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974 ई. के लगभग सीयक परमार ने एक जैनाचार्य से मुनि दीक्षा लेकर शेष जीवन एक जैन साधु के रूप में व्यतीत किया था। वाक्पतिराज . मूंज अपरनाम उत्पल राज बड़ा वीर, पराक्रमी, कवि और विद्या प्रेमी था। प्रबन्धचिंतामणि आदि जैन ग्रंथों में मुंज के संबंध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। वह अनेक संस्कृत कवियों का प्रश्रयदाता था जिनमें जैन कवि धनपाल भी था। दिगम्बर जैनाचार्य महसेन और अमितगति का वह बहुत सम्मान करता था। मूंज जैनी था या नहीं यह तो प्रमाणित नहीं होता पर जैन धर्म का पोषक अवश्य था। सन् 995 ई. के लगभग उसकी मृत्यु हुई। उसका उत्तराधिकारी उसका अनुज सिन्धुल या सिन्धुराज (996 - 1009 ई.) था जिसके विरूद्ध कुमारनारायण और नवसंवाहक थ। 'प्रद्युम्नचरित्र' के कर्ता मुनि महसेन का वह गुरुवत आदर करता था। उसका उत्तराधिकारी भोजदेव परमार (1010 - 1053 ई.) प्राचीन वीर विक्रमादित्य की ही भांति भारतीय लोक कथाओं का एक प्रसिद्ध नायक है। मालवा की राजधानी उज्जैन से धार स्थानान्तरित की गई थी व मांडु व धार परमार शक्ति के प्रमुख केन्द्र थे। वह वीर प्रतापी होने के साथ - साथ परम विद्वान, सुकवि, कलामर्मज्ञ, विद्वानों का प्रश्रयदाता और जैन धर्म का पोषक था। उस के समय में धारानगरी दिगम्बर जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र थी और राजा जैन मुनियों एवम् विद्वानों का बड़ा आदर करता था। अमितगति, माणिक्यनन्दि, नयनन्दि, महापण्डित प्रभाचंद्र, आचार्य शांतिसेन, कवि धनपाल, सेनापति कुलचंद्र इन सब जैन महर्षियों का भोज बहुत आदर करता था। यह सब विद्वान मिलकर भोज की राज्य सभा का स्वरूप बनाते थे। बाद में मुसलमान लेखकों ने भी भोज की सफलताओं का सम्मानपूर्ण वर्णन किया है। भोज ने जैन मंदिरों का निर्माण भी कराया था। उस काल में प्रतिष्ठापित अनेक मूर्तियाँ मालवा प्रदेश में यत्र-तत्र प्राप्त होती हैं।
राजधानी धारानगरी को भोज देव ने अनेक सुन्दर भवनों से अलंकृत किया था। उसने वहाँ सरस्वतीसदन या शारदासदन नामक एक महान विद्यापीठ की भी स्थापना की थी। इसी शारदा सदन को लेकर अनावश्यक विवाद पैदा कर दिया गया है। धारानगरी भारतीय संस्कृति की प्रतीक नगरी थी। उसे आक्रांता गतिविधियों के साथ जोड़ना इतिहास का निरादर करना है। यह विद्यापीठ कोई साधारण केन्द्र नहीं था। यह विद्यापीठ राजाभोज की सांस्कृतिक कार्य स्थली थी। प्रख्यात विद्वान पद्मश्री डॉ. वि. श्री. वाकणकरजी ने शारदा भवन का वर्णन करते हए लिखा है - यहाँ विद्याध्ययन एवम् विद्वत् सभा का आयोजन होता रहता था। परिजातमञ्जरी में इस सभागृह का स्पष्ट वर्णन किया गया है। इस भवन को भारही (भारती भवन) कहकर सम्बोधित किया गया है। भारती भवन के प्रांगण में नाट्य समारोह होते रहते थे। भोज ने स्वयं "समरांगण सूत्रधार" में राज्यभवनों, सभाभवनों एवम् मंदिरों का वर्गीकरण करते समय सभाभवन में 'नन्दा, जया, पूर्णा, भविता, प्रवरा, विकरा' आदि प्रकार के कक्ष बताए हैं। सम्भवत: जया कक्ष में वाग्देवी की प्रतिष्ठा की गई थी।
उपर्युक्त धारणा का आधार भोजशाला का आकार है। वह 175 फुट लंबी और 160 फीट चौड़ी होना चाहिए। आज तो आयताकार पीठ ही बचा है। शेष जो बचा है वह तो मुस्लिम आक्रमण के पश्चात का पुनर्निर्माण है। इसे अतिक्रमण माना जाना चाहिए। ग्रंथकारों का उल्लेख है कि 'सरस्वतीकण्ठाभरण-प्रासाद' में धनपाल के काव्य की पट्टिकाएँ भित्ती पर लगाई गई थीं। 'प्रभावक चरित्र' में 'सूराचार्य चरित' के उल्लेखानुसार यह पाठशाला थी। इसका तथा भोजराज निर्मित व्याकरण का यहाँ अभ्यास होता था। आज भी वहाँ सैकड़ों शिलालेख मूल कक्ष में फर्श पर लगे हए हैं। इस प्रासाद को सर्वसाधारण "भोजशाला' कहते हैं किन्तु प्रभावक चरित्र में इसे 'वाग्देवीकुल सदन' या 'भोजसभा' कहा है। तिलक
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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