Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 06
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
[11]
गामाणं नयराणं मिय जाईणं(?) अरिटुसंघाया ॥ गब्धगयमि(म्मि) गया ते अरिट्टनेमि च घोसिति ॥ .
इत्थंतरम्मि नंद गोय(उ)लाउ कन्हे(न्ह) बलभद्देणं महुराए वासर(चाणूर ?)मल्लाइ हणित्ता कंसं निज्जा(?द्धा?) हित्ता उग्गसेणं रज्जे अहिसिंचित्ता केसु वि वरिसेसु जरासिं(सं)धभएणं अट्ठारसकुलकोडीहि समं सुद्धाए रेवयसिहरम्मि कोलमाणे अट्ठमेणं भत्तेणं सत्त जोयणाइं लवणसमुद्दो भूमंडलं अप्पेइ ॥ इत्थ रेवयवणंसि एगो पुलिंदउ पव्वयसिहरम्मि तिसंज्झां मूमंजलं अप्पेई ॥ इत्थ रेवयवणंसि एगो पुलिंदउ पव्वयसिहरम्मि तिसंज्झं उज्झिलसिहरं वंदइ । तेणं सुहज्झाणेणं कालं काऊण वेसमणजखो(क्खे)जाए । सो तिक्कालं पूएइ, उज्झिलसिहरे अरिहनेमिं दट्टण हरिसेइ । जहा णं समवसरणं तहा पव्वयो । तत्थ सव्वया जायवजायवीहिं खिल्लिय सच्चाभामाए पुत्तजुयली उववना । तत्थ सक्काएसि(से)णं वेसमणेणं सुवन्नरयणमई दुवालस नव जोयणपमाणा अट्ठारसधणुच्चपायारे सत्तभूमीए अट्ठारसभूमि(मी)ए बत्तीसभूमि(मी)ए विमाणसमाणपासाएसु खिल्लंति जायवसहस्सा(स्सी)उ नंदणवणवाविमंडवेसु निच्च(च्च)नट्ट-गीय-खेल्ल-कीलणाई कुणंति ॥ तत्थ पुव्वाए रेवयसिहरं । तत्थ भगवउ अरिटुरयणमई अरिहनेमि पडिमा उइयसहस्सकरुव्व उज्जोयमाणा विज्झि(म्हि ?)य हियया पिच्छंति । उत्तराए वेणुवंतं पच्छिमाए गंधमायणो दाहिणाए तुंगहिसिहरी ।
एवं तुं बारवईए वासुदेव-बलदेवा तिस(स)डाहिवइणो जरासिंधवहं काऊण विचित्तविसयकोलमाणा खिल्लंति । बावत्तरीय सहस्समहिसीउ वसुदेवस्स। अछुट्टाउ कोडीउ पुत्ताणं । नव कोडीउ पपुत्ताणं । छप्पन्नाउ कोडीउ पपुत्ताणं । एवं दसण्हं दसारा पुत्तपपुत्तकोडिलक्खेहि समं कोलंति । इत्थ पज(ज्जुन-संवाई वहवे कोडि लक्खा। एयंति(मि)अवसरे भगवं विसयविरते । तिवाससए आ(अ)म्मापिउ सुस्सूसणीए गच्छित्ता संखं पूरेइ । तं समयम्मि खुहिए भरहे लवणसमुद्दे । पडिसद्देणं विम्हियं तिहुयणं । भीया बारवई । इद्धिए(उट्ठिए ?) कन्हाई याइजाइ(य)वो-कि अहिणववासुदेवे चक्की वा? । जाव आगच्छइ ताव भगवं अरिहनेमी । मा तुमं खीण छ(?ब?)ले मल्लयुद्धेणं कीलिस्सामो । पढमं सिरिनेमिणा कन्हस्स वाहू वलिए णा लव(?)(णालं व'इतिस्यात् ।)। तउ पच्छा हरी हरिव्व देवासुरपच्चक्खं अंदोलिउ। एवं विलक्खो कन्हो । एवं विसयविरत्तमवि भगवतं वसंतकीलणेण जलकेलि-हास-पडिहास-गीयनट्ट-अंगमद्दण-मंडण-विहूसण-गाहाइ प(पु)च्छण-पडिपुच्छणाइविहिणा कण्ह भारियाहिं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122