Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 13
________________ भी विद्वान व पंडित देवचन्द्र मुनि उदयसेन, वादीन्द्रविशाल कीर्ति, यतिपति मदन कीर्ति, भट्टारक विनय चन्द्र, कवि अर्हदास, पं. जाजाक, विल्हणकवीश, बालसरस्वती महाकवि मदनोपाध्याय, छाहड़ आदि की योग्यता से परिपूर्ण थी। वाग्देवी उस समय भी धार की अधिष्ठात्री देवी थी । धनपाल की संस्कृत में लिखी तिलक मंजरी परमार राजा को 'जैन धर्म' को समझने के लिये लिखी गई थी जिसमें उस समय के जन जीवन और इतिहास संबंधी कई महत्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध हैं। हलायुध, पद्मगुप्ता, उवाता, छिताया आदि परमार संसद को गरिमापूर्ण बनाये रखते थे। भवन शास्त्र व मूर्ति शास्त्र के विद्वान वर्तमान में मांडू व धार में स्थित भवनों का वर्गीकरण करते हुए कहते हैं कि प्रथम स्तर पर उस समय मन्दिरों को धराशायी किया गया और उन्हें मस्जिदों में बदला गया। चार मस्जिदें दो धार में और दो मांडू में 1400 ई. व लाट मस्जिद 1405 - इसी कार्यवाही का परिणाम हैं। कमालमौला मस्जिद ई. धार में तथा दिलावर खान मस्जिद 1405 ई. व मलिक मुगिथ की मस्जिद मांडू में इइ कार्यवाही को प्रमाणित करते हैं कि इस बात का विशेष प्रयत्न किया गया था कि मूल मन्दिर के प्रमाणों को इस प्रकार छिपा दिया जाये कि वे दिखाई न दें। प्राचीन मन्दिरों के आर्च (उन्हें पुरानी मांडू के परमारकालीन मन्दिरों को तोड़कर लया जाना चाहिये) मस्जिदों में जड़ दिये गये। इन बातों का स्मरण इसलिये करना पड़ रहा है कि इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि कमाल मौला मस्जिद के पहले वाग्देवी सदन शारदा सदन था व वाग्देवी उसकी अधिष्ठात्री देवी थी। कमाल मौला मस्जिद के पहले प्राणवान धारा नगरी थी, जिसके कण-कण में सैकड़ों साल से चली आ रही राजा भोज के प्रश्रय में भारतीय संस्कृति का वास था, जिसे मनथलेन ने वाग्देवी के शिल्प में रूपाकार किया था। क्या हृदय में बसी उस वाग्देवी को कोई भारतवासी के हृदय से निकाल सकता है। किसी राजनेता, धर्मनेता, कानून व आन्दोलन में यह शक्ति नहीं जो इसे संभव कर सके। - संदर्भित वाग्देवी मूर्ति का मूल्यांकन करते समय विद्वानों की दृष्टि से कुछ बातें छूट गई है जिनमे एक महत्वपूर्ण है कि ( मूर्ति के) दाहिने हाथ के ऊपर कोने में तीर्थंकर मूर्ति का अंकन है। जैन सरस्वती की मूर्ति के साथ तीर्थंकर की मूर्ति सभी सरस्वती मूर्तियों में उपलब्ध है। सरस्वती की उपासना भारतीय जीवन का एक प्रमुख अंग हैं। वह भारतवासी के ज्ञान को समर्पित होने का प्रतीक है। वह ज्ञान की देवी है। महाभारत, वाजसनेयी संहिता, ऋग्वेद, शिवप्रदोष स्तोत्र, मार्कण्डेय पुराण सबमें इसकी ज्ञान की देवी के रूप में वंदना की गई है। जैन चिंतन में तो आगम उपासना व देवोपासना को समकक्ष व समानार्थी माना गया है। जैन परम्परा में ज्ञान की देवी श्रुतदेवी का प्राचीनतम स्मरण मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त श्रुतदेवी ( 132 ई.) की मूर्ति के रूप में सुरक्षित है। सरस्वती की दो मूर्तियों का अंकन खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर के मंण्डपद्वार की छत में भी है। इसी मंदिर के पश्चिम की तरफ छत में दो सरस्वती के अंकन और भी हैं। हुम्चा व बगाली की दक्षिण भारत की सरस्वती मूर्तियाँ भी प्रसिद्ध हैं। पल्लु ( राजस्थान) की मूर्तियाँ तो अत्यंत जीवंत हैं। 12 वीं शताब्दी की जगदेव की सरस्वती मूर्ति (1153 ई. गुजरात) अपनी मनोज्ञता के लिए प्रसिद्ध है। विद्या देवी अच्युता हिंगलाज गढ़ 10 वीं सदी की मूर्ति हमें सरस्वती की धारणा के निकट पहुँचाती है। विजवाड़ की जैन श्रुत देवी का 11 वीं शती का शिल्प भावों की दृष्टि से उसी परंपरा का है जिसमें धार की मूर्ति बनी। श्रुत देवी की अलीराजपुर अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 11 www.jainelibrary.org

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