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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
श्रीजैनधर्मप्रचारिणी सभा, काशी द्वारा पं० गजाधरलालजी शास्त्रीके सम्पादकत्व में प्रकाशित कराया था, जो अब अलभ्य है और काफी अशुद्ध है ।
मुद्रित द्वितीय संस्करण - दूसरा संस्करण वी० नि० सं० २४५७ ( ई० सन् १९३० ) में श्री विहारीलालजी कठनेराने अपने जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, बम्बई द्वारा प्रकट कराया था । यह संस्करण पहले संस्करणका ही प्रतिरूप है और इसलिये उसकी वे सब अशुद्धियाँ इसमें भी दुहराई गई हैं । इतनी विशेषता है कि यह १६ पेजी साइजमें छपा है जब कि प्रथम संस्करण २२x२९ = ८ पेजी साइजमें। इन दोनों मुद्रितोंकी 'मु' संज्ञा रखी गई है । अमुद्रित प्रतियोंका परिचय निम्न प्रकार है
'द' - यह देहली के पंचायतो मन्दिरकी प्रति है । इसमें कुल ५६ पत्र हैं जिनमें अंतिम पत्र उद्धारके रूपमें पिछले जीर्ण पत्रके स्थानपर लिखा गया जान पड़ता है और उसपर समय-सूचक अन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार दिया हुआ है - " || || शुभमस्तु इत्याप्तपरीक्षा समाप्तम् ( प्ता ) संवत् १५७८ वर्षे श्रावणसुदि ३ शनौ उं ॥ श्री ॥ श्री ॥ " यह प्रति कुछ अशुद्ध है और कुछ जगह पंक्तियाँ भी छूटी हुई हैं, किन्तु अनेक पाठ इसमें अच्छे उपलब्ध हुए हैं । यह जीर्ण प्रति बा० पन्नालालजी अग्रवाल, देहीकी कृपासे प्राप्त हुई ।
'प' - यह मुख्तारसाहब के संग्रह में मौजूद पं० पंजाबरायके हाथ की लिखी हुई प्रति है ।
'स’– यह वीरसेवामन्दिर, सरसावाको सीताराम शास्त्री द्वारा सं० १९६६ की लिखी हुई प्रति है । इसमें ११० पत्र, प्रत्येक पत्रमें २४ - २४ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में २८-२८ के करीब अक्षर हैं ।
प्रस्तुत संस्करण की आवश्यकता और उसकी विशेषताएँ
इस संस्करण से पूर्व के दोनों मुद्रित संस्करणोंमें न कहीं पैराग्राफ है और न कहीं विषय-विभाजन | पढ़ने और पढ़ानेवालोंको वे एक बीहड़ जंगल-से मालूम पड़ते हैं -कहाँ ठहरना और कहाँ नहीं ठहरना, यह भी उनसे सहज में ज्ञात नहीं होता । अशुद्ध भो वे काफी छपे हुए हैं। इधर आप्तपरीक्षाकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है । विद्वानों, विद्यार्थियों और स्वाध्यायप्रेमियोंमें वह विशिष्ट स्थान प्राप्त किये हुए हैं। गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, बनारसकी जैनदर्शनशस्त्रिपरीक्षा, बंगाल संस्कृत
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