Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 06
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 50
________________ [45] यदि बहु-सागर-जिवित-मानं, मानद भवति संसारे रे । अमर-नायक इव धन-धन-सहितं, हितकर भव-दव-वारे रे ॥ ९ ॥ तदपि तवामल गुण-गण-राशि, वासित-भुवन-विचालं रे । नोतुमलं न भवामि हि जिनवर, नव-रस-सरस-विशालं रे ॥ १० ॥ काव्यम् श्रीसर्वज्ञ जिनेश तावक-लसत्पादारविंद-द्वयं, प्रातर्यो नमति प्रभो प्रमदतो लक्ष्मी-विलासालयम् । प्रीति-प्रेम-वशादवश्यमवशा सेवेत सेवापरा, पद्मा पुण्य-परंपरा-पर-नरं तं सर्व-कालं-कलम् ॥ ११ अद्वैआ कमला-केलि-निवास, शम-रस-विहितोल्लास । वासव-निकर-पते, जय जय विमल-मते रे जिन जय जय विमल-मते || १२ वामादेवी-जननी-जात, प्रभावती-वरयति तात । सुख-कर-विनत-जने, चरण-पवित्र मुने ॥ १३ जिन० २ मोहन-वल्ली-कंद, निर्मित-नयनानंद । सुंदर सदय-मते, त्वयि मनो मे रमते ॥ १४ जिन० २ उपशम-रस-भुंगार, जगती-युवति-शृंगार । शं कुरु मे भजते, भव-सागर-विरते ॥ १५ जिन० २ काव्यम् वाणी सैव मनोहरा ननु यया त्वं गीयसे नित्यशः, श्लाध्या दृष्टिरियं यया च नितरां त्वं दृश्यसेऽहर्निशम् । हस्तः शस्ततरः स एव फलदो यः पूजये त्वां जिनं, ध्यानं धन्यतमं तदेव सुखदं यस्मिन् प्रभो त्वं भवेः ॥ १६ ॥ ॥ फाग ॥ विषम-महारस-पूरित, दूरित-धर्म-मति । शरणागतमथ मां जिन, अवृजिनं कुरु सुमतिम् ॥ १७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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