपुर को नृप जान' । बहुत सैन है तुम समान ।।२४१।।