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पर्यायवाची है पढ़ा जो इस मूर्ति को सरस्वती / वाग्देवी की मूर्ति सिद्ध करता है। मूलत: यह मूर्ति जैन परंपरा के सरस्वती शिल्पों से जुड़ी है।
भिन्न - भिन्न देवी- देवताओं, यक्ष-यक्षियों के शिल्पों में हम कुछ भिन्नता देखते हैं। यह भिन्नता कई कारणों से होती है। मूर्तिकार की कार्यशैली व उसकी सोच, मूर्ति बनवाने वाले का दृष्टिकोण, मूलसामग्री जिससे मूर्ति निर्मित हो रही है, से मूर्ति का स्वरूप आकार लेता है और उसका प्रभाव शिल्प पर दिखाई देता है। यहाँ तक कि तीर्थंकरों की मूर्तियों के निर्माण में भी अंतर दिखाई देता है उसका कारण भी यही है। अतः सरस्वती / वाग्देवी की मूर्तियों पर अंकन की भिन्नता का आधार भी यही है। यह शिल्प खंडित हो गए हैं या कर दिए गए, राष्ट्रीयता के अभाव में विदेश पहुँचा दिए गए, जहाँ कहीं भी यह शिल्प पहुँच गए हैं उन्हें अनावश्यक तर्कों में उलझाकर सांप्रदायिकता की धुंध ढांक दिया गया। यह हमारी ऐसी भूल है जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। बीते को भूला देने के अतिरिक्त हमारे पास कोई मार्ग नहीं है किन्तु अब तो हम जागरूकता पूर्वक अपने दायित्व का अनुभव करें।
इतिहास को पलट देने का आग्रह प्रत्येक आक्रांता के हृदय में रहता है। उसके हृदय में विजेता बनकर विजीत स्थान को अपने आग्रहों के अनुकूल बदल देने का विचार रहता है। उस स्थान की मूल संस्कृति व चिंतन धारा को वह बिजली के बल्ब के समान बदल देने का निर्णय करता है। वह सोचता है संस्कृति के प्रत्येक चिन्ह को नष्ट कर दो, प्राचीन चिंतन के रिकार्ड ( सांस्कृतिक ग्रन्थ) जला दो, विद्या के पीठ भूमिगत कर दो। पर क्या यह सभंव है ? न सिकन्दर ऐसा कर पाया, न मोहम्मद गौरी ऐसा कर पाया, न चंगेज खाँ ऐसा कर पाया, न बाबर ऐसा कर पाया। वे केवल इतना कर पाये कि उन्होंने कुछ खंडहर बना दिये अपने हृदय के विकार को बताने वाले कुछ प्रस्पिर्धी निर्माण करा दिये किन्तु संस्कृति की धाराओं को नष्ट करना किसी के बस में नहीं। क्या मूर्तियों - मन्दिरों को नष्ट कर देने से इतिहास बदल जायेगा ? संस्कृति अपना रूख बदल देगी। भारत में प्रमाण तो यह है कि जब जब मूर्ति और मन्दिर तोड़े गये उससे कई गुना अधिक निर्मित हुए इसी का परिणाम है कि आज भारत में पूजा स्थल रहवासी स्थानों की तुलना में अधिक हैं।
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यह समीक्षा इसलिये दोहराना आवश्यक है क्योंकि यह यक्ष प्रश्न सामने है कि धारा की, शारदा सदन की, भोजशाला की अधिष्ठात्री वाग्देवी की मूर्ति को खंडहर (शारदा सदन के खंडहरों) में फेंक देने से क्या इतिहास सदैव के लिये मौन हो गया ? क्या कोई यह सिद्ध कर सकेगा कि भोजराज था ही नहीं ? यदि भोजराज था तो शारदा सदन भी था और वाग्देवी की मूर्ति भी थी । परम्परा के प्रमाण समस्त मालवा अंचल में बिखरे पड़े हैं। बदनावर, नलकच्छपुर ( नालछा ), बड़नगर, मांडू और स्वयं धार के ऐतिहासिक स्रोत एक पुष्ठ सांस्कृतिक परम्परा का प्रमाण हैं। भोज के पूर्व और भोज के बाद ( जयसिंह प्रथम 1053-1060 ई.), राजा नरवर्म देव ( 1104 1107), विन्ध्य वर्मा, सुभट वर्मा, देवपाल और जैतुगिदेव ( 1166 ), अर्जुन वर्मा ( 1210-1218) के शासन काल में यह परम्परा पल्लवित रही। पं. आशाधर सूरि ने 1225 से 1248 के बीच शांत नलकच्छपुर ( नालछा ) में रहते हुए विविध विषयों के 40 ग्रन्थों की रचना की । ध्यान रहे भूर्तिभंजक मोहम्मद गोरी ने 1193 ई. में पृथ्वीराज का अंत किया था। दिल्ली में लूटमार व आधिपत्य करने के पश्चात उसने अजमेर पर चढ़ाई की व लूटमार की। इसी के परिणाम स्वरूप आशाधर सूरि के पिता संलक्षण सपरिवार धारा नगरी आ बसे थे। धारा नगरी उस समय
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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