Book Title: Arhat Vachan 2003 07 Author(s): Anupam Jain Publisher: Kundkund Gyanpith Indore View full book textPage 8
________________ 'जैन धर्म के विषय में प्रचलित भ्रांतियाँ एवं वास्तविकता' शीर्षक पुस्तक में प्रामणिक रूप से पाठ्यपुस्तकों में आपत्तिजनक स्थलों का संकलन कर वास्तविक तथ्यों को भी प्रकाशित किया था। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने इसमें अनेक सन्दर्भो को उपलब्ध कराया था। माताजी की प्रेरणा से मानव संसाधन विकास मंत्री माननीय श्री मुरली मनोहर जोशीजी एवं NCERT के वर्तमान निदेशक श्री जे. एस. राजपूत से सतत सम्पर्क रखकर उनके विशेषज्ञों के साथ जैन विद्वानों की गोष्ठी करवाकर तथा उन्हें वैकल्पिक पाठ उपलब्ध कराकर दिग. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर ने काम को अंजाम तक पहुँचाया एवं यह सम्पर्क का कार्य आज भी जारी है किन्तु इस बीच में दर्जनों व्यक्ति एवं संस्थायें श्रेय लेने के चक्कर में प्रगट हुई एवं तिरोहित हो गई। हस्तगत कार्य को पूर्णता तक ले जाना पज्य माताजी एवं संस्थान की नीति है। अन्य पज्य संतों. संस्थाओं एवं व्यक्तियों को इस नीति का अनुसरण करना चाहिये, इससे दिगम्बर जैन समाज के बहुमूल्य संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सकेगा। 1987 में एक सुविचारित नीतिगत निर्णय लेकर दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, इन्दौर के अन्तर्गत कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल द्वारा की गई थी। सतत् निवेश एवं निर्विकल्प संरक्षण से 16 वर्षों में संस्था ने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनाई है। परम आदरणीय संहितासूरि पं. नाथूलालजी शास्त्री ने भी इसकी प्रशंसा की है। किन्तु कार्य क्षेत्र इतना विशाल है कि एक संस्था इसको नहीं कर सकती है। मात्र शोध संस्थान या शोधपीठ नाम रखना ही पर्याप्त नहीं है, हमें इस नाम को सार्थक करना होगा। प्रत्येक शोध संस्थान अपनी रूचि का क्षेत्र चुनकर उस क्षेत्र में नेतृत्व करते हुए पूरी जिम्मेदारी संभालें। जैसे शौरसेनी प्राकृत के अध्ययन, अनुसंधान के कार्य को गति देने का कार्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली के माध्यम से करा रहे हैं। आगम ग्रंथों के कन्नड़ भाषा में अनुवाद एवं सम्पादित संस्करण तैयार करने की दिशा में पूज्य भट्टारक चारूकीर्ति स्वामीजी, श्रवणबेलगोला राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं समाशोधन केन्द्र, श्रवणबेलगोला के माध्यम से प्रयासरत हैं। ये दोनों संस्थायें बधाई की पात्र ___ अर्हत् वचन के प्रस्तुत अंक में हमने 10 लेखों एवं 12 टिप्पणियों को स्थान देकर माननीय लेखकों के श्रम एवं प्रबुद्ध पाठकों की जिज्ञासाओं का सम्मान किया है। इस हेतु पृष्ठ संख्या भी बढ़ाई है। अगले अंक में भी इस क्रम को जारी रखने का प्रयास करेंगे, जिससे वर्ष-15 में पाठकों को यथेष्ट पठनीय सामग्री प्राप्त हो सके। गुणात्मकता में वृद्धि हमारी प्रथम प्राथमिकता है इसमें माननीय लेखकों का सहयोग अपेक्षित है। हम प्रयास कर रहे हैं कि प्रकाशनार्थ प्राप्त लेखों के बारे में स्वीकृति/अस्वीकृति की समयावधि 6 माह तक सीमित की जा सके एवं प्रकाशन अवधि भी 12 माह से कम हो जाये। किन्तु लेखक भी अपने लेख निर्धारित प्रारूप में ही भेजें एवं निर्णय होने तक अन्यत्र प्रकाशनार्थ न भेजें तभी हम इसे अग्रणी शोध पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित कर सकेगें। ___ अन्त में मैं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के सभी माननीय निदेशकों, अर्हत् वचन परामर्श मंडल के सदस्यों, लेखकों, प्रबुद्ध पाठकों एवं अपने कार्यालयीन सहयोगियों के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ जिनके सहयोग से ही प्रस्तुत अंक इस रूप में आपके सामने आ रहा है। आपके पत्रों की सदैव की भाँति प्रतीक्षा रहेगी। डॉ. अनुपम जैन अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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