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अनुसंधान
रोहरिते सच्चवयणस पलिम (ठाण सत्र, २२९) मुखरता सत्यवचननी बिधातक छ।
प्राकृत भाषा भने जैन साहित्य विषयक। संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
A
संकलनकार : मुनि शीलचन्द्रविजय. हरिवल्लभ भायाणी
CASTO
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ('ठाणंग 'सूत्र, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
६
संपादको : मुनि शीलचन्द्रविजय हरिवल्लभ भायाणी
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
१९९६
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संपर्क :
प्रकाशक :
किंमत :
प्राप्तिस्थान :
मुद्रक :
अनुसंधान : ६
हरिवल्लभ भायाणी २४ / २, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदाबाद ३८० ०१५
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदावाद, १९९६
रू. २५-००
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ,
अहमदावाद
३८० ००१.
-
क्रिष्ना प्रिन्टरी हरजीभाई एन. पटेल
९६६, नाराणपुरा जूना गाम, अहमदावाद - ३८० ०१३. फोन : ७४८४३९३
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१. पढमाणुओगनी उपलब्ध वाचना श्री आनंदमाणिकय-रचित :
२.
३.
४.
श्रीनवखंडा - पार्श्वनाथ- फागुकाव्य अपभ्रंश भाषा-बद्ध 'वज्रस्वामि चरित' वा. मेरुनन्दनगणि- विरचित 'गौतमस्वामिछन्दांसि
( एक उत्तरकालीन अपभ्रंश रचना) 'उवसग्गहर' थुत्तनी समस्या-पूर्ति
५.
६. वाचक यशोविजयजीनो पत्र - खरडो
७.
अनुक्रम
८.
२. जू. गुज. आंबलु 'पति, प्रियतम'
३. लजामणी
४. सुकुमारिका, प्रथमालिका
५.
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणी
सं. आचार्य प्रद्युम्नसूरि
सं. रमणिकभाई शाह
अपभ्रंश दोहा
मुनि प्रेमविजयनी टीप
टूक नोंध :
१. मीण- प्रत्ययवाळां अर्धमागधी वर्तमान कृदंतो
०
१२. चर्चापत्र
१३. शत्रुजय-मंडन - ऋषभदेव - स्तुतिनी प्राप्त वधु हस्तप्रतो
१४. स्वाध्याय ('अनुसन्धान' ना अंकोनो )
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि ५६
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणी सं. मुनि भुवनचन्द्र सं. मुनि भुवनचन्द्र हरिवल्लभ भायाणी
'अंगविज्जा' मां निर्दिष्ट' भारतीय ग्रीक
कालीन अने क्षत्रपकालीन सिक्का
६. प्रियतमा वडे प्रियतमनुं स्वागत
७. 'जुगाइजिणिंदचरियं'ना एक पद्यनो आधार
Jain Monumental Paintings of Ahmedabad
१०. Interpretation of a Passage in the Bhagavadajjukiya
११. पांडवचरित्र - बालावबोध
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणी ६२
Dr. Shridhar Andhare
H. C. Bhayani
हरिवल्लभ भायाणी
४३
४७
मुनि भुवनचन्द्र
w x 3 w o w
६५
६८
७१
७६
७८
८०
८१
८३
८७
९०
2
९१
९९
१०१
११३
११४
११५
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निवेदन
'अनुसन्धान' धीमे पगले आगळ वधी रह्यं छे, तेनी प्रतीति तेना आ छठ्ठो अंक तथा तेनुं सामग्री-वैविध्य जोतां थई शके । हजी ऊहापोहात्मक लेखोनी थोडीक ऊणप अवश्य आमां अनुभवाय, तो पण, आ पत्रिका-मिषे प्राचीन अप्रकट लघु रचनाओनो उद्धार थाय छे, ते पण ओछा महत्त्व तो नथी । आ साहित्य-भक्तिना कार्यमा दिने दिने विद्वानोनो वधु ने वधु सहयोग मळ्या ज करशे तेवी श्रद्धा छ ।
जैन साहित्य अने प्राकृत साहित्यमा रस धरावता विदेशी विद्वानो तरफथी पण 'अनुसंधान' माटे अमने प्रोत्साहक अभिप्राय मळतो रह्यो छे. पेरिसथी प्रकाशित थता - Bulletin D'Etudes Indiennes ( = भारतीय अध्ययनोनुं सामयिक)ना ११-१२मा अंकमां (१९९३-९४) तेना संपादक प्रा. नलिनी बलबीरे 'अनुसंधान ना पहेला त्रण अंकोर्नु फ्रेंच भाषामां विगते अवलोकन करतां कर्तुं छे के आ सामयिक द्वारा जे एक महत्त्वनुं काम थई रह्यं छे ते छे आ विषयमां भारत अने पश्चिमनी वच्चे एक सेतु स्थापवान : गुजरातमां थता कार्यनो त्यांना विद्वानोने परिचय मळे, अने विदेशमां थता कार्यनो अहींना विद्वानोने परिचय मळे. तेमणे अप्रकाशित कृतिओ संपादित करी प्रकाशित कराय छे, अने भाषाप्रयोगो विशे जे ढूंकीनोंधो अपाय छे तेनी पण प्रशंसा करी छे. आ अवलोकनथी हेमचंद्राचार्य स्मृतिनिधिना आ प्रयासनी उपयोगिता विदेशी विद्वानोना ध्यान उपर आवशे.
• आ उपरांत स्मृतिनिधि द्वारा प्रकाशित 'प्रबंधचतुष्टय' (संपा.
डॉ. रमणीक शाह ) प्रत्ये पण, प्राकृतभाषामां, सिद्धसेन दिवाकर, पादलिप्तसूरि, मल्लवादी अने बप्पट्टिसूरिनुं चरित प्रस्तुत करता पद्यमय प्रबंधो लेखे जैन प्रबंधसाहित्यमा तेमनुं जे महत्त्व छे ते ए अवलोकनमां दर्शाव्युं छे. आ समभावी अवलोकन बदल अमारा धन्यवाद.
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"पढमाणुओग "नी उपलब्ध वाचना
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि
'पढमाणुओग' ए एक बहुचर्चित अने अप्राप्य जैन आगम ग्रंथ छे. 'नंदिसूत्र' मां तेम ज अन्यत्र आ ग्रंथ विशे प्राप्त वर्णनना आधारे, आ ग्रंथमां अर्हन्तोनां जीवनचरित्रोनो समावेश होवानुं जाणी शकाय छे. आ ग्रंथनुं 'मूल प्रथमानुयोग' एवं वास्तविक नाम छे. तेनुं पुनर्विधान श्रीकालकार्ये कर्यु, पछी ते 'प्रथमानुयोग' नामे ओळखायो. आ ग्रंथ कालान्तरे लुप्त थयानी परंपरा छे. ओछामां ओधुं १२ मा सैकाथी तो ते अप्राप्त ज छे. आ ग्रंथना स्वरूप विशे तथा तेना विशे प्रवर्तती केटलीक धारणाओ विशे आगमप्रभाकर मुनिराजश्री पुण्यविजयजीए महावीर जैन विद्यालयना सुवर्ण महोत्सव ग्रंथमां विगते उहापोह कर्यो छे, ते द्रष्टव्य छे तेओ श्रीना निष्कर्ष अनुसार, 'पढमाणुओगं' नामे ग्रंथ कालकार्यनी रचना हती, जे मध्यकालमां अप्राप्त एटले के लुप्त बनेल छे.
मारा पूज्य गुरुजी आचार्य श्री विजयसूर्योदयसूरिजी म.ना संग्रहमा १४ पत्रोनी एक हस्तप्रति छे, जे संभवतः, तेनी लिपि उपरथी, १५मा शतकमां लखायेली छे. आ प्रतिना अंते 'पढमाणुउग्गे सोलसमज्झायणं' आवो उल्लेख छे, ते जोतां, एना लेखक अथवा ए कृतिना प्रणेता तेने' पढमाणुओग' तरीके वर्णवे छे तेम समजी शकाय छे. ते उल्लेख परथी तेओ श्रीने ते कृतिमां प्रतिमां रस पड़यो, अने तेओए पंडित छबीलदास के. संघवी पासे वि.सं. २०२९मां तेनी सुवाच्य प्रतिलिपि करावी लीधी. कृति प्राकृतमां छे, अने अशुद्धिओनो भंडार छे. तेनो विषय ऐतिहासिक धार्मिक छे, परंतु ते विषयमां सळंगसूत्रता नथी. त्रुटक त्रुटक लाग्या ज करे. आ स्थितिमां गमे वा विद्वान वाचक के लेखकने पण तेनी नकल करवामां कठिनाई वर्ताया विना रहे हि. प्रस्तुत नकलमां पण एवं ज हतुं. ताजेतरमां, आ प्रति तथा तेनी प्रतिलिपि मारा हाथमां आवतां मने पण तेमां रस पड्यो. पुनः साथी साधुओने साथे बेसाडीने ते वांची; घणा सुधारा थया. ते पछी तेनी पुनः प्रतिलिपि करी, जे अत्रे प्रस्तुत छे.
आ रचनाने, आ प्रतिमां निर्देश्या मुजब 'पढमाणुओग' तरीके ओळखावी अवश्य शकाय, परंतु ते साथे ज, ते 'कूट ग्रंथ' छे, एम पण निःशंक कहेवुं जोईए. आ विधानना समर्थन माटेना केटलाक मुद्दा अहीं तपासीए :
१. 'पढमाणुओग' ए जिनचरित्रोनुं विशद निरूपण करनारो ग्रंथ छे एम मान्य संदर्भों द्वारा आपणने ज्ञात छे. एनी सामे, प्रस्तुत कृतिमां जिनचरित्रनो एकादो
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[2]
अंश पण नथी. २. 'पढमाणुओग'नो जे रीते महिमा तथा स्वरू पवर्णन मान्य संदर्भोमां प्राप्त छे ते उपरथी ते प्रगल्भ अने गंभीर भाषागुम्फ धरावती एक विद्वद्भोग्य कृति होवानी छाप उपसे छे; तेनी सामे, प्रस्तुत रचना तद्दन त्रुटक, श्लथ अने वेरविखेर बाबतोना अणघड संकलन जेवी होवार्नु, सहेजे जणाई आवे छे. ३. आपणने उपलब्ध जाणकारी प्रमाणे, ओछामां ओछु, ११ मा शतक पछीथी पढमाणुओगना अस्तित्व पर पूर्णविराम मूकाई गयो हतो. ज्यारे प्रस्तुत रचनामा वि.सं. १२४७नो स्पष्ट उल्लेख कोई घटना संदर्भे जोवा मळे छे.तेथी आ रचना, वहेलामां वहेली गणवानी थाय तो पण विक्रमना १३मा शतकथी वहेली तो नथी ज, ते निश्चित लागे छे.म
आटलुं नक्की कर्या पछी पण, आ रचना कोनी हशे? अने आने 'पढमाणुओग' गणाववानी हिंमत कोणे अने केम करी हशे ? ते प्रश्नो तो आ क्षणे अनुत्तर ज रहे छे. तज्ज्ञो तथा इतिहास-मर्मज्ञोने आ रचनामांथी ज आ विशे कांईक जडी आवे तो ते असंभवित न गणाय.
प्रस्तुत प्रति विशे उपर वर्णव्यु ज छे. आनी बीजी नकल कोई जुदां नामे क्यांक कोई भंडारमा होय तो बनवाजोग छे. कोईना ध्यानमां आवे तो तेओ सत्वरे ते विशे प्रकाश पाडे.
एक संभावना एवी थई शके के १३मा शतकमां पण पढमाणुओग के पछी तेना कोई अंशो, कोईने परंपराप्राप्त, बची गया होय, अने तेमांना पोताने रुचेला होय तेवा अंशोनुं के ते अंश-आधारित पोताना भावोनुं निरूपण/आलेखन, तेमणे आ रूपे कर्यु होय. अलबत्त, आ अटकळने कोई सबळ प्रमाणनो आधार तो नथी ज. परंतु, आ कृतिना आरंभमां "एवं तित्थथुणणं काऊण करिति पढमाणुउगं - धणमिहुणे त्यादि ।" एवी पंक्ति छे, ते उपरथी उपरोक्त कल्पना उठी शके खरी.
श्री जिनप्रभसूरिकृत "विविधतीर्थकल्प'' ना "सत्यपुरकल्प" वगेरे अंशो साथे आ रचनाना ते ते अंशोने सरखावी शकाय तेम छे.
आ रचनाना विविध अध्ययन तथा तेना उद्देशोनी मालिका आ प्रमाणे छ : १. पुंडरीय अज्झयण
बीय उद्देसो २. पुंडरीय अज्झयण
तईउ उद्देसो ३. पुंडरीय अज्झयण रेवयवणुद्देसो ४. पुंडरीय अज्झयण
चउ उद्देसो
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;
१५.
[3] ५. रेवय(अज्झयण ?) पंचमुद्देसो
कंचणबलाणुद्देसो एवमुद्देसा पंच छठ्ठ उद्देसउ
सोटु उद्देसो १०. पुंडरीयज्झयणं ११. पुंडरीयज्झयणे
छुडुद्देसो १२. आसावबोहतित्थज्झयणे तईउ उद्देसो
पंडवुद्देसो १३. चंदेरीतित्थज्झयणं पंचमं चउत्थ उद्देसो १४. चंदप्पहासज्झयणं
चंदावई उद्देसो १६. चंदज्झयणं
रयणुद्देसो १६. सोलसमज्झयणं
आमां मुख्यत्वे पुंडरीकगिरि, रैवताचल, अश्वावबोध(भृगुकच्छ)तीर्थ, चंद्रावती, चंद्रप्रभासपत्तन, सत्यपुर- आ बधां तीर्थो विशे विवरण छे.
पुडलतीर्थ(आजे मद्रासनी नजीक छे)नो पण उल्लेख आमां मळे छे. अन्य पण एवा अनेक ऐतिहासिक उल्लेखो आमां जोवा मळे छे. जेवा के जावड/जावडि शेठ, महव्वय/महूय(महुवा), गूर्जरदेश, भुयड, दुर्लभराज, खुरासाण, श्रीमालपुर अने तेनो भंग, हम्मीरराज वगेरे. जावडशेठनुं मृत्यु तथा तेना आगामी भवनी हकीकत, शकुनिविहारनो प्रसंग सत्यपुरनी प्रतिष्ठा तथा तेनुं मुहूर्त इत्यादि अनेकविध पौराणिकऐतिहासिक माहितीनो आमां मजानो खजानो छे. इतिहासविदोनी दृष्टिए आमां घj प्राप्त थई शके.
आ तबक्के तो आ रचनाने यथावत् मुद्रित करवामं आवे छे. तेमां निर्देशायेलां विशेष नामो वगेरनी सूचि वगेरे हवे पछी तैयार करवानो ख्याल छे. आ रचनानुं सौथी महत्त्व- पासुं ते तेनी प्राकृत भाषा छे. प्राकृतमां आवा प्रकारना प्रबन्धो जूज मळे छे, तेथी आनुं मूल्य ओछु न गणाय.
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[4] ८० ॥ अहँ ॥ नमो दुवालसंगस्स ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं वीरे वद्धमाणे चउद्दसणसहस्सीहि सदेवमणुयासुरासुरेहिं परिव(वु)डे सोरट्ठयम्मि देसे विमलगिरिम्म पियालुचेइयदुम्म(म)स्स-हिट्ठा सोहम्माहिवई निम्मिय समवा(व) सररो (ण)स्स तित्थकरपेठ्ठ(ढ)यम्मि समोसढा(ढो)। भुवण-जोइ-वेमाणिया तित्थं पभांविति । भगवंतं तित्थपणामं काऊण थुणंति पभ(?)सिरि समणसंघतित्थं जयइ ।
"तिउलुक्कतित्थमउडो विमलगिरी जयइ विमलभूमी य । जत्थ ज(जु)गाइ जिणं (जिणेणं ?)जुगाइतित्थं समक्खायं ।।"
एवं तित्थमु(थु)णणं काऊण करि(रि)ति पढमाणुउ( ओ )गं । “धणमिहुणे" त्यादि।
"जाव ज(?)लवणे बिंदू सव्वढे ताव एय पं( पुंडरी( रि)ए । कालेहि बिंदुसंखा असंखसिद्धा य पंडुरीए( पुंडरिए)।"
तं सत्तावीसगुणलक्खातु(उ)कं(?)बालबंभचारिणीउ सिद्धिं गयाउ उक्कोसा संखगुणाउ।
अन्ने वि पुह[वि]वइणो उसभस्स पहुप्पए अखिज्जा । जाव जियसत्तू(त्तु )राया अजियजिणपिया समुप्पन्नो । गा(ग)गा एईय(णईय)बिंदू जावई(इ)या तत्थ तत्थ उद्धारो । असं(स्सं ?)खो पुंडरीए, जो सगरो चक्कवट्टी य ॥
एवं उद्धारेहि उवसोहेमाणे असंखइखा(क्खा)गवंसनरिंदकोडाकोडीउ सिद्धा जाव सुविही अरिहा । तित्थच्छेए अंतर(रं)तित्थच्छेओ । इउ य पुणो वि तं चेव मज्झिल्लएसु अट्ठसु कालं ति सेसेणं(?)उच्छेउ । एवं संती चक्की च्छखंडाहिवई सयं विमलगिरिम्मि पासायं काऊण उसहपडिमं सेसतित्थयरपडिमं कारइ । पुंडरीयपडिमं सिद्धिकलसं पट्टवेइ । सं(स)यं जीयंतसामिपडिमं चेईयहरं कारवेइ अभियकु(कुं ?)डं। जा चेईयहरं । जा रिटुनेमि निव्वाणकाले पंच पंडवा मुणिंदवीसकोडीहि, तहा कुंती नवलक्खा(क्ख)समणी पडिबुद्धा सिद्धा वइसाहपुनिमाए । तत्थ पुंड(पंडु) (?)पुत्तेणं गंधारेणं सक्काएसेणं कट्ठमयं देउलं लेवमई पडिमा पुंडरीओ सुच्चेव । एवं कालकमेणं मह निव्वाणाउ पंच य गए[व]री(रि)स अब्भहिए काले विय(इ)कंते मरुंडदेसस्स
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[5] ण्हवणसमयम्मि कुंकुमसिसियजलवहुलसमयम्मि गलियपडिमे संघो अब्भट्टिउ । कोव(वि) ढढराभिहाणे (णो) सावगो मूलसुक च्छे यणो ( ? ) उठ्ठिही ते खणं(तक्खणं?)जलणेणं पुराभिओगेणं । ताराउर-वलि (ल) ही- अमरउर-वसंतराय चाउद्दिसीए बारस जोयणाणि भासिही । केवलं आइ-पुंडरीय पाऊआउ चेईयरुक्खमूलपडिमा संतिपडिमा तहारुवा तत्थेव ट्ठिया सुरपूयणिन्जमाणा ।
इत्थंतरम्मि काले वट्टमाणे महैस्वर(?)नयरे वयरसामी दसपुव्वधरो आगमिस्सई । विमलगिरितित्थ निग्गयाउ परिसाउ । वहवे परिवोहियाउ । इत्थंतरम्मि वेग्गरंगियमाणया(सा ?)वट्ठी(?)पुच्छई गिहीणं कइविहे आरंभे हलखुत्तम्मि भूमीए कमाला सयं(?)पुणो
"जहा णं सोणियं तेसिं भरहद्धं चेव वुड्डई । चक्कक्खयम्मि मग्गम्मि वासा वासासुं गिण्हई ॥ जहा णं सोणियं तेसिं भरहं चेव वुड्डई । भावा चेव गच्छमाणीए सपत्तीए मंडलं |(?) जीवाणं सोणियं तेसिं जहाणं लवणोदही ॥"
इच्चाइ सुच्चा विरत्ता अप्पाणं निंदमाणे धम्मोववायं सारं पिच्छइ । आरंभं काऊण मुसा -अदत्त-मेहुणं अइसंकिल(लि)ट्ठ चित्तो सुज्झ(?)इ बुज्झ(?) वा वि)मलस्स जत्ताए ।
जावज्जीवं पावं पंडियमरणेणं(ण)जइ मरिज्ज तहा । ज्झायंतो सित्तुंज्जं सिज्जइ वुज्जइ पुणो कमसो । अनाएण(णं)दव्वं वडतो निच्चकूडसक्खिज्जो । ज्झायंतो सित्तुंज्जं मुच्चा(च्च)इ या(पा)वाओ सिप(ग्घ)यरं ॥ अप्पिज्ज(ज्ज)अब्भक्खं राईभोयणं च भु( )जंतो । सित्तु(त्तुं )ज्जयसेवाए मुच्चइ पावाउ सिघ(ग्घ) यरं ।। गब्भट्ठिया वि जीवा कललहिं वेट्ठि(ड्डि)या अविशु(सु)द्धसुई । रोराता(?)पुण जीवा जाव नि(न)पिच्छ(च्छं)ति विमलगिरि ॥ विमलगिरि माहप्पं वखाणए - "कोवि आसन्नभवसिद्धिउ संपइ उद्धरिही
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[6]
एयं तिहु(अ)णम्मि अपुव्वं" । एयं सोऊण भावडसिट्ठिपुत्ते जावडी चउत्थभत्तियं अभिग्गहं करेइ । छमासे कयअम्बा(?)एसे वहुसंघपरिव(वु)डे तामलित्ति नयरिं(?)आवासित्ता पव्वयसिहरं पिच्छिऊण अट्ठमं करेइ । तत्थ वेसमणाएसेणं अम्बा पच्चक्खीभूया । तत्थ आएसो । तत्थ महव्वए नयरे सहसंवणे दोमासी(सि)एणं भत्तेणं जीवंतसामि इच्छम्ह । उसहनाहपडिमं गिण्हामि(?)। विमलपुर गाहावइणो धूया विमलमती मरुदेवीए सहा(ह) भगवउ उसहस्स अंवधाई मरुदेवी निर्वा(व्वा)णंसि कालं काऊण उसहतित्थे चक्केसरी जाया, निच्चं उसहपडिमं आराहेइ । सा य महव्वए इब्भय ! तुज्झ गयस्स अपि(प्पि)स्सइ । सायं तुमं पूइऊण आणिऊण इत्थ सिहरे ठावह । एयं सुच्चा एव्वा(त्था ?)गउ तत्थ गएणं वसहनाहपडिमा चक्केसरी सिरिवयरसामि-जावडि-समणसंघा उस्सग्गेणं अप्पिप्पा(त्ता ?)गिण्हिऊण तत्थ गएणं महव्वए महूसवं काऊण दुवालसण्हं जोयणाणं घोसणं काऊण वहुजाण-जुंगि-लंगि पमुहसहस्सेहि वरवरियं घोसिंतो अभयदाणं करिते च्चाउवनसंघपरिवुडे नट्ट-गीयगंधव्वपूरिए सव्वचेईयाई पूयंते पईट्ठाणपुराउ भिउपुरे आवासित्ता अट्ठाहियं करेई । तउ णं तामलित्तीए अट्ठाहियं करेइ । उसहपडिमं 8वेइ । तत्थ काउसग्गेणं अंवाएसेणं सोरटुउ देवो(वा)गमो कउ । तिरियजंभगे हिं गंधवासं चुन्नवासं पुप्फवासं काऊण तामलित्तीए अंवाकरवियमग्गेणं सिरिवयरसामि जुत्ते जावडसिट्ठी गच्छइ। पहे काउस्सग्गेणं कुंजठाणं पत्तो । इत्थंतरे वयरसामी सिरिसमणसंघपरिवुडो आगमिस्सई । काउस्सग्गेणं जक्खं निद्धाडिऊण उपरि गंधोदएणं अभिसिंचित्ता जंभगदेवा वेमाणियदेवा जोईभवणवासिणो अट्ठाईयं कुणंति ।
. ___ मझं निव्वाणाउ पंचसए अट्ठहतरीए वियक्कते चित्तवइ अट्ठमीए विमलगिरि मतू(?) (म्मिउ ?)वरि पट्ठावणं काही । ताडियाउ दुंदुहीउ ? सवत्त(त्थ ?) वासं रयणं(ण)वासं, विज्जाचारणसमणा मूलपडिया(मा)अइपट्ठिमा(?)पूईया सक्कारिया। सिरिकलसाभिहाणा पुंडिड)रिया आइ-स(सं)ति पडिमा कारिया । वइरसामी सट्टाणं गमिस्सहं । तप्पभिई जावडसिट्ठी कयमहूय आवासो सव्वतित्थपभावे(व)णं करितो चेईयं कारवेइ सुवण्ण-रयणेहिं । सोरटेहिं पभावणं करितो अंवाएसेणं अट्ठारस पवहणाई अचिंतियाई आगमिस्सई । मज्झं निव्वाणाउ पंचसय चुलसीए वियकंते धयवडारुहेणं अज्जरक्खिएहिं समणसंघपरिखुडे सुपय(इ)ट्ठिए चित्तवइअट्ठमीए मज्झन्हे वि पडवत्थेगेणं(?)जखे(क्खे)णं पहासखित्तट्ठिएणं अवसरं नाऊण उप्पाडिऊण सीयाकलत्तसहिउ जावडसिट्ठी खीरसमुद्रे गंगाहूदे पखित्तो । सो कालं काऊण महाविदेहे
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[7]
खेत्ते पुक्खलावईविजए पुंडरिकिणीए नयरीए विमलनरिंद पुत्ते जिणपालिए तेरसमे वरिसे सिरिसीमंधरवंदणविणयए (येण ?) उप्पन्नजाईसरणे निक्खमिऊण उप्पन्नकेवलनाणे विहरिस्सइ । सीया विधाईसंडविदेहे अयलपुराहिवस्स दमघोसस्स पुत्तो कणयकेऊ चक्कवट्टितुल्लो तेरासीपुव्वलक्खरज्जं काऊण निव्वाणं गम्मि (मि) स्सई |
अउ परं देवाणुप्पिया ! अट्ठसए सिलापव्वे इच्चाइ उद्धारेहिं पवट्टमाणेहिं दूसमाणुभावेणं अदिट्ठ सुरगणप्पहाणं सोलसय ( ? ) बाणऊए वाहडउद्धारो । अणायरियपासा दो सहस्से दसब्भहिए दत्तो पत्तो गुणो वि दिखयरप्पहावं वज्जिय आसायणदोसं तउ दमघोसे विमले चउसहस्से । दससहस्से भाणू । सोलसहस्से विण्हो(हू)। वीससहस्से इंदपूयणिज्जा पडिमा । तउ परं सत्तमहथु (त्थु ) से (स्से) हो पव्व । एवं वायालीसे वियक्कंते उसप्पिणिए वट्टमा हि (?) सिरिपुंडरीयतित्थं अने (न)न्न सरिसं विक्खायं हुज्जा । तत्थ खीरधारा - अमयधारा - पुष्कलधाराउ मेघाउ वासं करिस्संति । जाव सयदुवारे पउमुत्तरपुत्ते सिरिपउमनाहे अरिहा तीसपरियाउ निख (क्ख) मिऊण साहिए दुवालससंवत्सरे वियक्कंते तिक्कोसुच्चे दुवा [ल ] सजोयण वित्थडे विमलगिरिम्मि अणेगवणस्सईहिं परिसोहेमाणे रायणवणम्मि उप्पन्नकेवलनाणे । तत्थ पडिमा आइनाहस्स । एवं इत्थ बावीसं तित्थगराणं केवलनाणं । सयकित्त स्स (?) इत्थ पुंडरिए निव्वुए वहुकोडिपरिवडो । एवं अनंतकालं (ल) चक्कसेविउ ॥
पुंडरीयअज्झयण - वीय उद्देसो ॥
गोयमसामिणा वुत्तं - कहं एवं ? जउ य गोयमा ! वेयावच्चगरकारस्स निरुवसग्गया । इत्थ पमायदोसेणं जावडिगेणं मिच्छदिठ्ठिरि (रिं) खणट्ठयाए सव्वघोरुवसग्गनिर्द्धाडणाए सम्मदिट्ठीणं पमायरख (क्ख) णट्ठाए सिरिसमणसंघस्स निरुवसग्गया(ए), 'इत्थ पमायदोसेणं' (?) जावडिस्स चरमसरीरया जाया ।
विमलगिरिम्मि तित्थे जिन्नुद्धारेण होई तित्थकरो ।
जइ पुण करेइ कालं त[इ] यभवेणं हवइ मुक्खो ॥
एयं सुच्चा गोयमाइगणहारिणो भगवओ (वं उ ) सहसामिपडिमं पंचहिं दंडगेहिं चउहिं चउहिँ थुईहिं वंदत्तंए ( वंदितुं गए ? ) । तत्थ इमा चत्तारि थुईओ "दु(यु)गादिपुरुषेन्द्राय" इत्यादिका श्लोकप्रमाणा । एवं विचित्तत्थवेहिं संसु (थु) णइ गोमो । एयम्मि अवसरे सोहम्माहिवई तित्थमउडं विमलगिरिमहातित्थं पूयंति
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[8] वंदंति एयस्स तित्थस्स आराहगाणं अणुमोयण(णं)करिति ।
अखु(क्खु)द्दो निरुव(रवि)क्खो संतो दंतो पसन्नवयणो य । मध्य(ज्झ)त्थो दयहियउ उचियनू विणयसंजुत्तो । हिंसं मुसं अदिन्नं मेहुन्नं गरुयं(य)आरंभं । वज्जतो जयणपरो जिन्न सिन्न(?)सिन्नं समुद्धरतो य ॥ आहारं अणुचि(दि)यहं दितो अट्ठाणगो य संतुट्ठो । तित्थं पहावयंतो संघवई इंदवन्निज्जो ॥
एयं संथुणित्ता पुणो वि पुच्छई । अउ परं जावडिऊदाराउ अणंतरं एयस्स ए(? प?)त्थयस्स दाहिणम्मि केदारगामम्मि गाहावई कवड्डिभिहाणा उभ3- भारियम्मि मज्जपाणरए केणावि कईयावि मुणिऊण आसन्नमरणं नमुक्कारपुव्वं गट्ठि (?)गंट्ठिसहियत्ति पच्चक्खा[णं] विमलगिरि तित्थाभिमुहे करेह(इ) । एवं विहिणा करिति(तो)कालं काऊण कुवेर जक्खसामाणिए कउडि जख(क्ख)भिहाणे जाए। तस्स इंदासणे(इंदाएसेणं) इत्थं पव्वयम्मि संघरक्खगे ठावेए(इ) । तस्स भारिया अहिगरल माम(मज्ज)पाणगेणं कालं कालं(?)काऊण आभिओगत्ताए गयवाहणे जाए । पलिउवमाऊ। एयस्स पहावेहे(?)णं दूसमकालम्मि गोयमा ! उदिउदिए सुरवाए धम्मे। तउणं अणेगमहिट्टि(ड्डि ?)य-विद्धसियं समणसंघवंदियं तिउं(तित्थं ?) होही ॥ पुंडरियज्झयणे तईउ उद्देसो ।। ||
नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ ई(इ)उ य देवाणुप्पिया ! एयस्स विमलगिरिम्मि(? स्स ?) उज्जलसिहरं महापवित्तं । अणंततित्थगरनिक्खमण नाणनिव्वाणट्ठाणं । जा उस्सप्पिणि अणंताणताउ गयाउ गमिस्संति । अंगुल असंखमित्ते(?)कल्लाणतिगाई अणंता सा इत्थ हुज्जा वि गोयमा ! इह अणंतकल्लाणतिगट्ठाणं । जत्तुवा(जत्तिय)(?)पज्ज(ज्जु)वासणेणं अन्नतित्थम्मि वाससहस्सेणं कम्मं नश्च(निज्ज ?)रेइ तावमित्तं दिणेणं उज्जिलसिहरम्मि। अनन्त्रमणो वासलक्खं अट्ठाहियाए । वासकोडीए अद्धमासखवणं । अयरेणं मासक्खवणं । एवं परिणामविसेसेणं अणंतगुण(णं)। गोयमा ! अइक्वंताअरिहंताणं नमीसरणे(?) । अणिलजस्सोह-कख्यग्घ-सुद्धमइजिणेसरा शिवंकरसंदणाभिहाणाणं अट्ठन्ह कल्लाणभि(ति)गाई वयकंताई ।
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एयाए अवसप्पिणीए जं समयं केवलनाणी तित्थगरे, तस्स पासे बंभलोइंद पुच्छा कस्स तित्थे मझं निव्वाणं भावि? । अरिष्टनेमितित्थे वरदिन्नो गणहरो होऊण मुक्खं गमिस्सइ । एवं सुच्चा अरिझुरयणमई पडिमा कया । तं गिण्हिऊण बंभलोए कप्पे पूई(इ)या। एगूणवीसकोडाकोडी अयराण, जा या चेव भरहेसरस्स समप्पिया। उज्जिलसि (ह )रम्मि सोवन्नमए चेईहरणे(हरे) रूप्पमई सोवन्नमई अवरा । तं चेईहरं असंखउद्धारेहि अवसोहियं ।
छव्वीस वीसा(स)सोलस दस दुग जोयण धणुस्सयपमाणे । अवसप्पिणीए य वुट्टि(ड)गुणं एयं...(?)
अणंताणंत तित्थगर सेविए तित्थे अरिष्टरयणपडिमा नेमिस्स उड्ड(ड्ड)अहं तिरियलोए अनन्नसरिसे इमं महातित्थं जस्स वि सुमरणमित्ते भव्वा मुच्चंति दुक्खाउ।
वै(वे)माण जोइवणभुवणजंतगा जं थुगंति पूर्यति । सासयचेई(इ)या(थं ?)भे चवणायारं पसंसंति ॥
जे उ ज(उण ?) अट्ठावय-विमलमि (म्मि ?)उ संघो अणुमा(मो ?) ईउ सु(मु?)हेण सक्कत्थवस्स अंते जे(चे)इयथुइकित्तणं कुणइ । गोसे सुमरणपुव्वं अन्नत्थ व्वि(ठि)उ वि अट्ठाहिय- अद्धमी(मा)स-मासखवण दुमास-तिमास-चउमास-छम्मासअट्ठमास- वरिस-बारसवासाई तवो फल(लं)गंठिसहियाई(इ) पवड्डमाण पच्चक्खाणेणं, जत्थ वा वंदणेणं समरणेणं पुहत्तमुक्खो विहिणा तित्थवंदणेणं उच्चागोयं जइ न वड्ढाओ(बद्धाऊ)। न च्छटुं भवग्गहणमइक्कमई । तित्थं वंदणयाए पडि गयस्स जइ कालं करेइ सव्वसुद्धो आराहगो भन्नइ । जइ वि भव्वो तित्थं वंहंणद्ध(वंदणट्ठ) याए मुहारंभा संघरक्खणट्ठा(ट्ठया)ए आसत्त(न ?)भव से (सि)द्धिया ।
जहा बलमित्त - भाणुमित्ता पइट्ठाणपुराउ एगो तिथिट्ठयाए अन्नो विद्धण(ण) याए । पहे पुलिंदए संम(समं)विणट्ठा । एगो एगावयारो अन्नो भमनमा(तमतमा)ए । दो वि उज्जेणीए बंधवा चाउवन्नसंघपरिवुडा उज्जिलसिहरम्मि पइट्ठिया। एगो अट्ठाहियाए मग्गे कालगउ । अवरो उज्जिलसिहरम्मि । दो वि सव्वट्ठसिद्धे उववन्ना । विदेहे सीमंधर र)-जुगंधर सामिणो उववन्ना ।
जो पुंडरीयं वंदइ नमसइ अन्नत्थ वि तिसंघं (झं?) आराहित्ता वेमाणिउ चाउवत्र समणसंघं पुंडरियं वंदावेइ इंदो वा चक्की वा तई(इ)य भवे मुक्खो ॥
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पुंडरियज्झयणे रेवयवणुद्देसो ॥
छव्वीस वीस सोलस दस दुग जोयण धणुस्स [य] पमाणे । अवसर्पि (प्पिणीइ एव (वं ) उस्सप्पिणीए य वुद्ध गुणं ॥ एव(वं)म (अ)णंततित्थगरसेणीए फासियं इमं तित्थं । उज्जलसिहरत्त (ते) णं विक्खायं तं महातित्थं ॥
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पुंडरीयज्झयणे चउउद्देसो वेमि ॥
को सो अरिट्ठनेमी कयाइ वि समोसढो कहिं काले । कइसंजुओ य सिद्धो गोयमपम्हे (व्हे) जिणो आह || धण - धणवइ सोहम्मे चित्तगई - रयणवई दईया । माहिंदे अवराई (इ)य पीतिमई आरणे कप्पे |
संखो जसोमइ भज्जा अवराई (इ)य नेमि राइमई । तित्थगरे सिद्धे वि य दसमे य गणनाहा ॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं सोरियपुरम्मि नयरे हरिवंसमुत्ताहल समुद्दे (द्द) विजयस्स स्नो देवीए सिवाए अपराई (इ) य विमाणाउ कत्तियकन्हदुवालसीए चे (चित्तरिक्खे भगवं अरिनेमिं (मी) कुच्छि अवइत्रे । तं समयं सव्व तिहूयणाणंदे जाए। चउद्दस महासुमिणाउ वि जगुज्जोयकारगं नाऊण सव्व सव्वं विहिं (?) सव्वारिट्ठविणासणे सावणसियपंचमीए चित्तरिक्खम्मि भगवं अरिट्ठनेमी जाए। गंधोदयवासं कुसुमवास (सं) सुवन्नवासं । तस (स्स) मयं छप्पन्ना दिसाकुमारीओ सूइकम्मं कुणंति । तउ णं सोहम्मे सक्केण मेरुसिहरि दाहिणम्मि पंडुका (कं) वलंसि उत्संगे काऊणं सुमंगलतूरपुरस्सरं जम्माभिसेग्रं (यं) काऊण दिव्व चंदण - वत्थ- पुप्फारुहण - धूव - वलि - अट्ठमंगल - आरि(र) त्तिय - मंगल्लगीय - नट्ठ (ट्ट) पुरस्सरं ऊसवं करिति । तऊ णं अम्माए उत्संगे मुत्तूण उज्जिलसिहरम्मि अरिट्ठनेमि पडिमाए अट्ठाहियं काऊण नंदीसरं गया ।
जउ य
-
कंचणगिरिम्मि जम्मू-सवो अरिहंत सिढिवग्गाणं ।
कल्लाणतिगं उज्झिलसिहरम्मि महापवित्तमिणं ॥
नरिंदवणे ऊसविति सव्व जायव जायवा (वी) उ खिल्लेति । दसमे दिवसे अरिनेमिं घोसित ।
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गामाणं नयराणं मिय जाईणं(?) अरिटुसंघाया ॥ गब्धगयमि(म्मि) गया ते अरिट्टनेमि च घोसिति ॥ .
इत्थंतरम्मि नंद गोय(उ)लाउ कन्हे(न्ह) बलभद्देणं महुराए वासर(चाणूर ?)मल्लाइ हणित्ता कंसं निज्जा(?द्धा?) हित्ता उग्गसेणं रज्जे अहिसिंचित्ता केसु वि वरिसेसु जरासिं(सं)धभएणं अट्ठारसकुलकोडीहि समं सुद्धाए रेवयसिहरम्मि कोलमाणे अट्ठमेणं भत्तेणं सत्त जोयणाइं लवणसमुद्दो भूमंडलं अप्पेइ ॥ इत्थ रेवयवणंसि एगो पुलिंदउ पव्वयसिहरम्मि तिसंज्झां मूमंजलं अप्पेई ॥ इत्थ रेवयवणंसि एगो पुलिंदउ पव्वयसिहरम्मि तिसंज्झं उज्झिलसिहरं वंदइ । तेणं सुहज्झाणेणं कालं काऊण वेसमणजखो(क्खे)जाए । सो तिक्कालं पूएइ, उज्झिलसिहरे अरिहनेमिं दट्टण हरिसेइ । जहा णं समवसरणं तहा पव्वयो । तत्थ सव्वया जायवजायवीहिं खिल्लिय सच्चाभामाए पुत्तजुयली उववना । तत्थ सक्काएसि(से)णं वेसमणेणं सुवन्नरयणमई दुवालस नव जोयणपमाणा अट्ठारसधणुच्चपायारे सत्तभूमीए अट्ठारसभूमि(मी)ए बत्तीसभूमि(मी)ए विमाणसमाणपासाएसु खिल्लंति जायवसहस्सा(स्सी)उ नंदणवणवाविमंडवेसु निच्च(च्च)नट्ट-गीय-खेल्ल-कीलणाई कुणंति ॥ तत्थ पुव्वाए रेवयसिहरं । तत्थ भगवउ अरिटुरयणमई अरिहनेमि पडिमा उइयसहस्सकरुव्व उज्जोयमाणा विज्झि(म्हि ?)य हियया पिच्छंति । उत्तराए वेणुवंतं पच्छिमाए गंधमायणो दाहिणाए तुंगहिसिहरी ।
एवं तुं बारवईए वासुदेव-बलदेवा तिस(स)डाहिवइणो जरासिंधवहं काऊण विचित्तविसयकोलमाणा खिल्लंति । बावत्तरीय सहस्समहिसीउ वसुदेवस्स। अछुट्टाउ कोडीउ पुत्ताणं । नव कोडीउ पपुत्ताणं । छप्पन्नाउ कोडीउ पपुत्ताणं । एवं दसण्हं दसारा पुत्तपपुत्तकोडिलक्खेहि समं कोलंति । इत्थ पज(ज्जुन-संवाई वहवे कोडि लक्खा। एयंति(मि)अवसरे भगवं विसयविरते । तिवाससए आ(अ)म्मापिउ सुस्सूसणीए गच्छित्ता संखं पूरेइ । तं समयम्मि खुहिए भरहे लवणसमुद्दे । पडिसद्देणं विम्हियं तिहुयणं । भीया बारवई । इद्धिए(उट्ठिए ?) कन्हाई याइजाइ(य)वो-कि अहिणववासुदेवे चक्की वा? । जाव आगच्छइ ताव भगवं अरिहनेमी । मा तुमं खीण छ(?ब?)ले मल्लयुद्धेणं कीलिस्सामो । पढमं सिरिनेमिणा कन्हस्स वाहू वलिए णा लव(?)(णालं व'इतिस्यात् ।)। तउ पच्छा हरी हरिव्व देवासुरपच्चक्खं अंदोलिउ। एवं विलक्खो कन्हो । एवं विसयविरत्तमवि भगवतं वसंतकीलणेण जलकेलि-हास-पडिहास-गीयनट्ट-अंगमद्दण-मंडण-विहूसण-गाहाइ प(पु)च्छण-पडिपुच्छणाइविहिणा कण्ह भारियाहिं
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सच्चभामा- रुप्पिणी- लच्छिपमुहाहिं निरुत्तरं काऊणं विवाहूसवं मन्नाविउ त्य(अ)म्मापियरसुयणवंधुवग्गेहिं । तं समयम्मि सव्वसवंसि (?) बाए(र) वईए नयरीए मज्झेणं उग्गसेणस्स धूयं राईमयं ( इं ) मग्गाविति । ऊसविंति दसारा अहिणवऊसवनट्टगीयखिल्लाइयं धपरडायं ( धयपडायं ? ) देवदाणवगंधव्वकुलाई जुगवं खेलमाणा चिट्ठेति । सार्वणसियछट्ठिए पढमं मज्जणंसि काऊण विचित्तविलंवणेणं हारं पलंव (बं) तिसर(रं) देवदूसपरिमुं (मं)डियं । इंदेणं रहो पट्टविउ मायली सारही. कोरंटगं छत्तं । अह ऊसिएण चामराहि य सोहिउ दसारचक्केण य सो सव्वउ परिवारिउ चउरंगिणी सेणाए रई(इ)याए जहक्कम (मं) तुरयणे (याण ?) सन्निवाणणं दिव्वेण गगणफुसे एवं एयारिसी पइ (?) दुवारवईए धवलमंगलतूरखेणं शं (सं) ख- वेयज्झुणि- दुंद (दु) हिमि (म्मि) ताय (व) दिव्वकल्लाणसयं जाव उग्गसेण तोरणंसि धारिणीए संतिकज्जाई जाव करेइ । वेमाणि[य] जोइवणभुवणदेवया जा थुणंति भगवंतं । राय ( इ ) मई तोरणसमयंसि वनंति । जायव सव्वूसवा वारवई (ई ) । जाव सयंवरहत्थगया विविहरूवलाइन्नसिंगारविब्भमगया कुडिलवंकलोयणा विहसियाणणा अच्छा चरियकन्ना जावराइमई चिट्ठ | काउ वि पडव (ह) हत्था चमरहत्था पणवहत्था मंगलहत्था | जाव सारहिं पुच्छइ - " को एस दीणसद्दो वीभच्छो ? । नीवाणं वद्धाणं सद्दो भगवं ! ' "कस्स अट्ठा इमे पाणपरिकाणा (पाणा पक्खिणो ) थलयरा का (वा) रसमाणा ? ।” 'तुम्हाणं विवाहे विचित्तसुयणाणं गुउर (गउर) वट्टयाए'। एयं सोच्चा, सोऊण तस्स सो वयणं वहुपाणिविणासणं चिंतेइ सा (सो) महापण्णे साणुक्कासे जिएहिउ "जइ मदा कारणा एए हम्मंति सुबहू जिया नाम, एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सइ ।
"इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुईसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायण (णं) |
असासए श(स) रीरमि (म्मि) फेण वच्चु (बुब्बु)य सन्निभे । पच्छा परियच्च [व्वे ?] रयं (इं) नोवलभामहं ||
माणुसत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए ।
जरामरणवत्थंपि (मि) खणं पि न रमामहं ॥
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो ! दु: [ खो]य संसारो जत्थ किसं (स्सं ) ति पाणिणो ॥
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खित्तं वत्थं (त्थं) हिरनं च पुत्तदारं च वांधवा | चइत्ताणं इमं देहं ग (गं) तव्व मवस्सं (सस्स ) मे ॥ जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरी । अद्धाणं जो महंतं सु आवाहि । जा एव - ई (?) | गच्छंते से दुही होइ छुहा तिहाइ पाडि (पीडिउ ) एवं धम्मं अकाऊणं जो गच्छइ परभ (ब्भ) वं । गच्छंती सो दुही होइ वाहीरोगेहि पीडिउ || अद्धांण जो महंतं तु सुखाहि ( ही ) जो पज्जई । गच्छ (च्छं) ते से सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे ॥ तहा गेहे पतिलित्तंनि (पलित्तम्मि) तस्स गेहस्स जो पहू । सारभंडाण नीणेइ असारं अवइ ( उ ) ज्झई |
एव लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि तुम्हेहिं अणुमन्त्रिउ || "
(उत्तरज्झयणस्स इमाओ गाहाओ )
एवं चितिय भासित्ता जाव भगवं ता गलियअंसुपब्भारलोयणे सयणवग्गं हियए आरसंताण हरिण - रोज्झ - शंवर - रुरु - अज-गद्दरय (द्दभ) पमुहाणं क्खाणा ( रक्खणो ? )वाए जाव पलोएइ, ताव खणेण वंधणाणि मुक्काणि । सद्वाणं गच्छंति, सव्वेवे (ए ?) । खेयरा वि सव्वे गयणंगणं पत्ता जय जय भद्दे (सद्दे) कल कल भ (स) द्दे कुसुमवुट्ठीए उज्जंति - अहो भगवंतो ! कस (रु) णा (?) समुद्दा ।
एवं खणे उग्गसेण तोरणंसि मंगल्लकम्मंसि गीयमंग [ल] खेल्लम्म जावय (यव) - जायवीहिं उहिं ( ? ) उब्भोडमाणेहिं सुरी (र) जक्खरक्खसकिंनरकिंपुरिसमहोरगा (ग) वग्गेहिं पलोयमाणेहिं अदब्ममसि (सिं) गार भूसिं (सि) याए राइमईए सयंवर हत्थमालाए भगवंते सारहिं सद्दावित्ता पत्थगेयं कारविंति । (?) जाव निम्ममोहे (निम्मोहे) निरंजणे नीरागदोसे निव्विए (ण्णे) तिहूयणच्छेरयभूए विम्हियजायवजायवीवयण -पडिचोयणासंवाहणराइमईउवालंभेहिं नभं व वेगपव्वयमाणेहिं सवत्सरियं दाणं दाऊणं वरवरियं घोसावित्ता सव्वं जायववग्गं संवोहित्ता दिक्खासमयंसि अभिसेयपुरस्सरं देवासुरमणूयवाहिणीइ सिवियाए वारवईए मज्झमज्झेणं दिव्यमंगलधुणीहिं गीयमाणे रेवयगिरिसिहरम्मि छत्तसिलाए छत्त (त्तं) ठवित्ता राइमईए सु (स) ह सहस्से पडिवोहित्ता
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इत्या
[14] सहस्सनरिंदसं[ग]ए निक्खते। च्छट्ठस्स पारणं बारवईए नईए नयरीए वरदिन्नस्स नरिंदस्स गेहे संजायं । जाईसरणं जायं। पुव्वभवं पिच्छइ । अरिहनेमिपडिमा मए पूईया तं सव्वं । जाय (जहा) य पडिमं आराहेइ तहा भगवंतं वंदेइ । चेईयं कन्हो उद्धरइ। वीसं कोडाकोडीए पडिमाए जाया । .
इत्थंतरे सव्वजायवेहिं पुणो वि रहनेमी सव्वसिंगारभूसिउ समाणीउ उग्गसेण तोरणे मंगलपु(घु ?) 8 करेइ । जाव राइमई सयंवरमाला हत्थगया चिट्ठमाणा एव सद्देइ - "खीरपाणं गहिऊण सिप्पहडे वमिऊण रहनेमि पउंजेसु, अणुजाणह गिण्हसु । पच्छा विवाहेमि'' । “एवन्ते कहं वंते गिण्हामि ? अहमवि वंता अरिटुनेमिणा ।"
वंतुं(तं) इच्छसु(सि) आने(वे)उं सेयं ते मरणं भवे । अहं च भोगरायस्स तं च सुसु(सि) अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो संजमंमि(नि)हुउ व(च)र ।। जइ तं काहिसि भावं जा जा इच्छसि नारीउ । वायाविदु व्व हढो इट्ठियप्पा भविस्ससि ॥" पडिवोहिउ भगवया सह निक्खंते । (उत्तरज्झयणे)
रेवयम्मि पंचमुद्देसो ॥ नमि(?)।
-------- तहा वा(य?) उज्जिलसिहरम्मि अरिठ्ठनेमिस्स अणंते उववन्ने । तं समसि (समयंसि) सक्के णं वजेणं गिरिसिहरस्स मज्झं उठेंकेइ । तत्थ णं दसधणुहप्पमाणपइट्ठिया अरिष्टुरयणमई अरिहनेमिस्स (पडिमा) कारिया ठाविया य । तत्थ सन्न(त्त) मंडवा । मंडवंसि अट्ठत्तरसयअंसा । तत्थ सव्वरयणाहरणहूसि[या] वारस सहस्स देवीउ पोरसीए नच्चंति । महा(?)(तहा)तत्थेव सव्वम(न?)ईसि रावणं सव्वतित्थमयं अणेग अइसयाभिरामं हिच्चं(दिव्वं)गइंदकुंड डं) कयं । माणुसखित्तमहामई(नई ?) सिरावा(व?)ण जत्थ न्हवणं ति विउव्वंति। उ(अ?) सुरेहिं न्हविज्जड. विसेसउ पव्वतिहीसु, सव्वमं(?)(मन्नं) नट्टगीयमंगलरवेणं आराहिज्जा(?)इ सके। पडिमा दुप्पसहंते इंदाएसेणं वेसमणपूइ(य)णिज्जा । तहा गइंदकुंडजलस्स गंधफासाउ भूय-पेय-वेयालाउ दुटुंत(ट्ठवंत ?)राईयं धम्मावरणिज(ज्जं) रागदोसावलेवेण विलि[आ]आसन्नभवसिद्धियाणं कंचणबलाणएसु सेहि (?) सुरेहि अप्पट्ठाए वहवे सिद्धपडिमा ठविया । सिद्धो जक्खो कुवेराइट्ठो देवच्चणे कुसुमारूहणं कमलारुहणाइ करेइ । तत्थ कासणउभव्वा आसन्ना पयं मुच्चामो पमो (?) प(ए)यं महातित्थं
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[15] वंदिऊणं -
सिद्धत्थत(य)स्स अंते 'उज्जिता'इ सिलोगपढणं [च] । 'चत्तारि' त्तिय गाहं पच्छा गोयमरिसी काही ।।
एसो कंचणं(ण)वलाण उद्देसो ॥
जं समयं अरहा अरिठ्ठनेमी उज्जिते केवलनाणे तं समयं कासरहंसि सिर (रि?) भट्टधूया कोडीनगरम्मि सोम(म) भट्टभारिया कोहिंडिगुत्ता अंवेसरी भयवं अरिहनेमिणा अट्ठमस्स पारणं अंबाए कारियं । वुट्ठाउ पंचसराउ (?) । अन्नया वरदिन्नपारणए पइताडिया सिवकर-विभकर सहिया दह(ढ?)सम्मत्ता सिरिअरिहनेमि पाए समरंती रेड(रेवय)संमुहा, पहे पई पिच्छिऊण सा(स)हयारसाहाए कालगया, सोलसविज्जादेवीउ जत्थ चिटुंति । भुवणवईमज्झि जंवुदीवपमाणभुवणा अणेगजक्खगण -गंधव्वसहस्स परिभु(वु)डा महा सम(म्म)द्दिविणा(ट्ठिी) अरिट्टिनेमिपए समरित्ता उहिनाणेणं रेवयसिहरंसि भगवंतं वंदिऊण महिमं करेइ तत्थ अरिहनेमिपडिमाए। कण्हेणावि रुप्पहेममयी पडिमा इमा कारिया वरदिन्नपइट्ठिया । तत्थ अंवगेणवरयं महिमा(मं) करेइ । सिरिसमणसंघवन्निया चउव्विहदेवाइट्ठसोहम्माइ(हिवइ ?) सक्केण सासया देवया पट्टविया । तित्थपभावगा महिड्डिया भव्वाणं समाहिवोहिलाभ- कारगा मिच्छतनिद्धाडिणी तिरियं भंग(?) मिच्छद्दिट्ठियोरुवसग्गरक्खयणकरी ठाविया। तत्थ रयणमई पडिमा वंभिंदकया । चउव्विह संघपसंसिया वेयावच्च गर(री) काउसग्ग चिंधेण समागम्म सव्वरक्खणकरी । जउ चउविह संघस्स चेईयवंदणावसरम्मि चत्तारि थुईउ सिलोगव(प)माणाउ पवट्टमाणाउ अक्खरेहिं सरिसे ?] हिं(सरेहिं ?) पउत्ताउ। अंबा महापभावा तइयभवमुक्खगामिणी वीससहसा लक्खाउया एयं तित्थं अणुदिणं आराहेइ ।।
एवमुद्देसो(सा ?) पंच ॥
चउप्पन्न अहोरत्ता आवासित्ता आसोयअमावसाए उप्पन्नं केवलं नाणं । रेवयसहसंव[व]णे पडिवोहिया वहवे जीया ।
के(क)उ चाउवन्नो संघो वरदत्ताईया इक्कार गणहरा पट्टविया । अट्ठारस सहस्ससमणा कया। राइमई चत्तालीससहस्सपरिवा[रा] निक्खां(क्खं)ता। वहवे जीया पडिवोहिया । ढंढणकुमारो पव्वई(इ) उपुव्वकम्मज्जियअंतरायावरणियदासेणं अट्ठन्हं
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[16] मासाणं वारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं कई(इ)या वि पसंसाए इब्भस्स गेहे मोयगे लक्षूण आलोयणं भगवउ काऊण "कन्हस्स लद्धि न हु ढंढणस्स" एवं सुच्चा कत्थ वि वणे मोयगे चूरंते अंतगडे केवली जाए । तम्मि दिणे अद्ध(द्ध)ट्ठाउ लक्खा पडिवोहिया । रेवयसिहरे कन्हे महाणं पि (?) गीयं नर्से खिल्लं करेइ। अट्ठाहियं कुणइ । इत्थ वहू सं(णं ?) सन्नीणं पडिवोहं करित्ता कई(इ)यावि आरियाणं पडिबोहं काऊण उज्जलसिहरम्मि समोसढो । भगवउ वंदणसुद्धयाए अहमहमीयत्ता(मिया)ए सव्वजायवाण वग्गे सइड्डिए सपरिवारे समक्खेए, दसदसारए मंडिए कन्ह चच्चरिखिल्लगीयनट्टविहिणा... ए दिव्ववाट्ठ(ह ?)णाइएसु चउलक्खाइ दाणधि वि (दि ?)ज्जमाणे(?) कणगवईपामुईए कारियद्धे सहस्साउ भवणाउ अप्पाणं सोमाणे उप्पन्नकेवले(ल)नाणे जाए, सेसा तिन्नि लक्खाउ जायवी[उ]निक्खंता । राइमई तम्मि समए अणेगलक्खपरिखुडा निव्वुया ।
तम्मि दिणे देवइच्चत्ति (?) गयसुकुमाले सत(त्त)हियसयं कन्नाउनेत्ता निक्खमिऊण सहसं[व]वणे काउसग्गेण महातित्थपहावेण सोमलटेण मत्थए कयमट्टियपालीजलंतअग्गी अंतगडकेवले(ली) महावेण (वणे ?) जाए ! इत्थ बहवे नव दसारा पडिवोहिया सपरिवारा । कइयावि मज्जपाणेणं अरिद्धं नाऊण परिचत्त(त्तं)। जउ णं संबेण सट्ठिसहस्सेणं स(म)त्तएणं दीवायणं संमि(समि)तए । तओ धम्मकिरियाए संतिघोसण(णे)णं वावत्तरिकोडीउ सत्तसट्ठिलक्खाउ सट्ठसयाउ जायवा सिद्धा । सत्तावीसगुणाउ जायवीउ सिद्धाउ। तिक्कालं जायवा अरिखनेमि पूयंति । पमायदोसं(से)णं वारवईए पलयाउ संब-पजु( ज्जु)न्न सारणाई अद्भुट्ठाउ कोडीउ कुमाराणं रेवयसिहरंसि अद्धमासिएणं भत्तेणं अपाणएणं उप्पन्नकेवलनाणनिव्वाणा जाया । अनिरुद्धो य कुमारो त(न)व कोडिसहिउ इत्थ तित्थसि(से)वणाए सिद्धे । विणायगो वि कुमारो तिलक्खो सिद्धो ।
इत्थ तित्थे पांडवा पडिवोहिया महासम्मदिट्ठिणो पभावगा । जा कइया वि गोयमा ! अट्ठारस अक्खोह(हि)णीउ कउरवेहि सम्म(सम) संहरित्ता एगच्छत्तं काऊणं रज्जं करेइ । एत्थंतरं[ मि] बारवईए दीवायणाउ पलयकालंसि छम्मासाउ कन्हे बलदेवउहत्थिकयाउ (?) कोसंभवणम्मि जलपावाट्ठयाए अभिभूयस्स कन्हस्स जराकुमाराउ वउ(?) वलभद्धे द्दे) पडिवोहिउ तुंगीसिहरम्मि वाससएणं रहयारदाणंसि वंभलोए । जराकुमा[ रा ]उ नाऊण हत्थिणाउरे पंडवा वेरग्गरंगियमणा णं महादुक्खाभिभूया णं इंदजालु व(लं व) जायवकुलं पिच्छंतो(ता) नारयरिसिं पिच्छंति,
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[17] वंदंति, नमसंति। महारंभनिग्गहणट्ठयाए धम्मोववायं पि(पु)च्छंति । उवएसपरंपराए पडिबोहिया सत्तुंजयतित्थं पवनइ । सारावलीसुत्तं अहिज्जिऊण पडिवोहित्ता पंच वि पांडवा संवत्सरियं दाणं दाऊण दुवालसियं तित्थवंदणं काऊण नासिकउरम्मि निक्खंता । एवं समए भगवं अरिष्ठनेमी उज्जिलसिहरम्मि आगच्छिता पंचसहिए (सएहिं) छत्तीसहिए(हिं) मासिएणं भत्तेणं चेईयस्स पुरओ निव्वाणं गया। आसाढसियअट्ठमीए पुव्वन्हे । एवं सक्केहिं जाव मासं तवसक्कारिए महतित्थे समवसरणुव्व चउदुवारे अइसयाइन्ने सव्वतिहुयण पूइ(य)णिज्जे घोसिए । सासय -असासयचेईयाणं केयाणं (?) सिहरीणं ।
___ कालक्कमि महतित्थंमि गोयमा ! अक्खोवविहिणा नंदणेणं आतईयभवाउ मुक्खो ॥
एवं सोऊण आवस्सयं काऊण रेवयसिहरम्मि गच्छित्ता वंदित्ता पंचहिं सक्कत्थवदंडमे(गे)हिं चउहिं थुईहिं, "नमामि नेमिनाथस्य" इच्च (इच्चाइ) चत्तारे(रि) सिलोगप्पमाणाहि वंदित्ता, पुणो कयंजलिउडो भगवउ पायमूले ते(ति)त्थाइसयं पुच्छइ । नेमि ॥ छ?(ट्ट)देसउ ।।
सारावलीगंडिया भाणी(णि)यवा (व्वा)एयं सोऊण सुयं गणहरवग्नेहिं गोयम (मु ? )ज्जुत्तो । वीरवरस्स भगवओ का[ऊ]णावस्सयं चलिउ ।। वंदित्ता उसहजिणं काऊणं मासकप्पं(प्प) विहिणाण (णाणं ?) । सित्तुंज्जे गच्छित्ता रेवयं (य)सिहरम्मि वंदित्ता ॥
अप्पाणं भावितो पुंडरीइं (रियं) [सं]थुण(णे)इ भत्तीए ॥ "विमि (त्ति बेमि ?)।।
इत्थंतरे बारवईपलयकालमारब्भ भगवंते निव्वुए ति(वि)सयस्सुवरि कालसंदीव-नंदि -चंदिप्पमुहेहि मिच्छट्ठिीहि उवसग्गे | बंभिंदपडिमा भरहठाविया कंचणगुहाए ठाविया मज्झे पूयणिज्जा जाव चउरो सहस्सा अरिहउ अरिटुनेमिस्स निव्वुयस्स पंडवपुत्तेहि कयं चेईय(य)लेवमई पडिमा निव्वाणसिलाए कारिया पट्ठविया य।
वारवई पलयकालाउ आरंभ(आरब्भ) इत्थ पव्वए सुर-गंधव्वाई-या खिल्लंति मणुयाणं दुग्गमपवेसं(से)।
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[18]
इत्थंतरे चउरो साहस्सिए विय (इ) कंते गंधारजणवए सरस्सईपट्टणे मयणसत्थवाहो अजि (ज्जि) यणंतरयण ( णो ?) अपराजिय (ए ?) सव्व(?) णाइ भायअंतंकिए कयाइ दिवयहे म (मु) णीसरपासे पुच्छइ - " किं तित्थं उक्कोसिंय ? "तेहिं भणियं-” तिहुयणम्मि सव्वको (व्वुक्को) सियं उज्जिलसिहरं महातित्थं, जत्थ अरिनेमी दियो ।
न्हवणं पूया य ततो (तवो ?) रेवयसिहरम्मि करइ भत्ती । तित्थगर ( - ) चक्कि - इंदत्तं तई (इ)य भवे निव्वुइं लहइ || जं वाससहस्सेणं खवेइ कम्माई अन्नतित्थम्मि || उज्जलसिहरम्मि पुणो समएणं जत्थ निज्जरइ || किं कणयं किं रज्जं किं वा इंदत्तणं कहं चक्की ? | जं तित्थाणं वंदण-नमंसणं च....... ॥ उज्जलसिहरे अट्ठाहिया (य) मासद्धमाससेवाए । वज्जीवं (जावज्जीवं ?) कम्मं खवेई (इ) आसन्नसिद्धिगउ ॥ उज्जितसेलतित्थि (त्थे) मयंदकुंडस्स कलसअहिसित्तो । भगवं अरिनेमी ते आसन्ना चरमदेहा ॥ उज्जलसिहरे उल्लोयणाई पज्जुनसंवपमुहाई । दट्ठूण सव्वपावाउ मुच्चइ जीवो वि सुज्झिज्ज ॥ काऊण महारंभं अविरइ मासण (?ण्ण ?) मिच्छदिट्ठीव । उज्जितसि ( से ) लतित्थं दहण (दट्ठूणं) सिज्झई जीवो ||३||
एयं सोउण कयचउत्थाउ ( इ ? ) अभिग्गहो संवत्सरं (रे) वियद्वंते बारवई पलयकालमारब्भ दंडगअडति ( वि ? ) व्व दुग्गइ पावसित्तए । तं वयणं सुच्चा अंबवणे मासोववासेण वेआवच्चगर काउसग्गेणं लद्धअंवाएसो निच्चलसम्मत्तो पारणयं काऊण घोसणयं कुणई य पडहं सद्दावेइ " जाणं वा धणं वा कंचणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा विलेवणं वा संवलं वा तित्थवंदणट्टयाए करेमि" । एवं घोसिए छम्मासिएणं । जोयण सयमज्झि(ज्झे) अभे (णे) गजाण - जुंगिजल्लि - सगडाईएहि चलिया। ठाणे ठाणे रहजुत्ता चाक- चच्चरि - क्खिल्ल - गीय- नट्टाईए, अभयदानं (ण) - अणुकंपादाण - साहम्मियाई (इ) वच्छल्लकरणेहिं । पूइज्जमाणे सरस्सईपट्टणं विउक्कमित्ता गेजणय ( ? ) पविसंति ।
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[19] तत्थ बंभयारी अणुव्वय-सिक्खावयाइ परे(रो) चिट्ठइ जाव मयणो, ताव रयणीए दूरे कावि इत्थी रोयमाणा अग्गिकुंडसमीवे चिट्ठइ । “अस्थि कोवि धम्मिउ जो मं उद्धरइ ?" । जाव मयणो गच्छित्ता, सद्दावित्ता पुच्छइ- "कासि तुमं ? " "कणग धाया । तुज्झ अट्ठाए कालं चिट्ठामि । मज्झ सामिउ हुज्ज, अन्नहा अग्गि पविसामि" अणेगवयणेहिं अ पडिलोहमाणा एवं प(?) भयवं अक्खडं (अखंड?) निरविक्खनिच्छट्टयाए कंतगं जा चिंतइ ताव पविट्ठा हुयासणं । सो वि पविट्ठो मामति(?) तित्थजत्ताए खंडणं । ताव अग्गी खड्डो खली (?) । जाया कुसुमवुट्ठी। दुंदुभिउ । "जयउ मयणो" । सा पच्चक्खा देवी मंगलं करेइ, गयणे तहा थुणइ-"संघवई जयउ।"
तउ कइया वि गष( ज्ज ? )ण (गयण?) देसाउ महुर मागच्छमाणो पुलिंदएणं गुज्झे लद्धअंवावरो सव्वं जिणित्ता संघजुत्तो महुरा थूभं पूइत्ता चंपमागच्छइ, वासुपुज्ज पूएइ । तउ परं मग्गेसोरट्टयं मिच्छदिट्ठिदेवयाए भोयणसमए इत्थीरूवं काऊण पललं मग्गइ। "तुमं सव्वदाणं दितो एयं दिज्ज । ने(नो) मोयगेहिं तिप्पई "। एवं कलयले जाए जाव छुरियं गिण्हित्ता कड्डइ, ताव पुत्ते आगंतूण पियरं मन्नावित्ता "मए संघ रक्खणट्ठियपियरस्स मणोरहे पूरियव्वे "। जाव अम्माए(?) वद्धावे(व)ए सुपुत्ते छुरियाए अप्पेइ पललं नियसत्तविसेसेणं, ताव जयसद्दे उच्छलिए, कुसुमवुट्ठी, तुट्ठा देवा । पूरेह तित्थजत्तामणोरहं । अट्ठाहियं करिति ।
तउ रयणउरं । एवं कमेण आगच्छंति तित्थं । वंदणट्ठाए सपरिवारो गणीसरिसहिउ । कत्थ वि फलियासालिखित्तमग्गे, कत्थ वि अमयतरंगिणीउ, कत्थ विघडुव्व ज्झरंत रवीराउ गावीउ, कत्थ वि आसव्वट्टा ? सेणा, कत्थ वि भडसहस्ससंकुला उ(ग)य घडाउ । इत्थं कपि [ ल] नउ (य)रे मुक्कपरिवारो । अट्ठाहिया
कया।
अंबाए सक्काइट्ठ ते(वे) समणनिद्दिवाए अहोरत्तेहिं चुलसीजोयणगिरी भग्गा। कउ सोरट्ठउ देवदेसो । तत्थ मयणो सपरिवारो पक्खोववासेण उच्चि(ज्ज लगिरि आरुहिऊण सव्वमहानईसहस्ससंकुलितित्थोदगं गइंदकुंडं पिच्छिऊण न्हाणविहिणा हरिसवसब्भंतलोयणो न्हवणे कए तक्खणत्ति(वि ?) गलियं(य) पडिमो दीणे दम्मणे कयभत्तपरिच्चाए चउव्विहसंघेणं कयउवसग्गो(उस्सग्गो) । घोरुवसग्गेहि अक्खुहिए संप(पु)न्नो । वेसमणनिद्दिट्ठा अंवा समागया। "तुट्ठा म्हो, पारेह" । कए पारणए हेमगुहाए कप्पासियं आरोविऊण पोरिसीए पुष्पिया फलिया कावि कुमारिया
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अउव्वविब्भमा सुत्त(?) काऊण समप्पिऊण सिक्खं दाऊण गया। कह(हि)यविहिणा मयणो सवंधवो न्हाउ । गइंदकंडाउ संकेयगणाई पलोयंतो कमेणं गच्छंति इगवीसं अट्ठ मंगि(ग?)लमंडलाउ, इगवीसं तोरणाइं विछिट्ठाणं पिऊण(?) छत्तसिलस्स अहोदुवारेण मज्झयण(णय?) भूमीए अणेगकंतिसुंदरः(र) अस्टुिनेमे(मि) त(ति)त्थगरसमवसरणं तिपयाहे(हि)णी काऊण पडिमातिगं वंदइ । भारही पडिमा उदियसहस्सकर नि[कुरंवा दिव्वपुष्पारुहणा दिव्वकुंडला अणेगाइसयाभिरामा सव्वअरिझुरयणहार(रा?) दंसणमित्ते निट्ठवियपाववंधणा भगवउ नेमिपडिमा नमंसिऊण- "अणुजाणह अंगुलीए तु(ग?) त्त फासणेण, उ (ऊँ ?) नमो भगवउ अरिटुनेमिस्स णं" भणंतो मयणो भिमुहो जयजयरवेणं आगच्छइ ।।
एगेण छत्तेण धरिज्जमाणेणं अन्ने चमरए(य)धारए अन्ने गंधुदगक्खेवंकरेणं धूपुक्खेवं च करेइ । मंगलरवेणं चेईयस्स उवरिट्ठाणे पुच्छमुहो(?) ताडे(डि)या दुंदुही। सुवन्नवासं पुष्पवासं कारियं मणिरयणमयं चेईहरं । म[य]णस्स नाणं उप्पन्नं । समागउ इहो(?) वेमाणिय-जोइस-वण-भुवणतिअणेगलोयसंकुले ।
सोलु उदे( हे )सो ॥ इत्थं कालक(क)मेणं आससेण खत्तिएणं उद्धि(ख)रिए । नंदिवद्धणेणं। देवाणुप्पिया । एयं तित्थ(त्थं) असीयसाहस्स(स्सं) जाव सुवन्नमणिरयणं(ण) विहूसियं चेईहरं । मज्झं निवा(व्वा)णाउ अट्ठसए पणयाले विकंते देवाभिउगेणं सक्काइट्ठ वेसमणाएसेणं कयत्थाए अंवा [ए] चेईहररच्छाईयं ह(दू)समाणुभावेणं अणारिया लोया अधि(ध)म्मिया । अउ अदिट्ठअउव्व पभावंकालाणुभावउ इंदाइमणे(हे ?) पव्वदिणेसु खिल्लगीयत्रव(नच्च)णाईयं कंचणवल(ला)णए करिस्संति । वाहिरउ नमसणं
अभित्तिय(?) दुग्गंधा अकिरियपाविट्ठमलेण चिंतंति । कूर किलिट्ठाइ अगणुयाणं दूरउ देवा ।। १ ।।
मिच्छद्दिट्ठिअकलिया माहप्पतित्थ पुणो वि दोसहस्से महारूवे । उज्झलं ते ते पविज्झाइयपईवदिवसुव्व निसाए सव्वसुरमहोरगाईहि पूयणिज्जे भयवं अरिहनेमी। पुणि तारिसं चेईयं दिव्वं जियसत्तु-दमघोस-नयवाहण-उपम( पउम )पुंडरीयविमलवाहण नराहिवेहि उद्धरिस्सई । पच्चक्खा(पच्छा ?) विदेहखित्ताउ खयरा महिमं करिस्संति ।
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एति अस वलही सिलाएच्चो जक्खदिन्नविज्जाउ गयणं (ण) ट्ठियआसो विमलगिरि - उज्झिलाइ जित्रुद्धार कारउ, अट्ठ पण ण ( ? ) याले कालगउ भुवणवदो । इत्थंतरे तित्थगरक्खणेणं वेसमणेणं उज्जिलसिहर - विमलगिरिम्मि | तउ परं पट्ठाणवई - सालिवाहणेणं नव छन्नुईए जित्रुद्धारो । तउ परं तेरसि सट्टे कन्न उज्जामनिवेणं जिन्नुद्धारो । तउ णं सोलसपन्नासे गुज्जराहिवइ उद्धारो सज्जणेणं काही । तउ परं दूसम (मा) वसेण अणारियदुग्गंधाइपराभवेणं कलिपरिणामवसेणं अदिट्ठाइस तिथे दो सहस्से दा स ]ब्भहिए द (य) अ (उ) द्धारो । सो वि दत्तो विदेहे वलदेवो सिज्झ (ज्झि ) सई ।
विसहस्सं जियसत्तू । छ सहस्से दमघोसो । अट्ठसहस्से नयवाहणे । दुवालससहस्से पउमो । अट्ठारससहस्से पुंडरिउ । वीसब्भड ( 5 ) हियसहस्से विमलवाहणो ।
जित्रुद्धारक इह सव्वे आसन्नसिद्धिया जीवा
गोयमा (म) ! भरहरिव ( क्खि ) ते उववज्जिस्स तह सिज्झंति
( उववज्जिस्संति सिज्झंति) ॥
इगवीससहस्से वियते धणुसहस्सुद्धे पव्वयराए । तउ परं अणु (ण) पन्नियपणि (ण) पन्निया सि(वि) चिरं कालं पूय (इ) स्संति ॥
पुंडरीयज्झयणं ॥
जउ य इत्थ विमलगिरिम्मि सिद्धखित्तं अ ( आ ) इतित्थं मि(सि)वखित्तं तित्थरायं तित्थसु (म ) उडं आ( अ ) णाइनिहणं सिद्धतित्थं अभिहाणं । भागीरथं पुंडि ( ड) रियं सित्तु( त्तुं )ज्जयं । एयस्सि अवसप्पि (प्पि) णीए नामाई ( इं ) । एअम्मि सिहरे पंचकोडीसहिउ पुंडरिङ सहि (सिद्धि) गउ । नमिविनमी अड्डाइज्जकोडिसहिउ, दविड- वालिखिल्ल दस कोडी, भरह पमुह असंखकोडाकोडी, सगराईआ कोडीए। मासिएणं सिद्धा जा. सुविही । तए णं हरिवंसुब्भवाणं कोड (डा) कोडी सिद्धा । राम- सुग्गीव - विभीसणाईया । वीस कोडी सिद्धा । वाली पंचलक्खपरिवुडो सिद्धो । खेलगा[य]रिया संब- पजुव ( पज्जुन्न ) पमुहाउ अद्भुट्ठाउ कोडीउ उज्जलसिहरम्मि सिद्धा । राइमईपमुहा नव कोडी यउ (?) सत्त सहिलक्खा । सत्त सया ज्जा (जा) यवाणं रेवयसिहरम्मि पत्ता ।
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[22]
इच्चाइ सिद्धवाणं तिहू ( हु ) यण अन्नत्तरि विह माहप्पं । सिरिपुंडरीयतित्थं गोयम ! फासिज्ज सुक्खट्ठा ॥ सव्वाउ वि नईउ गयंधकुंडम्मि जत्थ अव [इ]न्ना । इंद्र (द) गवणाइरुक्खा उज्जिलसिहरम्मि आइट्ठा ||
दिव्वं रेवयसिहरं दव्व (दिव्वं ? ) कुंडं अरिट्ठवरनेमी । दे (दि) व्वो पहावो भयंव (भयवं ) ! लह[इ] तिसु तुहुत्तसिद्धाभि ( ? ) || एसो पुंडरीयज्झयणे छट्टुदे(द्दे)सो ॥
ते णं काले णं ते णं समए णं दाहा( हि ) णसंडे ल( न ? )म्मयापरिसरि, वण्णउ। सिरिपुरम्मि पढमं अजियतित्थंकरे अरिहा समोसढे । चाउम्मासिए विईए तउ तित्थं । एयम्मि समए सरस्सईवीढम्म चंदपुरे जाए। चंदप्पहतित्थे जाए ॥ इत्थंतरम्मि भिउपुरे जियसत्तु राया । पइदिणं छ सया अयाणं हुणणं । च्छमासे गए। आसरयणस्म हुणणट्टयाए माहमासे नम्मयातीरम्मि न्हाणं कारिउ । सो य अट्टवसट्टोवगउ उववन्नजाईसरणो चिंतेइ । तस्सणुकंपाए पयद्वाणपुराउ भयवं अरिहा मुणिसुव्वए माहसुक्कपडिवए चत्तालीस सहस्सपरिवडे सदेवासुरजख (क्ख) रक्खसकिंनरकिंपुरिसाए परिसा [ए] परिवुडे अट्ठमहापाडिहेरकयसोहे अद्धरत्तीए सिद्धेसुरमि(सिद्धपुरम्मि ? ) खण(णं) वीसमिऊण कोरंटुज्जाणवणम्मि सहयाररुक्खस्स अहोभागे समोसढे । राया वि जियसत्तू सत्तू सत्तू (?) सव्वन्नुसंसइउ पट्टासकोसो रपडित्ता (?) भयवउ वंदणट्ठाए पडिगउ । भगवं पि सदेवमणुजासुराए सहाए पडियरिय पडियरिय धम्मोवएसे कहिए वहवे पडिवोहिया । राइणा पुच्छिउ - "क (किं) जन्नाण फलं ?" "पाणिवहे नरउ" । आसो वि कयसंविगवेस्स गउ गलियअंसुपब्भारो ट्ठिउ । रायसमख (क्खं) पडिभासिउ ।
"भो देवाणुप्पिया ! तुमं समुद्ददत्तस्स समणोवासगस्स सागरपोतासिभिहाणो ( ? ) मित्तो | मिच्छदिट्ठी तुमं पि अतु ( उत्त )रायणे ज्झयकर्यालिंगम्मि असंखजीवस (सं) हारपिच्छणेणं मया पडिवन्नसंप (म) त्तो वि पज्जंते विराहि[य] धम्मो अट्टज्झाणेणं तिरियगईए संसारमाहिंडिऊण तुमं आसो जाउ । अहं तित्थयरो तुज्झ मित्तो । सिद्धगणधारी । तुमं पि संपयं धम्ममणुपालसु ॥"
इत्थंतरे नरिंदेण अणुजाणाविऊण अणसणं गिहिऊण सत्त अहोरत्ते भगवया पडिवोहिउ कालं काऊण सहस्सारे इंदसामाणिउ जाउ । पच्चक्खाभूएण अ तेरस कोडीउ उज्जलरयणाणं वुट्टा । पडिवोहियं सव्वं पि नयरं । कारियं सुवन्नरयणमणिविभूसियं
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[23] सहस्सत्थंभं(भ)परिवुडं मुणिसुव्वयस्स चेइयं(य)हरं । माहस्स पुनिमाए ठावियं ।। भगवं अहोरत्तं धम्मदेसणाए आसे पडिवोहिए तम्मि समए तिनि कोडी पंच लखा(क्खा) मुण(मणु)स्सा वोहिया । सुक्कज्झाणेणं माहपुन्निमाए सिद्धा । बहु(ह)वे दुपय- चउपया अणसणेणं देव-मणुया जाया ।
जियसत्तू राया चउदुत्तय जुयो(?) । माहपुन्निमाए अवरन्हे चेइयहरं । लेवमई पउमिा । सक्को रख(क्ख)गो । सयं राया नि[य]सोहणु(ण)ट्ठयाए अणसणेणं विज्जाहरत्ताए उववज्जित्ता नवहल्लपट्टणे मयणो । रयणसट्ठाण(?) अजियअपराजियसहिउ रेवयसिहरम्मि बिबट्ठवणे सयं केवली सिद्धो । सेसा वि पहावणं करिता कमेण सिद्धा।
___ आसदेवो इंदसामाणिउ आसावबोहं वनइ थुणइ निच्चं । आसदेवो पइदिवसं पहावणं करेइ । भिउपुरं महातित्थं ।
वेमाणियजोइससुरा भुवणवइ वाणमंतरसुरिंदा । भिउपट्टणम्मि सुव्वय-तित्थं निच्चं नमसंति ॥
तउ पुरे बारस वास वास सहस्से भयवं निव्वुए आसावबोहणे तित्थं पउमचक्किणा वि मिच्छादिट्ठिणिद्धाडणं पहावी(वि)ए । हरिसेणचक्किणा वि उद्धरिए । एवं च णं [तं ?]मि तित्थम्मि पयडी(डि)ए चि(?) एवं चक्किपडिवासुदेव-कन्ह-वलदेव-नरिंद-ईसर-सत्थवाहप्पभिईहिं पयडिए उद्धरिए उव्वरिए ।
इत्थं नि(व)द( दि)लीव-रघु-अज-दसरह-रामाईआ इक्खागदे(वं)सप्पभवा, अन्ने वि हरिवंसप्पभवा रायाणो उज्जोयंता सुयणकडयं करिति । इत्थंतरे सूरनरिंदे दुवालससहस्सपरिखुडे सिद्धे । सव्वे दसारा जायवा हरिवंसतित्थसव(?) (तित्थूसवे ?) माहमासम्मि पइवरिसं उद्धरंति । पंडू राया तिलक्खपरिवुडो सिद्धो।
___ अरिहनेमी वि समोसढो, तयणंतरं बारवईए पज्जलमाणे पच्चासन्नम्मि जलहिम्मि पु(वु/उ ?)च्छिज्जमाणे(!)हरिवंसुब्भवेहिं उद्धरियं । एयम्मि इक्कारसलक्खेहि छ सऊ चुलसीइसहस्सेहिं दुनिसए वियकंते, आसाववोहणम्मि खित्ते उद्धारसए वियकंते भद्दवयम्मि मासे वहुवासावास सत्तहोरत्तम्मि सउणी गयणे रक्खाउ उठ्ठित्ता वाहिरयम्मि पिसियखंडं नियविल्लुक्कट्टयाए(?) बाणविद्धा पडिया । इत्थ दुनि समणा, चारुचंदकरित्तमुर्णिदेहि पंचमंगलं दाऊणं चेईयहरस्स पुरउ लाविया । दुन्नि पोरिसी
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[24] वीया, कालं काऊण सि(सिं )घलदीवाहिवस्स विजयवाहुस्स रनो सुमंगलाए सुंदणा( सुदंसणा) पुत्ती जाया ।
कमेण वावत्तरि का(क)लाउ ग्गाहियाउ । कमेण जुव्वणट्ठियाए जयकेऊ नरिंदे विवाहणट्ठाए सयंवरामंडवमागच्छइ । तत्थ सहस्ससंखनरिंदाणं आयंताणं सच्चसवंमि(?)वट्टमाणे जाव णं रायसि(स)हाए कए उ "उत्स(त्सं)गट्ठियाए ताव अहिण[व]उवाणएणं पुरउ जीय अयल(ल)दत्तेणं भिउपट्टण सत्थवालेण "नमो अरिहंताण"न्ति भणणक्खरेणं तसं(तस्समयउ)वकाजाईसरणा पुव्वभवसमरणया सिरिसुव्वय वंदणट्ठयाए कयाभिग्गहा दिटुंतउवणयजुत्तीहि विसयविरत्तमणाए अम्मापियरं पडिवोहेमाणा सव्वसयणं अणुमन्नइ ।
न य रज्जं न विवाहो आहरणं महणं(मेहुणं ?) न इच्छामि । आसावबोहतित्थे सुव्वयपाए य मे सरणं ॥
इच्चाइ दढपइन्ना अट्ठारससहीपरिखुडा, सोलसरायपुत्तेहिं अट्ठहि महामंगल्लेहिं अंगरक्खवालेहिं अंगरक्खवालेहिं(?) कयरक्खा, अट्ठारसपवहणपूरियमणिरयणा मासियभत्ती(त्ति)एण समागया ।
मिच्छत्तधूमकेउ समुद्दमज्झम्मि तस्स गहणट्ठा । स(सं ?)मत्तगंमि पवणे सुव्वयपाए य सुमरंती ।। सीलप्पहावउ पुण दाणवरायं हणित्तु ज्झाणेण । समरंती नवकारं उत्तिन्ना जलह(हि)मग्गाउ ।।
भी( भि )उपुरं कयं वद्धावणयं । भयवउ दंसणे हरिसवसु प्फुल्ला(ल्ल)लोयणा कयबंभचेरा तित्थं पुज्ज(पज्जु)वासमणा(माणी) ठिया । कउ जिन्नुद्धारो । कओ सउणा( णी )विहारो । अट्ठाहियं काऊण आससुरं आराहिऊण कयं णवं चेईहरं अद्भुत्तरसहस्स व य(?) धया' विहूसिय कलयलं ।
इत्थंतरे सिरिउत्तर-दाहिणसंडस्स नरिंद-चक्कि-ईसर-सत्थवाहाईहिं पूइज्जमाणे(णा ?) अभिनंदिज्जमाणे(णा ?) सा सुदंसणा णिच्चं पूयणरया ज्झाणतम्मणा तल्लेसा वारस वासा विइक्कंता । तउ कई(य)भत्तपरिच्चाया सुदंसणा महादेवी महाबला महावीरी(रि)या महाप(र)क्कत(?)मा, जत्थ णं रोहिणिपामुक्खाउ सोलस १. ध्वजा
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विज्जादेवीव(उ)चिटुंति, तत्थ जंबुदीवपमाणा(ण)धवलहरा देवीसयसहस्सपरिवडा अणेगवाणमंतरसहस्ससामिणी अभिणंदिज्जमाणा कित्तणिज्ज(कित्तिज्ज)माणा उवउ(व)ना।
तम्मि समए संभरीयपुव्वभवा नियसामिज्झयणं पसुमकेच्चं(?) झाऊण न्हाया कयमंगला अणेगवणसंड-भद्दसाल-णंदणवण-पउमसंडवणाउ पउमाई, दहाउ अनाउ पउमाई गिण्हिऊण चंदणकट्ठसहस्सा गोसीसचंदणाणि गिण्हिऊण सिरिसुव्वयस्स अट्ठाहियामहिमं कुणइ । सयं नर्से गीयं धूवखेयं पुव्वा सुभवेणं(?) अणुरागरत्ता तत्थ ट्ठिया पइदिवसं करेइ । अन्नाउ वि वाणमंतरीउ सत्तरस दुग्गाउ। अन्नाउ वि वाणमंतरजाया सोलसपडिचारगा खित्तपाला जाया । नव कन्नाउ दुग्गाउ(?) सेसपडियारणीउ इई
जाया।
तउ णं महापीढं जायं । जंबुद्दीवस्स वणसंडाउ सव्वं गिण्हिऊण अच्छई । इत्थंतरे सव्वविदेहतित्थेसु अड्डाइज्जेसु नंदीसु(स )रेसु वि चेईयवंदण(ण) करेइ । सा वि भगवउ वीरस्स पायवडिया वंदणं काऊण सूरियाभुव्व नर्से करेइ । सक्क पुच्छाए पडिकिहियं-"सउणी एसा । तईय[भवे ?] भारहे खेत्ति(त्ते) सिद्धिस्सई ।"
तप्पभावाउ अखंडियं पुरं निम्मल कणयरयणाहरणविभूसियं डज्झिता(झंता)गरु-तुरक्खवमघमघायमाणअंबरयं निष्पा(प्फा)लियअरिठ्ठदोसं नयभं(रं) हुआ(अं)। इत्थतरे गोयमसामिणा पडिवोहिआ । धूलिकुट्टो तप्पभावाउ अभगो(ग्गो) । सव्वपुष्पारुहणं करेंती अन्नट्ठाणाउ णिवारेइ । अज्जसुहत्थिसीसेहिं त्थंभिया कलह(हं?)सेहिं पंचपुव्वा(?)रिएहिं । संपइ राया य तित्थवंदणं कुणंतो य भस (रु) यच्छि जिन्नुद्धार करेइ।
तत्थ य दुट्ठभ(अ ?)मरअहिडिंबिया(?) पणवा(वी)स जोयणाण मज्झे उवसग्गं करिति । सिरिगुणसुंदरसीसेहिं अज्जकालियारिएहिं जुगप्पहाणेहिं भरुयच्छे वासावासं ठिया ति(ते)हिं निवारिया । पडिवोहिया सरस्सईए सह इक्कारसिं(सं)गाई दस पुव्वाइं सीसा सुत्तत्थं गाहिया । '
इत्थंतरे वुट्ट ड्ड)वाया इ )सीसेहिं सिद्धि द्ध )सेणदिवायरेहिं उज्जेणीए पडिबोहट्ठा विक्कमनरिंदेण आसाववोहणे विमलगिरिम्मि उज्जिलसु(लेसु) प(य)ज्जुत्त(जिन्नु) द्धारो कउ । सुं(सु)दसणापडिमा गोसीसचंदणमयी अज्जकालियारा( रि)एहि कारिया । सा य आयासतलं उप्पयइ, सिद्धि (द्ध )सेणेण
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[26] मुणिऊण ठाविया ॥
इत्थंतरम्मि सिरिवयरसामी भरुयच्छे भद्दगुत्तारियाणं णसे(? पासे ?)दसमे पुव्वे सम्मत्ते । तम्मि नहयलगामिणी विज्जा सरस्सई सुई(दं )सणाए(प)भावउ उद्धरिया । जंभगदेवेहि महिमा कया ॥
तउ सिरिगोयमसामिणा भयवउ महावीरस्स पासे पडिपु[च्छि]यं "कहं विइ" त्ति ॥ इउ य देवाणुप्पिया ! भम्मि तित्थे अम्हं निव्वाणाउ व्व(छ) सए चुलसीए वियकंते विज्जासिद्धा अज्जक्खउडारिया । मिच्छाद्दिट्ठिदेवयाएहिं घोरंधारे रउवुट्ठी कया, तेहिं निवारिया । पडिवोहिया । दुरट्ठनई गिहिस्संति ॥ इत्थंतरम्मि अट्ठसए पणयालेहि य वइक्कंतीए अणारीए वलहिभंग काऊण भरुयच्छम्मि आगच्छमाणे सुदंसणा निद्धाडिस्सई ॥ अट्ठसए चुलसीए अज्जमल्लारीया भिक्खुसहस्सं निद्धाडिऊण प्पहावणं काऊण मिच्छदिद्विसुरीउ उवद्दवकारिणीउ वहिसि[नि]द्धाडइस्सति ॥ तउ पइट्ठाणवइसालिवाहणो राया उद्धारियस्सई ॥
तहा कन्हो य भरुयच्छे नरवाहणो य वलहीए सिलाइच्चो चत्तारि राया महूसवं कुणंति । अज्ज कालिया जुगप्पहाणा आयरी(रि)या पालित्तारिया द(द)सणपहावगा । पच्चक्खीहूय सुदंसणा नट्टाईयं काहं । तउ परं अणेगनरिंदसत्थवाहेहिं समन्त्रणिज्जमणे(?) इक्कारसलक्ख पंचासीहिं(ई)सहस्सणवसय अही(हि)ए पुणरवि उद्धर(रि)स्स[इ] अंवडाभिहाणो ।
पुणो डिया(?)सीयसहस्सं चत्ताअहिए सए वियक्कंते पाडलिपुत्ताहिवदत्तनरिंदे अभंगदत्तकालंसि अहिणवकणगरयणाविहूसियं कारिस्सइ । त[उदमघोसे राया; ज(जि )यसत्तू राया उद्धारकारगो(गा) वारसलक्खेहिं पुणरवि सुंदसणा देवी अणे विहूसियं(?) पच्चक्खीभूया जिन्नुद्धारं काही । वउलवाहणो राया ॥ इत्थंतरे दो सहस्से जवलवहव(जलविहव?) कल्लोलाए नम्मयाए कत्ती(त्ति)यमासम्मि । तउ परं सिरिसुव्वए सुदंसणाइ सएणं । तउ कणयमयं चेईहरं अणेगनरिंदपूइज्जमाणं मिच्छद्दिट्ठी वाणमंतरो घोरंधयारेहि पक्खे कए आसदेवस्स काउसग्गं काउं त(त) निद्धाडिस्सति । पुंडरिउ राया उद्धारं काही वेमाणीउ नर्से गीयं काही । एवं वारसलक्खिहि पंचसहस्से साहिए, भगवउ निव्वाणाउ अट्ठारस सहस्से वियकंते पुलक्ख(पुक्खल?) वट्टव्व गज्जमाणेहिं नमा(म्म )याए सुदंसणाए सिरिमुणिसुव्वयपडिमं गिण्हिऊण नियट्ठाणे पूइस्सई ॥
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[27] एवं काले वियक्ते अणेग(?)। पुणरवि अणागए कालेमि(लम्मि) सूरदेवतित्थे समोसढे । पुणरवि संचउरं( सच्चउर) भरुयच्छट्ठाणे सा वि सुदंसणा आउं पालित्ता अवरविदेहं धाईसंडे अवरकंकाए विजयकेऊ राया । तर सव्वट्ठसिद्धे । तउ विदेहि (हे) सव्वाणुभूई तित्थगरे हुज्जा ॥ गोयमा ! तत्थ अणेगाइसयपहावहावियं भविस्सई अईयअरिहाणं वीसमतित्थगरस्स तित्थं भविस्सइ ।।
सिरिगोयमसामिवि(व)नियं (ओ ?) सिरिसुव्वयतित्थुद्देसो ॥ [आसा ]वबोहतित्थे वाससहस्सत्तं(?) तित्थफलमेयं । तं सयगुणियं च फलं सित्तु(त्तुं )ज्जे गोयमा ! इत्थ ।।
अ आ )साववोहतित्थज्झयणे तईउ उद्देसो ॥ छ ।
पंचकल्याणेषु सिरिसुव्वयस्सआसाववोहतित्थे, पूया य तवो अब्भतटुं च । असंखगुणं सुकयं, कल्लाणे(ण)गसव्वदिवसेसु ॥ माहे फागुणअट्ठमि--पंचमि-दसमीए(?)सु पुनिमा तई(इ)या । पूया दाणं न्हवणं उववासेणं असंखगुणं । चित्ते सुक्क(क्के) पक्खे वइसाहे पंचमाइ दससु ति(त)हा ब ॥(१) कर्पूरागुरुधूवे मयासए(?) संखगुणलाहो ॥ जेट्ठासाढे पंचमि-अट्ठमि-दसमीय(इ) पुनिमादिवसे । अब्भत्तटे पूया असंखगुणो तहा लाहो ॥ २॥ भद्दवए जा मासं निच्चं न्हवणाई एगभत्तं च । आसाववोहतित्थे लक्खगुणं निज्जरं कुणइ ॥ ३॥ आसोयसुक्कपक्खे एगं तरं पूयणं च उववासे । जं अन्नतित्थसुकयं णंतगुणं आसतित्थम्मि ॥ जो धय छत्तं घंटे कलसं आपत्तियं तहा घूवं । चमराइकारा(र)णेणं तित्थगरत्तं समुच्चिणइ । इय विहिणा जो तित्थे आसाववोह करेइ वच्छल(ल्लु) सो तईयत(भ)वे (मु)क्खो स चक्कवट्टी वि वा हुज्जा || एसो आसावबोहतित्थपभावो । इय आसावबो[ हा ]तित्थप्पभावो सिरि
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[28] वी(व)यरसामिणा वनिउ ।।
एवं १३२ उद्धाराणं । पंडुराया पंचसहस्सपरिवुडो सिद्धो । हरिवंसुब्भवा कोडिसहस्सा सिद्धा । छ ।
ते णं काले णं । चंदेरीए नयरीए चंदप्पहे अरिहा बहूहि वाससहस्सा(स्सेहिं) समोसढो । तत्थ जालामालिणीए नियपडिमा अप्पिया । सिंहकन्नेण राइणा चेईयं कयं । तत्थ ठाविया पडिमा । चंदकंतमणिमई चंदप्पहपडिमा णिरालविआ(?), सा ण लवणाहिवई पूएइ । तप्पभावेणं वेलं नाइक्कमइ । ससिभूसणाभिहाणा पडिमा। पहासजक्खो निच्चं नढें पूयं करेयं(इ) । अमएणं अमयं लिंग(ग)भत्रइ, सव्वदुपयचउप्पय-खयरा वि नमसंति । के वे(वि?) कालं करिति । तिहूयणसिद्धो यगं(?) इत्थ णं वहवे सिद्धि(द्ध)विज्जा[जा] या । केव(वि ?)लद्धरज्जा लद्धतिहूयण लं(ल)छि(च्छि)णो । केवे(वि)भीमानु(?), सेसा दस रुद्दा महाविज्जा इत्थ जाया । चंदप्पहप्पहावेणं । जाल(ला)मालिणी स(भ?)त्ता विसेसउ केव तिनयणा(?)के वि लद्धातालंचदा(?) केवि कंठयलना(?) केवि उसउहवाहणा(?) ईसरा जाया। दस चक्कि-पडिवासुदेव-कन्ह-राम नरिंदपूइणिज्जा ।
इत्थंतरे अंग(अंधग )वन्हि भूयाए कुंतीए चंदप्पहे आराहिउ अट्ठत्तरसय अयासेणं(? उववासेणं?) । पंच पंडवा सुया जाया । उद्धरियं चेईहर(रं)। 'सयासिवु' त्ति अभिहाणं जायं चंदप्पहस्स । सिवभत्ता पंडवा । इत्थंतरे सिवरत्ती पइट्ठादिणं जायं महामहूसवो । चुलसीवाससहस्से सिद्धत्थनरिंदेण उद्धरिए । कालसंदीवएणं तहा । पेढालपुत्तेणं सुव्वयणा निच्चं आराहिए । तिलुक्कसामिणी विज्जा इत्थ सिद्धा ॥
एसो प(पं)ड(?)वुद्देसो बिमि ।।
इउ य-सीसा सच्चइ-रुद्दे चंदे राएई सोमरायम्मि । दूसमपवेस छस्सय-गोयम तुट्टीय मिच्छत्तं ॥(?)
भगवउ निव्वाणाउ छस्सए चंदेरीए सिरिवइरसेणसीस चंदारियसीस समंतभद्दारिया सव्वुत्तखुऽगा(?) चंदप्पहपहया(पया)हिणं करिते चेइयपयाहिणं सिरवुड्डग पुव्वण(ण्ह ?)कालम्मि सुमुहुत्ते पइट्ठिए । पुणक्खर लव भा ९ घ पू २२ तं समयंसि रावणाभिहाणो कालिए बुहष्पासं करिते । मज्झे लुट्टयं ठाविया अहिट्ठियं
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[29] सच्चइरुद्दसीसेहिं मिच्छद्दिडिवाणमंतरे हि तत्थ रयणीए सुविणयं जाए । गोसे पंचमे(भे?)य न्हाण पूयण नट्टगीय सुंदरत्थवेहि अइसए वित्थरमाणे ईसरलिंग हुज्जा दिसि वित्थरियं सिंहमंडलाहिवेणं दुवारं ठवियं सिंहासणा उवरि नागराउ आरक्खमो ठविउ। त तउ(तउ) आयरिए सव्वसंघपरिवुडे विज्जाबलेण अतंरियं काऊण र(रे)वयतलंसि अणसणभत्ते कालगएतत्थ सिरिपूसमित्तारिए।
दुन्नि खयरे तत्थ आगच्छए । जउ वद्धमाणेणं व(वु)त्तं । सीसा सच्चइरुद्धा( हा) इं । तत्थ महुत्तविसेसेणं सत्तजणवयरायपागयजणेहिं अभिनंदिज्ज माघविसेसे प्पहाव सोमलिंगुत्ति जाय तं(जायं तं)। अमयलिब्भद्धिया(?) लिंगुत्ति सो देमि छच्चाससए मुवुतराहिए(?) वोडियदिट्ठीहिं सीयाविहारं गिण्हई । सालाहणं पडिवोहित्ता पालीत्तारिया या) उज्जिलसि हरम्मि ठिए । नागज्जुणपहावगे दो रव(खु)ड्डए चंदेरि पवेसित्ता निज्जिए वाए । पच्छाए खुड्डविज्जाए (पच्छा खुड्डए विज्जाए) अइक्कं ते । एवं चउद्दस वाससया साहिया दुसमाणु भावेण भासरासिग्गहपहाजालअत्थमियई(इ)यरतित्थप्पहा चक्कवाले जिणजम्मरासिं चइऊण गए । दत्तरायंसिं पुणो चंदण( चंद)-प्पहतित्थं सम्मद्दिट्ठिजक्खविसे सउ वुट्ठियदितं(वड्डियदित्ति) सिरिसमणसंघवंदियं । दस वाससहस्सा पुणो वि रेवयसिहरम्मि पूइज्जई । वीस सहस्से अइक्कंते तिहुयणसामिणी माण( णु )सुत्तरम्म पूइस्सइ ।
तउ उद्देस उद्देसउ ॥
जहा वा भगवउ वीरस्स जितु नंदिवद्धणे भाया पित्तलामईउ वा(बा)वीसं पडिमाओ कारियाओ । गोयमा ! इय णइरेणं(णयरे णं) पडिमाउ पइट्ठियाउ । इत्थेव गवि(ठावि)याउ। पंचसए इगासीइ वियकंते गयणंगणे अंबादेवीए उप्पाडिऊणं चंदेरीए सिद्धमठ मज्झो(ज्झे) ठ(ठि)या चंदप्पहपडिमा । तत्थ मिच्छद्दिट्ठीसुरेहिं अखुहिए[हिं] पूईया । तत्थ सिरि-ह (हि)रि-धी-कित्ति-बुद्धि-जालामालिणि-अंवाउ सनिहियाउ पूर्यति । अणारिएहि विक्कमाउ तिनि सए पन्नहत्तरीए, तहा अह(8)सए दस(?)इक्कासीए, तेरसचुलसीए, चउद्दससए अउणत्तीसे वेयखुहिया जाव दससहस्से पूइस्सई । तउ परं उज्जिलसिहरम्मि पूइस्सइ ॥
॥ एसो चउत्थ(उ)द्देसो चंदेरीत्यज्झयणं पंचमं ।।
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[30] ईय सुमइतित्थं देवयाई पइप्पियं इह लवणभूमीए हि(दि)?मदिट्ठमदिद्धं(8)च कालउ । आसुर तीर्थ पंचई ॥ ?
ते णं काले णं ते णं समए णं चंदेरीए महासेणराया लक्खणाए देवीए भगवं चंदप्पहे समोसढे । तं सयमं(समय)चंदेराया, सतिलए(?)सोरट्ठयम्मि पच्छिमदिसामागए सुट्ठिय लवणाहिवइणा नगरं कयं तिलयपुरं । तत्थ भगवं चंदप्पहे समो[सढे] । सा जसमं मइसं(?)(जं समय) देवदेस(वि)विमाणे मा(आ)गए तत्थ चंदप्पहासे दुवालस जोयणवित्थडे समुज्जोईए । तस्स हरणं विक्खायं । भगवउ अरिहदत्त गणहारी कोडिपरिवुडे माहकन्हचउद्दसीए निव्वुए, शिवरत्ता( सिवरत्ती) विक्खाया ।
चंदविमाणअसंखउज्जोअं ते य पच्छिमदिसागं चंदपहासं भन्नाइ । असंखमुणिसिवगइखित्तं तु तित्थ(तं तत्थ) तिय(ति)हूयणसामिणीए देवीए भगवउ पडिमा ठाविया । तम्मि तित्थे वहवे पाणिणो सिद्धाऊ(ओ) । दुपयं(य)-चउप्पयपक्खिणो य नियकम्मनिज्जरवाए देय(वं) झायंति ।
कइया वि दसरहपुत्ते इत्थ खित्ते चाउम्मासियं करेइ । इत्थ सीयाविहारो जाउ। कई(इ)या वि दसवयणे कवि(इ)लासाउ चेईयवंदणं कुणतो तेलोक्सामिणीए चंदप्पहपडिमं अमियलिंगं गिण्हित्ता चंदप्पहासमागउ। ताव पच्छागएहिं इत्थ ट्ठाविया रोगायंकेहिं दसवयणे लंका का नयरिं पत्ते । तत्थ ससिवस(य?)णाए तेलुक्सामिणीए पट्टविउ पासाउ । तउ कालक्कमेणं असव्वा(च्चा ?)णं अपिच्छणिज्जं जोइलिंगं विक्खाम(यं) । वहवे विज्जहेरी(विज्जाहरा) सिद्धविज्जा जाया ।
तउ भगवं अरिहनेमी समोसढो । जायवाणं विजा(विज्जाहर ?)देवाणं पियमेलउ जाउ । पंडवा वि सिद्धविज्जा वारसवरि स] संठिया सलि(सि ?)लंछण-समुद्द-सरस्सईतीरे केवलन(ना)णठाणे बंभकुंडम्मि समवसरणम्मि ससि-सूर-राहु जोगे सिद्धिविज्जाठाणं ।
कई(इ)या वि भगवं वीरे समोसढे । सच्चई सिद्धविज्जे जाए । तउ दूसमाणुभावउ अपिच्छणिज्जं जोइलिंगं । तउ सेसे नायम्मि(?) कुतित्थपरिग्गहियं ।
सीसा सच्चइ भदं चंदेरीए य सोमरायम्मि । दूसमपवेस छस्सय गोयम ! वुड्डा य मिच्छत्तं ।।
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ताणं तवोविहाणं चरणं करणं [च] चेई (इ) यं बिंबं । चंदप्पहासखित्ते (त्तं ? ) मिव हेऊ आपुढत्तम्मि |
चंदप्पहासज्झयणं ॥ छ ॥
ते णं काले णं ते णं समए णं दक्षिणावहे भगव (वं) ते चंदप्प [ ]म्म समोसढे पाइवनुगुणेण (?) नासिक्करं । गोवद्धणे वंदणट्टाए समागए । इत्थ गोयमा ! सदेवमणुयासुरम ( स ) हाए गावी आगच्छित्ता नियकम्मं पुच्छइ । भा(भग) वया सद्दावित्ते रक्काइ कागिणीए जं चरि (र) णं पुव्वभवतवे वे(?) (चे ?) कए, तेण बहुकम्मेणं नवमे पुव्वभवे तिरियगंठी । आसन्नमसव (? भव ? ) बद्धं कम्मं वे (चे?) दासत्तं तिरियत्तं भिक्खुत्तं पावए य रिणी । एवं पडिवोहिया अणसणेणं अट्ठारसहिं दिणेहिं वेमाणिया जाया । राया वि निक्खमिऊणं बंभलोए कप्पे [दे] विंदो जाऊ (ओ)। तेण वेलाए कारियं । जत्थ कीलइ तत्थ व( बं) भगिरी भन्नइ । जीवंतसामिपडिमा मज्झे रयणपडिमा । तत्थ समए गावी अमय (यं) झरंती, एयाए गोदावरी सारणी जीया ।
तउ कमेणं [पवण ]जय भारिया अंजणाए आराहिङ, तीसे जिन्नुद्धारो । तउ राम-लक्खण-सीयाए चउरो वरिसा आराहियं । तउ कइया वि हत्थिणाउरे देवीए कुंती पुत्ते सद्दावित्ता ए अग्ने (ग्गे) या पवेसाणकालं ( ? ) । नारयरिसिणा पुव्वभवनिवेयणो (णे?) तिन्निरुय (६?) सद्धि वंदिए । चउत्थं काऊणं चंदप्पहसेवणेणं
( जुहिट्ठि) ले जाए । वउ सीलप्पभावेणं विइल्लेवावणेणं सया पूई (इ) यं । उद्धरियं पंडवेहि वारसमे वरिसे जदूकोरियच्चा (?) । तत्थ जालामालिणी सासणदेवी उववन्ना । तव्वसेणं जीवंतसामिपडिमा उववन्नगपइट्ठिया सिरिसमणसंघे [णं ], तद्दिणाउ आरब्भ उदिउदियमाहप्पं चक्कि बलदे[व] वासुदेवपूयणिज्जं । जाव हरी राया । एवं असंखउद्धारा । तउ परं हरिवंसुब्भवेहिं उद्धरियं चेईयं पडिमा वि समुद्धरिया ।
तउ पंडवेहिं पूइज्माणा चेड़गनरिंदे हि (णं) उद्धरिया । अउ परं कन्हदेवेण एय वज्झावहसम्स (?) अरयस्स वीस सहस्से वियक्कंते सयं देवीमज्झाउ चंदप्पहपडिमं गिहिऊण नियभुवणे गिहिस्सइ । अयर नव कोडीसयं छावट्ठा (ट्ठी) लक्खा छव्वीसं सहस्स (स्सा) जाव एयं तित्थं विज्जाहरनमंसियं विज्जानय चक्कवालहेउं विजयजक्खyss तित्थ( त्थ ) हेसो ॥
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[32] ते णं काले णं ते णं समए णं दाहिणसंडे पुण्यनाडयम्मिदीवे चंदेरीए पुरीए चंदप्पहपडिमा जीवंतसामि रइया सक्कपइटे(ट्ठि)या अ आउद्धपहावा विज्जाईयपइवा। आइत्त(च्च)सहस्सतेया सुरगणणमंसिया पिइवासं समुद्धियअट्ठिणठपल्लवा(?) अणवरिसंतं अमयप्पहावसमलंकियसव्वसरीरा विज्जाहर सहस्सपूईयरोहिणि पमुक्खदेवीहिं अभिणंदेज्जामाणा वाण-रक्खस-नराहिवसिद्धिकारगा दूसमा उ वासट्ठारसहस्सी जाव चट्ठिह(?) । तत्थ प्पहावेण सम्मत्तलंकियभवे जिणिंदधम्मट्टिए तिन्नि जोयण पविसए। तउ परं देवया भुवणवईमज्झे पूइस्संति ॥
चंदावई उद्देसो ॥
जं समयं लंकाए मंदोयरीए महासम्मद्दिट्ठि(ट्ठी) अट्ठमेण पोसहवएण ठिया। तिण्णि दिवसे तिहूयणसामिणीए नियचंदप्पह पडिमा मालिलुक्क(तिलुक्क) देवाभिहीणा अणवरयं सत्त वाराउ पूईय(पूयइ) वंदई नमसइ । कालक्कमेणं तट्ठाणाउ अउज्झाए सीयाए पूईया । तउ [व] हरिऊण देवयाए गिहिया । कयावि पंडुमहुराए पंडुरायाणा(णो)मासख[म]णस्स तवेणं तिहूयणसामिणीए अप्पिया । साय कुलियपायपट्टणे ठाविया । सा य सोलसहस्साहसमाए वियकंताए वणजक्खराओ पूईस्सइ ॥
रयणुद्देसो । चंदज्झयणं ॥
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ते णं काले णं ते णं समए णं कन्नउज्जदेसे हथिणागपुरे सिरिअज्जमहागिरि-अज्झसुहत्थिणो समोसढे । धम्मदेसणाविहिम्मि लोए पडिवुद्धे लोए को वि दुमगो विवन्नदेहो रत्थाए परिभममाणो ग(गु)रूहि पलोइउ । पुणो पुणो देवनंदसिट्ठिणा सव्वलक्खणुत्ति पभावग(ण)हेउत्ति नाऊण सगेहे घरणा(णी)ए समप्पिउ। पंचमो पुत्तो लालिउ । पुच्छिउ - कोसि तुमं ? । सयंभरउ जांगलवाहनाण(?) जियसत्तुनंदणो नाहडत्ति । कम्मेण जुव्वणे सोहगानिही दुव्विणीउ न किंपि सिक्खइ। पंचमंगलपढमपयसुयं गहियं ।
कयावि तत्थ पएसे घोरघट सिद्धपुत्तो जोगिंदसयपरिवुडो समागतो । मोहिउ तरुणजणो । सो वि पिच्छिउ सलक्खवणुत्ति । विज्जाए सिद्धिहेउत्ति खुद्दव्वयणेण समो(म्मो)हिउं "तुमं सव्वसिद्धत्ति करेमि" सोहिउ तं न मयइ । अमावसाए कंथारवणाए
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[33] भयभीमम्मि मसाणे न(नि)सीहे संकेण(य?) गउ । तम्मि रयणीए पियर वविऊण(?) उष्फालिऊण पूउगवगरणजुत्तो पायार फडिऊण तम्मि पएसे गउ। मयगमणाहमाणावी(वि)उ। फुकारंत मयगं निद्धाडिऊण समागयं तस्स समप्पेइ। मयगब्भहुणण(ण) करितो सिद्धपुत्तो मयगहिययासणो(ठिउ) । घोरसद्देहि (? थोरसाहाहि ?)हुणणं कयं । नाहडो गहिय तुरिउ छिडे(छुरिउ ठिउ ?) वेयालदुगं तुरियेहिं अग्गि नमह(?) परिव्वायगेण खुद्धेणं सिरि(र)च्छिदणोवाए नाहडेणं "णमोरिहंताणं" भयभीएणं समभिज्जंताण सम्मद्दिट्ठिदेवयाहिं थंभिउ परिवायगो खत्तिएणं क्खुडति नाऊण[छि]दिऊण अग्गीए हुउ । मयगमवि सयं सगेहे निदं गओ । गोसे उठेऊण पलोयणत्थं गउ। पुरिसदुग(ग) ज्झलमाणं पिच्छियं । हउ धुत्तो, सिद्धोहं, हरिसवसगस्स । तम्मि नयरे अपुत्तो कालगउ जसवम्मो पंच दिव्वाई तस्सोवरि स घोसियाणि हत्थिणा अभिसिंचिउ। कउ कलयलसूरियं बंभंडं । नाहडुत्ति राया पट्टलच्छीए सद्दाविउ । एवं गयणंगणे देवयाए घोसिए । नट्ट गीय रायचिंधसि(स)हियस्स अभिसेहो जाउ । दुट्ठा वि नामिया । च्छत्तीस लक्खत्तउ ज्जेआण(?) काऊण सु(पु)णो सनगरे पि(पे)सिउ महूसव(वे)णं ।
तम्मि दिणे पियरं नाऊण वियलंगं समुच्छिउ(ट्ठिउ ?) जाईसरणुव्व मुच्छिऊण सचेयणो चेव सम्माणेइ, गलियअंसुद्ध(व्व ?) जाउ-"तुज्झ पसाउ, नो मम पसाउ''। पुरिसाउ पुरिसा गिन्हिया । महानरिंदो । सत्थवाहपियरेण सम(म)वाराणसीए गिलाणवासि(स)ट्ठियाणं अज्जमहागिरि गुरूणं वंदणयाए गउ । पुच्छिया भगवंता"न जाणह दुमगो राया" । पडिवोहिउ ।
अज्जसुहत्थागमसं(ण) दटुं सरणं व पुच्छणा कहणं । पवे(पाव ? पव ?)यणम्मि भत्ती तो जाओ संपई रन्नो ॥ चंदनु(गु)त्तपहुत्ते(?) विंदुसारस्स मित्तउ ।(?) आरुगे(असोग ?)सिरिणो मु(पु) तो, अंधो जा[य]इ कामिणा(कागिर्णि)। जवमयू सू(मू)रियवंसो(?) दारो दविणदाणसंभोगो(?) । तसपाणपडिक्कमओ सभावओ समण सव्व(संघ ?)स्स ॥
उयरियमउ चउसु तिदारेसुं महाणसेसो करेइ । णिताणंतो भायण पच्छा सेसे अगुत्ते य । साहूणं दे संप[इ] रायपिंडाउ न गिन्हति । एवमचित्तागालिय गुत्तविया मोरं दिट्ठमिए चे वहेह तस्स मुल्लं चएमि। पुच्छा य महागिरिणो । अज्जसुहत्थिसमत्ते अणुराया धम्मतो जणो देइ । सभो वा वीसकरणं(?) तक्खणं जाउंटणणियत्ती संभोईया
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[34] अस(सं)भोईया तद्दिणाओ ।
सो राया अवंतिवई रायाण सम्मत्तं दावेइ । अणुरायाणं अणुयाई पुष्पारुहणाइ उक्खिरणगाइ पूयं । चेईयाणा तेसु भिख जेसु करे ति । वासजियाय वेण करिज । साहूण सुहविहारा जाया । पच्छं(च्चं ?)तिया दोसा.। समणभडभाविएसुं राजसुमणाईहिं साहू सुहपविहरियते(त्ते)णं विय भद्दिया तेसु । तओ स(रा)इणा धम्मवधवट्टि(?) स(सं)माणिओ सक्कारिउ विहारभूसियं कया(य)कनउजमंडलं ।
कयाइ चउ[द ?] से पोसहिउ पोसहसालाए वि सिद्धो(विसिट्ठो ?) गयणयलाउं(उ) चउब्भयं(?)बंभयारी उत्तरिउ। राया सदाविउ वंदाविउ। "वद्धमाणं(ण) ते(ति)त्थं अक्खयं निरंजणं कारेह"। अपत्थणिज्जो जाओ। गामे पुच्छे(च्छ)-यसाहूणो कहं एसो । बंभसंतिजक्खो वि हरिसिउ य । सद्दाविया नेमित्तिया । भूमि परिक्खि(क्ख)ण(णि)ज्जाए गामाणुगामं पलोयंता छम्मासेहिं मरुदेसं पत्ता भूमिं परिक्खंता सच्चतरपट्टणं गया । तत्थ चंदप्पहतित्थगर समवसरणतित्थभूमी चंदप्पहतित्थं । भगवउ वद्धमाणसामि( णो) जीवंतसामिपडिमा तित्थपरिक्खभूमीए कया । खत्तखणेणं कसाया खत्तियाणं रत्तभूगंधा । तत्थ दुव्वा(? च्चा?) तत्ततेलेण तत्ततऊयेणावि अंकुरा वि मि हूंति(?) ।
तत्थ पुरे जोगराया मंडलिउ । नेमित्तिएहिं नाहय(ड)रायस्स निद्दिष्टे पच्चक्खीहूए भणेइ - "कारेहा(ह) निउत्ता सुत्तहारा । कारियं चेईहरदुगं । वीरपडिमा सोवन्नमई पित्तलामईण संपुनपडिमं कारिए(कारियं, एवं ?) वंभसंति जक्खरायस्स। तउ बंभयारिणो सुत्तहारा । संपुन्ने कए सिरिअज्जसुहत्थिणो वंदिऊण अब्भत्थिया "पइ8 कारवेह सुमुहुत्ते नक्खेण(नक्खत्ते) ।"
भगवउ वद्धमाणसामिस्स वियकंते निव्वाणाउ तिन्नि वाससए वइसाहपुन्निमाए सोहणं लग्गं । जज्जगारिया पंचपुव्वधरा निद्दिट्ठा पंचसयसमणसंघपरिवुडा संपुन्ने वासे वाणारसीए पइट्ठिया । नाहडचक्कवट्टी सच्चउरे आगउ । अन्ने वि महानरिंदा समागया। मग्गे दाणं अभयस्स अमारिघोसणा । विज्जाहरया बहवे सम्मदिट्ठि(ट्ठी) जक्खरायदेवा य।
____ जज(ज्ज )गारिया वहुसमणसंघपरिवुडा कमेग दुगासयगामं पत्ता । वइसाहदसमीए । संघाएसेण उसहपडिमा पइट्ठिया । समागया सिरिसच्चउरपट्टणं । तत्थ एगेण खुड्डगेणं संखाभिहाणेणं कूवपएसे च्छगणवासक्खेवे कए । उद्धा वद्धावणा पायच्छित्ती, तउ वि विहिणा पइट्ठा ।
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[35] काउं खित्तविसुद्धिं मंगल कोउय जयं मणिरामं(?) वq(वत्थु ?) जत्थ पइट्ठा कायव्वा वीयरागाण || सदसेण धवलवत्थेण छाईउ वासपुष्फधूवेणं । अहिवासित्ता तिन्नि वाराउ सूरिणा सूरिमंतेणं ।। गंगापतिईहिं(?) जलेण अहिसिंचित्ता य इंदविज्जाए । इंदा उविंदवग्गा करिति न्हवणं जिणिंदस्स ।।। अठ्ठत्तरसयन्हवणं, विहिणा काऊण सदसवत्थे[ण] । समुहुत्ते अहिवासण-कारणं(करणं) कारेइ मुणिवइणा ।। चत्तारि पुन्नकलसा सलिलक्खयणयरुप्परयणमया ।(?) वरकुसुमदामकंठोवसोहिया चंदणविलित्ता । जववारया[य] सयवत्त-घंटिया रयणमालियाकलिया ॥ सुहपुनवत्त चउतंतु-गुच्छया हुंति पासेसु ॥ मंगलदीवा य तहा घयगुलपुन्ना तेहिं क्खु(तहिक्खु)रुक्खा य । वरवन्नअक्खयविविन्न(?)सोहिया तह य कायव्वा ।। उसहफलवत्थुसुवन्नरइ(य)णसुत्ताइयाई । अन्नाइ गा(ग)रूयसुदंसणाई दिव्वाइं विमलाई ॥ चित्तबलिगंधमल्ला चित्तकुसुमाई चित्तवासाई । विविहाई धन्नाई सुहाई सुरूवाई उवणेह ।। चउनारीउ मणिणं नियमा अ(इ?)त्थियासु नत्थि विरोहो(?) । नवच्छं च इमां सिजं पवरं इह सेयं-(?) ॥ वंदित्तु चेइयाई तस्स घो(?) तहा य होइ कायव्वो । आराहणानिमित्तं पवयणदेवी य संघेण ॥ वइसाहपुत्रिमाए विसाहनक्खत्तयम्मि जोगेणं । वेव(?) चेग(?) घडिया ए पुणो साहियकलयाए सुपइटुं ।। नवघडियाए पणयालीसपलम्मि पणतीसअक्खरपरिमाणे । सुमुहुत्ते सुनक्खत्ते पइट्ठा कया केल्ला(?) पा ।। सलागाए महुघयपुत्राय अत्थि उ व घडो-(?) । सूत्ता जज्जगगुरुणा सक्कपच्चक्खयं कुणइ ॥ सक्केणं वेसमणे निद्दिढे । तेण वि सोहम्मवडिंसयस्स विमाणस्स उत्तर
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[36] पुरत्थिमे दिसिभागे सहस्ससु(भु)उ महापयंडो पुन्नभद्द-माणिभद्द-चिंतामणिपभिइपरिवुडो वंभसंती इत्थ गणे आइट्ठो महाबलो महापइ(य)डपभावो । नाहडनरिंदेणं विनत्ता सुयनाणिणो "कहि तित्थं पवट्टिही "। तित्थ(त्थं ?) चाउवन्नसमणसंघस्स पुरउ निवेइयं
सुमुहुत्तविसेसेणं पइट्ठिया वीरनाहपडिमाए । देविंदा असुरिंदा खयरिंदा तं तत्थ नमसंति ।।
दुन्नि चेईसहीराई(चेईहराइं) पढममुहुत्ते पढमपडिमाए ईयरे सुवमया पडिमा। परसुमुहुत्तविसेसेणं पडिमाए । सोहम्मकप्पवासी कुवेरस्स तत्थ निद्दिट्ठो । अतुलियबलसहस्सभुउ सो बंभसंती महाजक्खो || चिंता[ मणि मणिभद्दे आणानिद्देसकारए। वासद्धा(?)ए सहसे पूइज्जइ तित्थमिणं । पंसुवुट्टा(ट्ठी)य नउ(इ?) मज्झे पूइज्जा वेरेण । जक्खे य बंभसंती पूइज(ज्ज)इ वाराजणा(वीरजिण)बिंबं । सिरिपउमनाह तित्थे पुणरवि पइडजई(डिज्जई) सहानूणं(सहावेणं ?) । सक्काएसेण पुणो पूइज्ज जसोहरे अरिहा । अडवन्नप्पमाणेहिं परि(र)चक्का भंजिही य जक्खेणं । भरहे नवि-खंडे अभंगतित्थे तहा एयं ॥ इउ य -
जेणुद्धरिया विज्जा महापरिन्नाउ गयणतलगमणा । सच्चउरपुरे वीरस्स मंदि[रे]...ते य ॥
उज्जेणीए गद्दभिल्लनिवेणं अज्जकालिए(य)बहिणी सरस्सई महत्तरा गहिया-[कालिया रिएहिं नवनउईसगा आणिऊण विणासउ । तस्स पुत्तो (वि)क्कमो खप्परय - उ सच्चउरनिवेसे जोगिंदेण मोहिउ । पंचमंगलसुमरणेणं पुरिस-द्धा जाया । पुणो वि उज्जेणीए रज्जं भुज्जइ । सो वि वयसाहपुन्निमाए ऊसवं करेइ । विक्कमराया भत्तो वीरजिणं वंदइ महाभत्तीइ । तत्थ वि विज्जासिद्धो विक्खाउ ।
वीरचरित्तत्ति(?) । सच्चउर जिणभुवणं तिन्नि सयाइक्कमे उण पणसय पणयालहिए वलहि भंगम्मि परि(र)चक्को(?) । वंक्क(?) पम कालाउ ।। ३(?)
उ(तउ ?) तिन्निसए पणसत्तअहिए वलहीए सिलाइच्चा राया । वेसिद्धा पउ समावत्तो कह-वगयं पत्थियदिसाए अणारियचक्का चक्कीव गदाजपुरे रवलीवराया वीसलक्ख आइवे असीय लक्ख फारक वे भेग मागं देसाणूदेसं चलिया वहवे परि(पुर) पुट्ठण(पट्टण) सन्निवेसा रखया । मज्झिमपं(ख)डम्मि मिच्छिद्दिविरूवाइ दिसो दिसि गमिस्सई(इ) ।
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[37] मूलत्थाण-विज्जनाह -चक्कपाणि-सूलपाणि-सारंगवाणिणो दाहिणी(ण)दिसं गया । पलाया असुराहिवई । वलहीए आसो पुनिमाए आरब्भ छम्मासं ठियं । रयण माणिक्करहा समुद्दपइट्टा । सोवनिउ रहो सिरिमालं पइट्ठो । अन्ने वि वहवे जिणिंदा सम्मद्दिट्ठि गया देवया देव(?)गगणतलंमि उप्पइया विविहट्ठाणेसु । बहवे देवया आएसदाणेणं पायालं पइट्ठा । विमलगिरितित्थाउ सम्मदिट्ठिदेवयाइहिं निद्धाडिउ। ........सयलपट्टणाई ॥ चंदेरी भग्गा । भवा वि(?)उज्जयंतसेलसमीवे ठिउ । - मलदेवयाए कालं मेह भेउ । मेहनाह निद्धाडिउ ।
गुज्जरदेसंमि ठियस्स असुरोह - कहं सुरा । ई(इ)उ य भव्व( ? )वरपट्टणे सोवनपडिमा देवयावसेणं पायालविवरप्पवे-हीअ अतुलियबलपरक्कमाए वद्धमाणपडिमाए वालणच्छंखलीवराउ(?) पडि - तरे सहस्स ल बंभसंती उहिनाणोवउगा(गे)णमानाऊण चक्क - राइसत्थेण ताडेइ । पलाउं लवणभूमीइ पडिउ। सेसो खयं गउ । जमुणा रहं छड्डो । इत्थ तरे उलखउर अहिवई खुरसाण तुरयलक्खदससंपडिट्ठडो (?) व(त)क्खसिला पडिभंग काऊण आसमुदं पुव्वपच्छिमदाहिणादेसचूडणेणं ।
इत्थंतरे महावीरतित्थे जोयगरा सम्मद्दिट्ठिणो निद्धाडिस्संति । पंच्चतं देद(व)या(?) पसग्गो नियदेसा एसो का ----- तस्स सत्त संतइ पउमा तन्ना समदिट्ठिणो खया । सत्तसयकुहा- उसग्गे किन्हअमावासाए नियसत्थेणं कालं गमिस्सति । कुसुमवुट्ठी । धणयसमागमो महामहिमो सुमुहुत्ते विसेसेणं । गईउया(?) । कारशरदेसाहिवडे महुराइमज्जदेसमज्जगउरयगेउरं दंडेइ लच्छिचउक्कंतु गिन्हई । सोद्धायाइ सच्चं भजेहा(?) । सद्द ऋण(?) मज्झगउ ।
संपत्ते सद्दउरे पंचायणसद्दविद्दाणो । खरनहरफरिसहत्थो पुव्वत्थलक -महिगोलो ॥ संखुईजह कवलण विप्पुरिहमहो जपइ सिंहो । पलाईया सव्वे उत्थाल - सद्दो ॥९॥(?)
घो[सि]--याणि मंगलतूराणि भ-[ग]वउ निव्वाणगल(त)स्स वाससहस्सेमा-वस–से ॥
इत्थंतरे गउडदेस से) वेस जाजउर राया म( ग? )यवई महाबलो—हासतोसि -लपट्टण छम्मासे सत्तकोडिकंचणसयाणि दंडी(डि)ऊण सव्वउ-हकरेइ । कह
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[38] पडिमा नाऊण चेईहरे खणणत्थ वारंतस्स को- -पंचायणे गुलगुलंती हा गयणयलं उप्पडितो सयुहमवडिउ(?) भंजिसइ गयवइदलं । गयवइ वेसरो सम्मुहो। उद्धट्ठमाणो कीलिउ सत्तदिणे, अट्ठमदिणे नमंसिऊण भत्तीए सट्ठाण(णं) गमिस्सई । अन्ना इउ य सट्ठाणगएण वीरपडिमा कारिया पूईया य । तत्थ वि अंबवणे - सती वाविउ ।
इत्थंतरे दाहिणनरिंद(दे)बहवे सिरिमालपट्टण पट्टणाया -रपुरम्मि तिलंग -चवड-लाङ-रटुउडहिवा बहवि य बला नमंसिउ —। इत्थंत[रे] कन्नउज्जनरिंदो सोमसंभू अरिहंतपडिणा(णी)उ नम्मयाइ पज्जंति जिणसासणं(ण) पडिणा(णी)उ गोविंदारियेहिं सच्चउरट्ठाणे सिरि वद्धमाणविज्जाए निद्धाडिउ ॥ ई(इ)उ य । इत्थंतरे
सिसर(सिरि) कन्नउज(ज्ज) सामी, नाहडराया तहेव विक्खाउ । सम्मद्दिट्ठी[ए]सो पभावगो हुज्ज तित्थस्स ॥ तउ आमराय पुत्ता धूमरायप्पमुहा अणारियत्तणं पत्ता । बहलीमंडंव खुरसाणगज्जणं भुज्जई अहियबलो । दूसम वारुण वट्टइ अणारिउ जणवओ सव्वो ॥ १ ॥
बहुचोर चरडस(सं)कुल-उवद्दवे जणवए वि सव्वे वि । मेयं सट्ठा(ट्ठी) वरिसाउ सुरपुज्जं ।
इत्थंतरे अज्जखउडारिया सच्चउराउ विजा(ज्जा)सिद्धा भेरवाणंदो जालंधरम्मि महाभैरवी विज्जावोला(वलो) सम्मदिट्ठि समणोवासगाण वाणमंतरो उवसग्गे करेइ । सत्तं(?)कयं वारसवरिसा । तउ अज्जसिद्धसिरसा चाउवनसमणसंघजत्ता सिरिमालपुराउ अट्ठाहियामहिमं कुणंतो संति घोसिऊण उग्घडिउ वीरपुरम्मि । छमासे साहिए सिद्धविज्जो भेरवाणंदो आइट्ठीए आनिऊण मुक्को निग्गहिओ । सो वि वाणमंतरो ऊसवो कउ पुणरवि सच्चउरंतिय । इत्थंतरे चयसअभिहाणे गहियपुरो ॥१३॥
__पवेइ(य चेइ ?) हरमज्जे ठि(?) पुष्कल वदुच्च गज्जनाणेण च विणारिहंतेण(?)निद्धाडिउ । अणसणी(णे)णं ठिउ, वच्च(द्ध ?)माणभत्तो ॥ १३ सिरिवीरतित्थ व सच्चवउरतित्थं मियं(द) सट्ठीवरिसाउ सुरपुज्जं ।
इत्थंतरे हत्थिणाउराउ विज्जासिद्धो भैरवाणंदो जालंधरम्मि महाभैरवी विज्जाबलो सम्मदिह्रिसमणोवासगपडिणीउ वइरिपुज्जो(?) ।
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इत्थंतरे हत्थिणाउराउ विषाट्ठाणपुर अरिहसासणघोरविज्जाए कण्ह अमावसा[ए सु] साणम्मि निच्चं हुणणं करेइ । विज्जं साहितो सरिसवेहिं होमं करेइ । इत्थंतरे अज्जखउडारिया सच्चउर रे) से साहिए सिद्धविज्जो भैरवाणंदो आइट्टाए आ(अ)इ निऊण मुक्को निग्गहिउ । सो वि वाणमंतरो उवसग्गे करेइ । सुनकयं वारसवारिसा तेउ अज्जसिद्ध --चाउवन्न समणसंघजुत्तो सिरिमालपुराउ आगउ । अट्ठाहियामहिमं कुणंति संति घोरि(सि)ऊण अग्घीदउ वाणमंतरो ऊसवो कउ पुणवि सच्चउरं ठियं ॥
इत्थंतरे –अभिहाणे गहियमुग्गरो !! १३५० चेईहरमज्झे ठिउ । पुज्जा(क्ख)लवट्टव्व गज्जमाणेण व विणारिहंतेण(?) (ठवणारिहंतेण?) निद्धाडिउ। अणसणेणं ठिउ वद्धमाणभत्तो ॥ १३ ॥
सिरिवीरवि(ति)त्थहालणे(?) पडिणीए सिद्धराय-पवणराए विक्कमक(का) ल ८६० तिन्नि दिणे जक्खेण कीलियव्वं । भए जाए । तउ ग(न)मंसिऊण गमिस्सई ॥१४
वाउड वसुभवे सजोगराए य दुट्ठचित्ते य अ -ए दहणकाले सो चेव य डज्झमाणो य संतो विणीय हिउ नमंसिही वद्धमाणजिणतित्थं ।
अत्थमियबलो य व लोय भयव(व)सच्चउरे जय[उ] वीरजिणो ॥१५।। अह उद्धर ईसाणे कासीअहिवो महिंदसीहो य । वेयालबलेण पुणो महाबलो हिंडए भरहे ।।
मालवदेसं भुवंमि -_-- पत्तो गुज्जर मलदेसाई । भंगं काउं पुणो वि सच्चउरे द(दु)द्धरिसदणव(?)- —जक्खराउया अट्टहास(सं) कुणतो अणा। से सहसभुओ हिक्का-खं - कुहाडो पणमिऊण वावास पसच्च(?)तित्थ पडिणीउ गुज्जरभंगं करि(रि)तो ईसरविहुलिंगाइवाहणसीलो सो(स)च्च[ उ]र आसन्नपएसे फुट्टनयणो जक्खराएणं सद्दाविउ- "मए नाहस्स पडिणीउ वि करुणाए मुक्को" | बलाणगविधं काऊणग- --- राया वि पुणो देवसहस्से वि(हिं ?) परिवुडं वीरं विम्हियहियउ कालियदंडो मासिही सिग्घ ।-लोगुत्तरजिण चेईय विद्धंसणे हेउ दिन्हराउत्ति लोईय अग्गी धूमेणं कालवयणुत्ति ॥.....जिगराया वि पुणो किती(?) नयरी य सामिउ पबलो आइच्चभत्तवि(चि?)त्तो । आयइदुटुहियउ य सिंहदुगं गज्जंतं पु(प)प्फालिय गयणचक्कभग्गहेऊ सो वि पलाउ ठाणे ठाणे वीरचणजुत्तो ॥२०
इउ य कोलापुरे महालच्छीगणकंवा । त्यासो ? राया। तस्स सुउ नरसिंहदेवो
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[40] राया । तस्सावि सुउ सिंहं हणा(णि)ऊण सिंहविक्रमदेवो छत्तीसलक्ख कन्नउजरायमेहापरबलो परमारवंसुब्भवो । सो वि तित्थ -लिउ सिरिवद्धमाण(णं )सच्चउरे चलियकुंडलाहरणो । दव सयं -मंगलतूररववह(वहि)रियं व(ब) भंड(ड) पिच्छिऊण जलपुहुत्तउज्जंस(?) -वा । सो वि गुज(ज्ज)रसं(खं )डं भूयडस्स दाऊण पडिनियत्तो । जयउ वीस(रु)त्ति विक्कमाओ मन्नेण देसाहिवो आसलक्खडगजुत्तो रुद्दज्झ(1) ण परो गउडाइदेसतिलिंगवगाहं भुंजणपरो चाउवनविद्धंसणोच्छुरय(त्तुरय) खुरु च्छलियरेणुगयणयलो हक्किउ जक्खेणाइ जूलंति आसंपुच्छाई(?) हत्थीहि म व (च ?) चइ तुरएहिं न चलइ सुहडो हि न-इ । धवलेहिं कि(किं) पि वालिही अ(अं ?)गुलं गिन्हिऊण सद्धाण कडमाणपुरे । (?)
तत्थ घोरअंऽधयारनिसापलायणपहुणे गहिय कट्ठज्झु(ज्झ) यहत्थो वेत्र(विनवे)इ। बंभसंति जक्खरायेण दंडेणं ताडिउ । त अ(अं?)गुलि गिन्हिऊण हम्मीरराउद(दं ?)डप्पणामेणे वरिसेणं आगउ वद्धमाणं णमंसिऊ[ण] गिन्हिऊण गउ नियअंगुलं वि दावेह । तस्स पुत्ता वि एवं करिति । केहि वि न करिस्सते(स्संति?)तउ कडमाणपुरं रयत्थलं । वर(?)
इउ य मालवराया वाराणसीराया सिरिमालविद्धंसणट्ठाए गच्छमाणा आसायणं करेंता भगवउ वद्धमाणस्स निविडवंधण वु(ब)द्धा आरसंता नमंसिऊण पडिगया २२ । मालवराया मा - पक्खवसाउ(?) गुज्जरदेसपड(डि)णीउ सच्चउरप्पएसे खडियकवालो(?) कालं गमिस्सही ॥२४॥ इउ य-दुल्लहराया वि सिरिमालपुरे देवरायर यं) हणिऊण वेलंविदणकरणजुत्तो(?) लाविआणीया(?) छम्मासे जाव सच्चउरे वद्धमाणनमंसणं काऊण सटाणं गउ ।।२५।। विक्कमओ १०२९ । विक्कमउ १२४७ इयच्छिय - णाउ(?) । चेउ(?) दस दिसु । उत्तरेहि आसवई निद्धाडिउ ॥२६॥१४२६ । चउदस बत्तीसे मालवराया पलाणं कीरिह ॥२७॥ १५१८ ॥ पनरसएहिं अट्ठारसेहि आसवईभंगो । १५७० पन्नरससएहिं सत्तरिवासाहिएहिं आसर्वकविलो सव्वदेवविद्धंसणो बंभसंति जक्खराएणं विद्धाडिसही(स्सिही) मिच्छत्ततित्थाई । सव्वतित्थाणं पडिणीउ पग चेन्न(?) करितो वि भगवंतं पूइस्सइ ॥२९।।
इउ य सोलसवाससए एगूणवीसहिए पहद्वा(पइट्ठा ?) कालाउ एगूणवीससए सोलसअहिए पाडलिपुत्ते नयरे चडले(चंडाल)कुले मेगद(मगह)रायस्स अंतेउरी चित्तवइअट्ठमीए वुट्ठीए(?) कलंक्की जाए । तम्मि दिणे महुराए महुमयणभंगो कन्हस्स भंगो वारवईए सु भंगो ईसरलिंगेसु हुयवहो सिद्ध-जक्ख-देवयाण पडिणीए
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[41] समण[भ] त्तपाणं अपवित्तं । विमलगिरि-रेवइ(य)-सच्चउर माग(मा)इएसु तित्थेसु सम्मिद्दिट्ठिपभावेणं अभंगं पूइअ अवणिज्जं । कक्कि तामबद्धरिसिप(य ?) दियआसाण आरुहा(हि)ऊण पावाणुवंधिपुनस्स उदएणं तु पच्चक्खो श(बा ?) रसवरिसा एगच्छत्तं काऊण आरिय-अणारियाणं । सोहिऊणं पाडलिपुत्ते नयरे एगच्छत्तं काउं तिन्नि वा(व)रिसाणि जाव तउ पवेसो दे(दि)?माण पूयाविस्सई नियप्पभावेण । सो वि सव्वदंसणपरिव्वायगपडिणीउ करभ भो निप्पीलिय जण चउंवि कया वि(?) बुद्धट्ठिय लोहसमुद्दो सव्वदंसणा(ण)रिऊ सव्वपुहविजिहाण(जीवाण) संगहसीलो वि अरिहपवयणअकारणरिऊ वाऽएसु भिक्खबद्धसभाए सक्को चलियकुंडलो(ला)हरणो पढमविप्पपइडियावय - णिय(?) पच्छा चुलसी सव्वाऊ चित्त बहु[ल] अट्ठमीए भासरासियम(ग)ह पज्जंते । गावीरूवं अन्नह उव्वाहए सयाउत्ति । - ब्भीहंति कुलि(लिं)गा चोरेहि एया विलप्प(प्पं)ति ॥१॥
राया ऽमरेहिं दलिया गामा होहिंति नाम मित्ताउ । तस्स उदाएणं भरहं होत्था । वहुपक्खपडिवत्तं । हिंडंतो दट्ठण पव वि थूभे वनंददव्वस्स(?) । जाणित्ता खं णिज(ज्ज?)णथूभे तलेहिहा दव्व(व्वं) । पासंडो फेडिहा भजेहि करेहि साहु पुण भिक्खपावोहभोगवतों वीरहिडेवया तइया । वुच्छाहीपुरसच्चसाणेणंगगेरुप्पवाहेण । सत्तरसउ तत्थ दिणे मेहो वासिही निब्भंतं । साधणपरियणसहिउ बालसिवदवाणिकयनिचउ पुणरवि सो साहूण गोवाऽमिरोहणं कारेऊण मग्गिही भिक्खभागं अइवुद्धो पावपवुच्चो(?) आइरिउ महघ पाडिवउ सकप्पववहाछार(हार)जउ काउसग्गेणं पुणो सक्केणं धाडिउ वेन्तो(?) सिरिवीर भत्ती हज्जा कक्की मिद्धाडदंउउत्थिलि(?) जय जय जय सुगंधवासविसुद्धववन्ने सुवन्नाइवुट्ठी इक्खागुड वे दत्ते राए महाबले महासम्मदिट्ठी ।
पसरियजिणसासणप्पभाए एगच्छत्ताअरुहधम्मे दत्ते एगीभूए अरिहदंसणे खयंगए मिच्छत्ते । दत्तो य पइदिणं चेइहरं अहिणवं करिस्सइ । सव्वतित्थेसु पहावणे(गे?) सच्चउरे वद्धमाणजिण जम्म सिही(?) उक्किटुजिणालया तत्थ वि मिच्छादिट्ठिणो वहवे प्पडिवित्ता व(ब)भिया-परिव्वायगा गहवयणा ।।
तइया इंदुवयारा, दिने धम्मस्स ग-यमाहप्पो । बहुलोउजिविणभत्तो, काही साहूण पूयाउ ।। सो दत्तो महाराया, काही जिणभुवणमंडियं होहा(ही ?) । सेय अवहीउ ससाणो होहिंति सुव्वइणो ।
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[42] तम्मि दिणे हेममयी पडिमा पच्चक्खया य पूइज्ज कंचणमणिआहरणेहि सोहियं ।
वीरजिणवण(?) सच्चउरे पुरहाणेए पभावग्गा धम्म मुयउ(- -) वला चउदससद्धे सोलसद्धे च तित्थयणरकया(?)। जिन्नुद्धार नूणं काही सो पुत्रचंदसिद्धीया। दुसहस्से चउ पंच य नव सहकारेण विति । विवहरणे किं तहावे समाणए सुद्ध करिस्संति । विमले दत्ते वि हु स चारुदत्ते वि तं बिंति ॥२
दत्तसुउ जियसतू होही तस्स नियमेह घोसन्ति । सच्चउरा वीरजिणं विसेसउ विणयत्तयणयं ॥३२॥
इत्थंतरे ॥८१९ वियकंते मगहारिहिवइत्थपएसेणोयणालाणो ॥३४ इग इगवीसहए सद्धि पडेलि दुन्ने नरिंद पउमत्ति(?) । आव्वइहा इगचिते दुढे विहसंतवेत्थ वि ॥२५॥ चउरो सहसअहिए जियसत्तु नरवरो वि दुढे वदंडोहसच्चदेसे जक्खेणं ताडए सिग्धं ॥२६॥
वासट्ठारससहसे अइक्कंतीसु छठ्ठीए ।
अणपन्निय पणपानिय कयपाडिहो(हे)रविहियनिच्चमंगलरवे । पयडिय अणुदिणुमहूसवो वा(ठा?) विही ताव उसप्पिणीए दुसमसुसमाए वियवंताए दुसमाए गए दुसमसुसमाए सिरिपउमनाहतित्थे सम्मदिट्ठिदेवयाभिउगा(गे)णं पयडिज(ज्ज)ई विसेसउ । पुडलतित्थे धम्मट्ठच्छेए अणारिए वि पूइज्जई ॥२७॥
ति(त)त्थ अणारिए वि पूम(य ?)णं । एवं मिच्छद्दिट्ठि परिवीय ना(?) (परिवायगा?) ॥१०॥ नमंसिऊण गया ॥५७॥ दो वि मिच्छत्तचक्किणो तित्थपडिणीयाभा सद्धिया एव ॥५८।। सम्मदिट्ठिजक्खेणं परा पूआ सोमन्नाणं सक्कि(?) तित्थेसरेनिव्वुए तित्थवुच्छेए अणायरिए वि पूयणं ॥५०॥ सुव्वयतित्थे ॥५१।। अममतित्थे ॥५२॥ एवं सव्वे ॥६०॥
न सखं(संख) बेमि जा साहरम्मि तित्थगरे सुक्खपूयट्ठज्जाए(?) एवं सपुहुत्तविसेसउ अतुलियबलमाहप्पविसेसिउ जयइ वद्धमाणोत्ति । एवं सुणिऊण नाहडराया हरिससारनिब्भरो सट्ठाणं गयउ। तिकालजिणच्चणपरो अन्नावतित्थाई फासंतो जिणसासणपभावगो सिरिगुणसुंदरसमक्खं कयअणसणो सुगइ(इं) पय(गओ ?) । सरु(रू)वा त(ति)त्थस्स माहप्प(प्पं) ॥
पढमाणुउग्गे सोलसमज्झयणं ॥ छ ॥ छ । शुभं भवतु ॥ छ ।
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श्रीआनंदमाणिकय-रचित श्रीनवखंडा-पार्श्वनाथ-फागुकाव्य
संपा. आचार्य प्रद्युम्नसूरि विक्रमना सोळमा शतकना उत्तरार्धमां थई गयेला, तपागच्छनी लहुडी पोषाळ शाखाना मुख्य आचार्य श्रीहेमविमलसूरिजी महाराजना शिष्य श्रीआनंदमाणिक्यनी आ रचना छ । संस्कृत फागुकाव्य आमेय ओछा मळे छे, तेमां आ फागुकाव्य तेनी मनोरम प्रासादिकताना कारणे विद्वानोमां जरूर आवकारपात्र बनी रहेशे.
आ पहेलां 'अनुसंधान' -३मां त्रण संस्कृत फग्गु पं.श्री शीलचन्द्रविजयजी संपादित प्रकाशित थया छे. ते पहेलानी आ रचना छे. तेथी संस्कृतमां आवा प्रकारनी गेयरचनानी परंपरा घणी जूनी गणाय. आम तो आना आद्य प्रयोजक 'गीतगोविंद'ना कवि जयदेव गणाय छे. आ रचनानी शैली रोचक अने अत्यंत प्रासादिक छे. कुल छव्वीस पद्य छे. वर्णानुप्रास अने शब्दानुप्रास तो तमाम पांचे पांच गेय रासकमां जोवा मळे छे. अरे ! बीजा रासामां तो खरी खूबी करी छे. शृखंलायमक सफळ रीते प्रयोज्यो छे. अने छट्ठा पद्यमां-शार्दूलना एक पद्यमां जे भाव गंथ्यो छे ते भाव विस्तत करीने ते पछीना रासामां गेय चार कडीमां ते वर्णवे छे. ए भाव स्तुति-स्तोत्रमा सुपेरे वारंवार गवायो छे. छतां अहीं ते ताजगीभर्यो लागे छे. सोळमा पद्यमा जे भाव भर्यो छे ते अन्यत्र मळे छे. आ भावनुं एक गुजराती पद्य पण प्रचलित छ :
"जे दृष्टि प्रभुदरिसण करे ते दृष्टिने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवरने स्तवे ते जीभने पण धन्य छे । पीये मुदा वाणी सुधा ते कर्णयुगने धन्य छे,
तुज नाम मंत्र विशद धरे ते हृदयने पण धन्य छे' ॥ आ पद्यमां पण आम तो कोईक संस्कृत श्लोकनो अनुवाद मात्र छे. कुल पांच रासक छे तेमां चार रासकमां चार चार कडी छे त्यारे पांचमा रासकमां त्रण कडी छे तेने त्रिपदी ज कही छे. पांच काव्य छे ते बधा शार्दूलमां छे. मंगलनो श्लोक द्रुतविलंबित वृत्तमां छे.
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कर्ता श्री आनंदमाणिक्यनी आ रचना जोता तेओनी बीजी रचना पण होवी ज जोईए. तेओ श्रीना एक गुरभाई श्री जिनमाणिक्यनी रचना मळे छे. 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' मां नोंधायेली छे.
ए
आ रचनाने प्रभुभक्तिमां अनेक भक्तजनो कंठशोभा बनावशे तेवी आशा छे. आ संस्कृत फागुकाव्यनी हस्तप्रत श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिर (पाटण) नी छे.
॥ श्री नवखण्ड- पार्श्व-स्तवनम् ॥ विपुलमङ्गल - मण्डल - दायकं, जिनपति प्रभु -पार्श्व-सुनायकम् । सकल-संपद-वृद्धि- विधायकं, नमत रूपरमा - सुम- सायकम् ॥ १
रासक कमढ - महासुर-मद-भर- भंजन भविक - जनावलि - मानसरंजन । खंजन नयन - विशाल तु, जय० ॥ २ (छन्दस्त्रिपदी)
X X
X X
श्री अश्वसेन - भूमिपति- नंदन चंदन - शीतल-वाणि तु, जय० ॥ ३ असम-संसार- पयोनिधि-तारण विषम-गहन-गति - नरक-निवारण | वारण - कर्म - महीने (?) तु, जय० ॥ ४
निरुपम - सकल - महागुण-धारक सेवक - लोक-समीहित-कारक । तार- कला - कालितांग तु, जय० ॥ ५
काव्यम्
पातालाधिप-शेषनागवदलं जिह्वा - सहस्र - द्वयं,
वक्त्रे स्यादपि यस्य बुद्धिरतुला जीवस्य तुल्या तथा । सोऽपि श्रीजिन पार्श्वराज तव यान् स्तोतुं भवेन्नो क्षमः, संख्यातीतगुणानहो जड - मतिः स्तोष्ये कथं तान् प्रभो ! ॥ ६
रासा डुढक
रसना - विंशति - शतं यदि वदने, वदने वचन - विलासं रे । नागाधिप इव भवति निकामं कामं कर- सोल्लासे रे ॥ ७ देवसूरीश्वर इव यदि हृदये, हृदयेश्वर सुविकाशे रे । विलसति विमल - मतिर्जन- जीवन, पीवन तव गुण दासे रे ॥ ८
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[45] यदि बहु-सागर-जिवित-मानं, मानद भवति संसारे रे । अमर-नायक इव धन-धन-सहितं, हितकर भव-दव-वारे रे ॥ ९ ॥ तदपि तवामल गुण-गण-राशि, वासित-भुवन-विचालं रे । नोतुमलं न भवामि हि जिनवर, नव-रस-सरस-विशालं रे ॥ १० ॥
काव्यम् श्रीसर्वज्ञ जिनेश तावक-लसत्पादारविंद-द्वयं, प्रातर्यो नमति प्रभो प्रमदतो लक्ष्मी-विलासालयम् । प्रीति-प्रेम-वशादवश्यमवशा सेवेत सेवापरा, पद्मा पुण्य-परंपरा-पर-नरं तं सर्व-कालं-कलम् ॥ ११
अद्वैआ कमला-केलि-निवास, शम-रस-विहितोल्लास । वासव-निकर-पते, जय जय विमल-मते
रे जिन जय जय विमल-मते || १२ वामादेवी-जननी-जात, प्रभावती-वरयति तात । सुख-कर-विनत-जने, चरण-पवित्र मुने ॥ १३ जिन० २ मोहन-वल्ली-कंद, निर्मित-नयनानंद । सुंदर सदय-मते, त्वयि मनो मे रमते ॥ १४ जिन० २ उपशम-रस-भुंगार, जगती-युवति-शृंगार । शं कुरु मे भजते, भव-सागर-विरते ॥ १५ जिन० २
काव्यम् वाणी सैव मनोहरा ननु यया त्वं गीयसे नित्यशः, श्लाध्या दृष्टिरियं यया च नितरां त्वं दृश्यसेऽहर्निशम् । हस्तः शस्ततरः स एव फलदो यः पूजये त्वां जिनं, ध्यानं धन्यतमं तदेव सुखदं यस्मिन् प्रभो त्वं भवेः ॥ १६ ॥
॥ फाग ॥ विषम-महारस-पूरित, दूरित-धर्म-मति । शरणागतमथ मां जिन, अवृजिनं कुरु सुमतिम् ॥ १७ ।।
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[46] मदन-महोरग-सुविषम, विष-मल-भरित-हदं । त्वं जिन-नायक मां प्रति, संप्रति दिश सुपदं ॥ १८ क्रोध-दवानल-कीलित-, मीलित-नयन-युगं । कुरु वचनामृत-पोषण-, तोषणतः सुभगम् ॥ १९ लोभ-प्रलोभक-वंचित-, लुंचित-धर्म-धनं । मामथ जिनवर पालय, लालय सर्व-दिनम् ॥ २०
काव्यम् त्वां येनाथ नुवंति सादरतया, निंदंति ये पापिनस्तेषां वांछित-संपदं च विपदं, घोरां ददासि स्फुटम् । नीरोगोऽपि गत-स्पृहोऽपि विगत-द्वेषोऽपि संगीयसे | विज्ञैश्चित्रमदोऽथवा हि महतां, माहात्म्यमीदृग्विधम् ॥ २२
त्रिपदी शृंगार-सकला नारी सौभाग्य-सुंदरी रे, जाने वर-सुरी रे ।
अभिनव-यौवन-हरि-दरी रे ॥ २३ कुच-भर-नमदंगी सुरंग-नीरंगी रे, प्रेम-पुष्प-शृंगी रे,
विरचित-मृगमद-भंगी रे ॥ २४ शील-शालि-सदाचारा सततमुदारा रे, सुधर्म-विचारा रे ।
जिन-गुण-गान-सुतारा रे ॥ २५ आनंद-पूरित-बाला तव सुम-मालाभिः, विविध-विशालाभी ।
रचयति पूजां वर-कला रे ॥ २६
काव्यम्
एवं संस्तुति-गोचरं जिनवरं नीत्वा गुणैर्भासुरं, त्वां श्रीमन्नवखंड-पार्श्व सुतरामेकं नु याचे वरम् । देया मे गुरुराज हेम-विमलं त्वं सर्व-सौख्यास्पदं । ज्ञानं मान्यतमं महोदय-मना आनंद-माणिक्यदम् ॥ २७
इति श्रीनवखंड-पार्श्व-स्तवनम् ॥
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आगमगच्छीय आ.श्री जिनप्रभसूरि विरचित
अपभ्रंश-भाषा-बद्ध वज्रस्वामी-चरित
सं. रमणीक शाह
ईस्वी. १३मी सदीना उत्तरार्धमां थई गयेला आगमगच्छीय आचार्य जिनप्रभसूरिए उत्तरकालीन अपभ्रंश भाषामां रचेली अनेक लघु कृतिओ पाटणना
जैन ज्ञानभंडारनी ताडपत्रीय हस्तप्रतोमां संग्रहायेली मळे छे. एवी एक कृति 'वयरसामिचरिउ' (वज्रस्वामीचरित) अहीं प्रथमवार संपादित प्रकाशित थाय छे.
___ पाटणना संघवी पाटक भंडारनी नं. ३११नी ताडपत्रीय प्रतमां १७मी कृति 'वयरसामिचरिउ' पत्र १२४ थी १२९ सुधीमां लखायेली छे, ते परथी लगभग वीशेक वर्ष पूर्वे में करेली नकलना आधारे प्रस्तुत संपादन कयुं छे. कृतिनी बीजी कोई हस्तप्रत मळती नथी.
आ. जिनप्रभसूरि आगमगच्छना आचार्य हता. तेमना गुरुनु नाम देवभद्रसूरि हतुं. आ देवभद्रसूरिए सं. १२५० (ई.स. ११९४)मां अंचलगच्छनो त्याग करी नवो आगम या त्रिस्तुतिक नामे ओळखातो गच्छ स्थाप्यो हतो. आ. जिनप्रभसूरिए प्राकृत, अपभ्रंश अने प्राचीन गूर्जर भाषामां घणी नानी नानी कृतिओ रची होवार्नु जणाय छे. तेमनी कर्मभूमि गुजरात होय तेम लागे छे. तेमणे केटलीक कृतिओ शत्रुजयगिरि पर रहीने रची होवानी नोंध छे. तेमनी रचनाओमां केटलीक प्रकाशित थई चूकी छे. ज्यारे घणी हजु सुधी अप्रकाशित छे. तेमना जीवन विशे अन्य कई सामग्री मळती नथी.
प्रस्तुत काव्यमां सरळ अपभ्रंश भाषामां कविए श्रीवज्रस्वामीनुं जीवनचरित गुंथ्युं छे. भाषामां तत्कालीन गुजरातीनी प्रबळ असर ध्यान खेंचे छे.
१. आ.जिनप्रभसूरि अने तेमनी कृतिओ माटे जुओ- संधिकाव्य-समुच्चय, संपा.
र. म. शाह, प्रका. ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर, अमदावाद, १९८०.
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[48] सिरि-जिणपहसूरि-रइड
वयरसामि-चरिउ नमवि जिणवर निज्जियाणंग, छत्तीस-गुण-गण-पवर- सुगुरु-चलण पणमवि सुभाविहि, धम्मु जु जीवह दय-सहिउ सयल-सुक्ख-दायगु सहाविहि । चउविह संघ वि सुर-महिओ, मुत्ति-निअंबिणि-हारु । वयरसामि-सुचरिउ भणिसु, भवियण-मंगलकारु ॥१॥ अत्थि इह नयर-वरु तुंबवणु अवयंती-देस-मज्झारि । तहिं वसइ धणगिरि इभ्यपुत्तु तसु सुनंदा वर-नारि ॥२॥ तुम्हि निसुणउ भविक-जन, वयरसामि-चरित्तु ॥ जसु अट्ठावइ देव-भवे, गोअमि दिन्नु समत्तु ॥ तुम्हि०
[वस्तु] अन्न-दिवसिण नेह-पडिबद्ध, धणगिरि निय-पिअयम भणिय मुज्झ चित्तु भोग अमिल्हइ, पेक्खेविणु आरंभ घणु, निरय-तिरिय बहु दुक्ख सल्लइ । एउ निसुणेविणु वय-गहणि, मई सुंदरि मोकल्लि । जर-रक्खसि निय-बलि सहिअ, आवइ अज्जु कि कल्लि ॥३॥ तुम्हि० कर जोडवि सुनंदा भणए, आसा-लुद्धि अन्नाह । पुत्त-जम्मु पडखेसु प्रिय, सामिअ म करि अणाह ॥४॥ तुम्हि० पढम-जोवणि तासु वर-घरणि, गय-गामिणि ससहर-वयणि रूववंतु निअ-तणु वहंतीअ । मिग-लोअण पिअ-वयणि पिउ भणइ बालु करुणं रुअंतीअ ।
अग्गइ बंधवि वउ लइउ, सामीअ तउं म-न लेसु । निअ-कुल-कमला-केलि-करु, पुत्त-जम्मु पडखेसु ||५|| तुम्हि० जणणीअ कुक्षि-सर-रायहंसो, देवलोगाउ ऊवन्नु । तउ धणगिरि सुकलावि दीख, सीहगिरि-पासि पवन्नु ॥६॥ तुम्हि० सुनंदा पसवए पुत्त-रयणु, रूव-लक्खण-संजुत्तु । सहीअ भणइ जइ जणकु हुंतु, जम्मूस्सवु कारिंतु ॥७॥ तुम्हि०
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[ 49]
सुणवि एउ वयणु जसु जम्म-काले जाईसरणु संपत्तु । पिय-पासि लेसु वउ धरीउ चित्त माइ लूणइ(?) रोअंतु ।।८।। हालरू हालरू बालपणे संजमु जिण धरिउ सुनंदा-नंदणु धणगिरि-कुल-मंडणु ॥ हालरू०
वस्तु गोअर-चरी चलिउ धणगिरि, अज्ज-समिति संजुत्तु । सउणि जाणीउ भणइ सीहगिरि लेउ तम्हि सचित्तु अचित्तु ॥९।। हालरू० पत्त सुनंदा-भवण-मज्झम्मि, रोअंतउ उच्छंगि ठिउ, लेवि पुत्तु तसु प्रिय समप्पइ । करवि सक्खि नर-नारि-गण, हास-खिड्डि धणगिरि सु घिप्पइ । पिय-पासि आवीउ मुणवि, हसइ सु पमुइउ बालु ॥ संजम-सिरि-उक्कंठ-मणु, मोहराय-खयगालु ॥ १० ॥ हालरू० हासई पुत्तु आपेविणु, देइ सा मुणिवर दाणु । साहु जं गहिउ तं मुअइं न हु, अमुणंतीअ निहाणु ॥११॥ हालरू० लेवि मुणिवर पुत्त-वर-रयणु, संपत्त सुह-गुरु-चलणि, भारु भणवि गुरु-हत्थि धारीउ ।
आणिउ इह किं वज्ज-वरु, तासु, रूवु लक्खणु निहालीउ ॥ जिण-सासण एउ उदयगिरि, उग्गिसइ वर-भाणु । सावय-कुलि संगोवि करे, पालिज्जउ सु निहाणु ॥ १२ साहु चरित-पासाय-धर, मुक्क सो सावय-भवणि । रंगिहि धूअ वहूअ भलावए, आपण एउ तारण-तरणी ॥१३॥ हालरू० सिट्टि सुनंदा पुत्तु मग्गेइ, अलहंती रोअंत तर्हि, पाइ खीर पन्नहइ झरंतिहि । सव्वि वि महिला मिलवि तसु, कुणइ किच्चु न्हाणाइ भत्तिहिं ।। छव्विह-जीवह रक्खकरु, वड्ढइ वयर-कुमारु । तईय वरसि गुरु-आगमणि, किउ राउलि ववहारु ॥ १४॥ हालरू० राउ बे पक्ख मेलवि भणए, मुझ पासि ल्हीऊ पूतु । तेडउ जणणीअ तउ जणकु, जसु पासि जाइ सो तासु पूतु ॥१५।।
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[ 50 ]
सूर - उग्गमि सीहगिरि
सुगुरु संपत्त
यह भवणि, संघि सहीउ नर - वर नमंसिउ | सुय - कीलावण णेग सउं, पत्त सुनंद बहु-लोअ दंसीअ ॥ वयर-कुमरु पिक्खेवि निवु, बइसारइ उच्छंगि ।
भद्दे तिहूअण - मणहरणु, हक्कारिसु बहु-भंगि || १६|| हालरू० संघि सउं नरवर को विवादो, जो दूच्छी आधारु ।
प्रिययम - बंधवि मूक निब्भागिणी, आपिऊ पुतु मल्लारु ॥ १७ ॥ तं आवि-न वयरकुमार ! दूक्खिणी दुखु वीसारि पूत ! तउं आवि-न, माडिय हीअइ आधारु देवु ।
तउं आवि-न सुनंदा पभणए, आवि वाछ ! खेलावणां गहेवि । माइ - मणोरह पूरि हेव, हिअडए नेहु धरेवि ॥१८॥ तउं आवि-न, पसव- कालि जं दुहु सहइ,
तंपि सयलु केवली मुणंतीअ । बालप्पणि सुउ लालतिय मंगल सयय करेइ । सो पुणु जणणीअ रत्ति - दिणु दुक्ख - लक्खु परि देइ ||१९|| तउं० कवणि न पावीउ मणूअ - भवो, कवणि न पावीउ सुक्खु ।
पुत्तु
सो सुपुरिसु सलहीअए, जणणि जु जाणए दुक्खु ॥२०॥ तउं० दुक्खि पावइ जीवु थी - जम्मु
दुहु बालीअ दुहु परणीअह, सहइ दुक्खु पीहर - विउत्ती ।
रति - दिवसु दुक्खिहिं गहीअ, करइ कम्मु पर मुह जुअंती ॥ दुक्खु अवच्चइ लालतीअ, एगागिणी सहेइ ।
जणणी - जम्मु सुदुक्खमउ, जिणवर वयणु कहेइ ||२१|| तउं० जई जिण - दीख तउं गहिअ - मणु, पच्छए लेजि ता पूत । अम्मा-पिअरि जीवंति वीरिं सा नवि गहिअ निरूत ||२२|| तउं०
वच्छ ! जणणी दीण विलवंत ।
दोहग्गे तु ग्गिय रहि, बंधु वत्त निग्गुण निलक्खण ।
आवि पुत्त गुणगण - पवर, मरउं नाम वर- रूव-लक्खण ॥ इय विलवंतीअ नेह भरे, जइ नवि रक्ख करेसि । हिउं फुट्टवि सा मुइअ, पच्छा सवणि सुणेसि ||२३|| तउं०
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[51] सुनंदा-दुक्खि बहु दुखिउ, एउ पिक्खिउ लोउ रोवंतु । वयर-कुमरु मणि चिंतवए, नयणिहिं नीरु झरंतु ॥२४॥ तउ० माइ महीयलि तित्थु सुपसत्थु, जं मनिं जिणवरिहि, गब्भवासि तिहु-नाणवंतिहि । कुमरत्तणि जो देव-गुरु नमिउ नेव तित्थयर हुंतिहि ॥ ते वि कयन्नू सिरि मउड, जणणी-चलण नमंति ॥ तिहूअण-लच्छि-निवासकर, विणय-धम्मु पयडंति ॥२५॥ तउं० राय बोलाविउ धणगिरि, पहु हक्कारि कुमारु । एह बे पक्ख पर वि पुण, लेसइ जं जगि सारु ॥२६।। तउं० माइ मन्नवि संघु अवगणीउ, तसु मत्रिण सा मनिअ वि, जेण सज्ज वर-नाण-गुण-निहि । संघिहिं मन्निइं जिण-भणिइं, तरइ जीवु संसार-जलनिहि ॥ इय चिंतवि मणु दिदु करवि, संघु पमाणु करेसु । जणणी पुणु मह नेह-वसे, लेसइ समणी-वेसु ॥२७॥ तउं० काऊण य रयहरणं, तस्स पमाणं तु धणगिरि-हत्थे । गहिऊण इमं सुंदर, लग्गसु जिणनाह-परमत्थे ॥ २८ ॥ जइ सि कयज्झवसाओ, धम्मज्झयमूसियं इमं वयर । गिन्ह लहुं रयहरणं, कम्मरय-पवज्जणं धीर ।। २९ ॥ तउ नरवइ-उच्छंग तुरि, ऊतरिउ वयरकुमारु । सिरि आरोविउ रयहरणु, जणि किउ जयजयकारु ॥ ३० ॥ पिखि पिखि प्रियतम दलि सहिउ, नाठउ जाइ मोह-राउ । बलि कीजिसु तसु वयरकुमर, जिणि संघह किउ उच्छाहु । पिखि० जीतउं चारित महाराजि जसु, जणणि-तणइ ववहारे । सदागमि सदबोधि मंत्रि, समकत्ति कीअ अमारे ॥ ३१ ॥ पिखि० पमुइउ संजमु सव्वविरइ, अनु पाणि-दया संतोसु । नाण-लच्छि संवर वरिउ, केवलसिरि हुउ तोसु ॥३२॥ पिखि० रायहिं पूइउ सयल-संघु, मह-ऊसवि वसति पहुत्तु । सुनंदा वउ लेउ सुगुरु-पासि, कीउ निअ कुलु जम्मु पवित्तु ॥३३॥ पिखि०
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समणीअ वसई सिट्ठि-घरि, गुरि मेल्हीउ कीउ विहारु । साहुणि पढती गार-अंग-सुउ, गिन्हइ वयर-कुमारु ॥३४॥ पिखि० अट्ठमइ वरसि जो गुरि सरिसो, नयरि ऊजेणि पहुत्तु ॥ देवि वेउव्वि नहगामिणी दिनी, परखीउ जसु चारित्तु ॥३५॥ भो भविओ तम्हि नमउ भाविहिं वयरसामि । जसु अणागत-चारित्तु पेखीउ, पणमीउ भद्दबाहु-सामि । भो भविओ रमीउ जु अप्पा-रामि । गामि गच्छंति गुरि मुणि भणिय, तम्ह देसए वायणा वयरु । धन्न ते सीस जे तह त्ति भणेविणु, मानिउं वयणु निय-गुरु ॥३६॥
भो भविओ० नाणु जं हुंतु निअ-गुरु-पासे, तं गहिउ ऊजीणि पुणु पत्तु । भद्दगुत्त मूली पढिउ दस पूरव, तउ दसपुरि संपत्तु ।। ३७ ॥ भो भविओ० तत्थ जिणहरि सीहगिरि सुगरि निअ पट्टि संठाविऊ, वयरसामि संपन्न सुअहरु । मिलिवि संघि देविहि विहीउ, गुरु-पमोइ ऊसवु मणोहरु । पंचसई परिवारि सउं, विहरइ पुहवि मुणिंदु । मिच्छ-तिमिर-निन्नासकरु, एउ अहिणवउ दिणिंदु ॥३८॥ भो भविओ० अइसय-लद्धि-संपुन्न-निहि, जम्मि देसम्मि विहरेइ । वयरसामि सोभागि आवज्जीउ, लोअ संखिज्जु पणमेइ ॥३९॥भो भविउ० कुसुमपुरि नयरि पत्त, वयर-सामि सम्मुखो राउ आवेइ । देसण सुणवि अंतेउरी साहए, सूरि परमत्थु पयडेइ ॥४० ॥ भो भविउ० सुणइ नरवरु बीअ-दिणि धम्मु, अंतेउर-पुर-वर-सहिओ भणइ, लोउ गुण रूवु नय हिउ मणु तेसिं जाणेवि गुरु, कुणइ रूवु साहावि सुरहिउ, इत्थंतरि धण कोडि सउं, सिट्टि धूअ ढोएइ । पहु परणिसु मह पुत्ती, अन्नु पुरिसु न वरेइ ।। ४१ ॥ भो भविउ०
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विसय- सुक्खेहि जीअ णंत दुक्खई सहइ चउगईअ संसारि । संजम पावए णंत सुक्खई, केवलि कही विचारि ॥ ४२ ॥ भो भविउ०
सुवि उवसु बहु लोअ पडिबुद्धा, तीए पडिवन्नु चारितु । अमिय- सरिसेहिं वयणेहिं पणासीउ, कम्म - विसय - मिच्छत्तु ॥४३॥ भो भविउ०
अन्न वरसि परिवारु भणइ, समण सीअंति दुभिक्खि । देस-नगर-पुर-माग-भागा, गयणिहिं लेसु सुभिक्खि ॥ ४४ ॥ भो भवि० जेअ साहम्मि-वत्सल बहु उज्जुआ, चरण- करण-सज्झाय । तित्थ - पभावग ते नर अक्खिय, आण कुणई जिणराय ॥ ४५ ॥ भो भविउ० तेहि मन्त्रि नाहु अरहंतु
अनु सह गुरु सिरि धम्मवरु, तरिउ तेहिं दुत्तर वि सायरु ।
थिर - सम्मत्त चरित - धर, पत्तु मुणवि जे कुणई आयरु || साहम्मिय सुअ- भणिय - विहिं, जे वच्छल्लु कुणंति ।
धम्मु पयासि जि - भणिउ, ते सिव- सुह पावंति || ४६ || भो भविउ० इय चितवि पटि समण चडावीऊ, जाव गयणम्मि गच्छेइ ।
ता शिखा छेदिऊ भइ सिज्झागरु, राखि पहु सीसु करेई ||४७॥ भो भविउ०
सो चडावीउ गयण - तले जाइ सुभिक्खि पुरि नयरी । बुद्धोवासगु राउ अमाणए संघु जिण - पूअ निवारी ||४८|| भो भवि०
अह पभावग अट्ठ जिण भणिउ,
पावयणी धम्मकही वाय लद्धि नेमित्ति तवसी अ ।
विज्जासिद्ध कई अहूअ दृढ - समत्त सुअनाणि संसिअ || अवमाणिय जिण - सासणह, जे उ विविक्ख करंति ।
सत्तिर्हि हुंती तिज्ज नर, भव - सायरि निवडंति ॥४९ || भो भविउ० इय सुमरवि गुरु गयाणि चलिओ, नयरि माहेसरी पत्तु । कुसम मगीउ हिमवंत गिरे, सिरिदेवि दीवु आवंतु ॥५०॥ भो भविउ०
सहसपत्ते तीए आपीउ कमले कुंभ पुफुं घालेइ ।
गयण-तले नाचंति बहु देविहि, जिणवर-भुवणि आवेई || ५१ ॥ भो भविउ०
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[54] तीण उत्सवि भणइ पुर-लोउ, जिणसासणु जयवंतु परि वयरसामि जिण अत्थि गुणगिरि । हरिसिहि अंतेउरी-सहिउ नमइ राउ आवेई जिणहरि ॥ देसण सुणवि नरेसरह, हूउ पडिबोहु तुरंतु । तित्थ-पभावण ईणपरि, मुणउ सयलु गुणवंतु ॥५२॥ भो भविउ० एवमाईसु बहु देसि विहरेविणु,
तित्थु पभावीऊ जिणवर । नाणि जाणीउ निअ-आउ आसन्नउं,
सीख देअइ वयर सीस पवार] ॥५३॥ भो भविउ० अणसणु लेउ गिरवर-उवरि पंचसय-सीस-संजुत्त । वयरसामि सोभागि सव्वे वी, मरतई सउं मरंतु ॥५४॥ भो भविउ० चेलओ गामि भोलावीऊ मूको, तीण वि किउ अणसणु । सव्वि जिण-आण जिण-धम्मु आराहीउ
कुणइं दिअ-लोकि सुह-मरण-गमणू।।५५||भो भविउ० नाणि जाणीउ सीस वयर-संताणू
तस्स दूर ट्ठिय दिन्नु सुयनाणु ॥ झाअओ अणुदिणु महापभावु जिणराज-सासणु । जिण पाविइं लहउ केवल-नाणू ॥५६॥ वयर-कप्पद्रुम-साख हूअ चिआरि । चंदु नायल्लु निवृत्ति विज्जाहरु ॥५७॥ झाअओ अणुदिणु० चंद-गच्छि देवभद्दसूरि दक्ख, फूरइ जिणप्रभसूरि समण-गुण-लक्ख । नाणि चरणि गुणि कित्ति समुद्रू देउ वयरसामि-चरिउ आणंदु ॥५८॥ झाअओ अणुदिणु० सोहग्ग-महानिहिणो गुरुणो सिरि-वयर-सामिणो चरिअं । तेरह-सोलुत्तरए रइयं सुह-कारणं जयउ ॥५९॥
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[55] जिम जिणेसरि थुणिई मह पुत्तु सुअ केवलि गणहरि, पवरि नाण-लद्धि-संपुन गुणहरि, ।। जह समत्ति चरित्ति थिरि दाणि सीलि तवि पुन्नु महाहरि, तह भवियण तं चिरु हवऊ, वयर सामि सु[च]रित्त । पढत गुणंत सुणंतह, संवेगु धरंत ॥ ६० ॥
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वा. मेरुनन्दनगणि - विरचित 'गौतम स्वामि - छन्दांसि' (एक उत्तरकालीन अपभ्रंश रचना)
- सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि वाचक मेरुनन्दन कृत गौतमस्वामीनी छंदोबद्ध रासकृति अहीं प्रस्तुत छे. तेनी भाषा उत्तरकालीन अपभ्रंश छे. २२ कडीओमां पथरायेली कृतिनी प्रस्तावना बांधतां प्रथम दोहामां कवि कहे छे तेम, आ कृतिमां ८ छंद, १० दूहा, १ षट्पदछप्पय अने २ अडिल्ला छंद छे. तेनुं वर्गीकरण आ प्रमाणे छे :
प्रारंभ कडी दूहा छंदमां छे. ते प्रस्तावना रूप होईने गणतरीमां न लेतां कडी ३ थी १२ - एम १० दूहा छे. २ तथा १३ ए बे चतुष्पदी अडिल्ला छे. १४ थी २१ - ए ८ छंद छे. ज्यारे छेल्ली -२२मी कडी ते छप्पय छे. जेने 'छन्द' नाम आप्यु छे ते चरण दीठ २९ मात्रानो कवित छंद छे. छप्पय बे घटकनो बनेलो छ : वस्तुवदनक (प्रत्येक चरणमा २४मात्रा) + कर्पूर (प्रत्येक चरणमा १५+१३ मात्रा).
रचना अप्रगट छे. सरल तथा रोचक छे. गौतमस्वामीने लक्ष्यमा राखीने थयेली गुर्जर-अपभ्रंश रचनाओ अतिअल्प मळे छे, ते दृष्टिए आ कृतिनुं मूल्य वधारे गणाय. संभवतः १६मा शतकनी लखायेली एक प्रतिना आधारे आ छंदकृति संपादित करवामां आवी छे. कृतिगत अंको वारंवार बदलातां होवाथी - एकसूत्रता जाळववाना आशयथी आरंभे सळंग पद्य क्रमांको लखी उमेर्यां छे. प्रांते कठिन लागे तेवा शब्दोनो कोश मूक्यो छे.
श्रीमेरुनन्दन-विरचितानि
श्रीगौतमस्वामि-च्छन्दांसि ॥ अट्ठ छंद दस दूहडा छपदु अडिल्ला दुन्नि । जे निसुणई गोयमतणा ते परिवरीयइं पुन्नि मंगल-कमल-विलास-दिणिदह, पढमसीसु पहु वीरजिणिंदह । सयल-संघ-मण-वंछिय-दायकु, वन्निसु सिरिगोयमु गणनायकु
॥१॥
॥२॥
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॥३॥
॥७॥
||८||
नायक त्रिहुं भुवणहतणा जोयइं जासु पसाउ । इक्क जीह किम वनियइ सो गोयमु गणराउ तहवि सु गणहरु संथुणवि पामिसु निम्मल बुद्धि । जसु सामिय नामग्गहणि फुरई अचिंतिय सिद्धि
॥४॥ होइ सु नरु कविचक्कवइ, लच्छि-सरस्सइ-कंतु । जो आराहइ इक्क-मणि इंद्रभूति भगवंतु सिरि-गोयम-गणहरु जयउ बहुविहलद्धिसमिद्ध । सयल-सूरि-चूडा-रयणु जिणसासणि सुपसिद्ध
॥६॥ कज्जारंभिहिं जे भविय गोयमु चित्ति धरंति । ते गलहत्थिय दुरियभरु दुत्तरु झत्ति तरंति सिरिगोयमगुरु पय-कमलु हियइ-सरोवरि जाहं । बालक जिम रंगिहि रमई नवनिहि अंगणि ताहं जे गुणियण नियमणि धरई अहनिसि गोयम-झाणु । ते रायहं मंदिरि लहई सिरि सोहगु संमाणु ॥ प्रह उट्ठवि भाविहिं भणई जे गोयम-गुरु-नामु । ते धणु भोयणु पंगुरणु पामई मण-अभिरामु
॥१०॥ इणि भवि परभवि भवियजण पामिय सुक्ख-सयाई । भवसायरु लीलई तरई गोयम-पाय-पसाइं गोयमसामिउ मई थुणिउ इम गरुयउ गुणवंतु । संघ-मरु नंदण-वणिहिं सुरतरु जिम जयवंतु ॥१२ दूहा ॥ ता । सुरतरु जिम जयवंतु महावणि, सुरभंडारि जेम चिंतामणि । दिणमणि जिम सोहइ गयणंगणि, तिम जिणसासणि सिरि-गोयम-गणि ॥१३॥ सिरि-गोयम-गणि तिम जिणसासणि सोहइ जिम निसि चंदु । वस्-गुब्बस्-गामि मगह-महि-मंडलि बंभ-वंस आणंदु ॥
॥९॥
॥११॥
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- जाणु
पहुवी - सुह - कुच्छ कंति-कुल- पिच्छल निम्मल - रयण- समाणु । भूदेव - देव- वसुभूइ - सुनंदणु चउदस - विज्जाजो जन्नु करंतर पिक्खि तुरंतउ गयणंगणि सुरसत्थु । सव्वन्नवाइ-रोसारुणु चल्लिउभडु उप्पाडवि हत्थु ||
विम्हियमणु समवसरण पडिबोहिय मिलिय- सुरासुर - इंदि । सो पंचसयहं सउं दिक्खिउ गोयमु गणहरु वीरजिणिदि
।
जो कंचण-कमल-विमल - कोमल - तणु सत्त - हत्थ- सुपमा तिहुयण - जण - वयण - नयण-मण-म - मोहण - लवणिम- रूव - निहाणु ॥ जिणि बिहुं उपवासिहिं नितु पारंतइ लद्धिय - लबधि अपार । सो अनभूति-बंध गुरुगोयमु मनि समरउं सविचार जो कामकुंभ - सुरधेणु - सुदुम-सुरमणि दाणि पहाणु । जिणि अप्प - कन्हइ अणहूंतउं अप्पिउ घण-जण - केवल - नाणु ॥ जिणि निय-गुरु- निवड - नेहि अवगन्निय केवल - सिरि-वर-नारि । तसु गोयमसामि - समउ गुरुभत्तिर्हि कवणु भणउं संसारि जो नियबलि जिण चउवीसइ वंदइ चरमसरीरी इत्थ । इय जिणदेसण सुरवयणि सुणेविणु फलु अट्ठावय-तित्थ ॥ आलंबवि सहसकिरण - कर- तंतुय चडियउ गिरि कैलास । अच्चभुय - चरिउ रहिउ सो गणहरु इक्क रयणि तिणि वासि भरसर- चक्काहिव - निम्मिय निय-निय - वन्न - पमाणि । जिण वंदिय वलतइ खीर- खंड - घिय - भोयणु इच्छ - पमाणि ॥
अंगुर ठविय पनरसइ तावस कारिय इक्कइं ठामि । अखीण- महाणसि - लद्धि-समिद्धउ जयउ सु गोयमसामि
परवाइय-मयगल - माण- मडप्फर- मोडण - केसरिराउ । सिरि- रे-वायभूइ - गणहारि-सहोयरु सचराचरि विक्खाउ || जो केवलकज्जि करंतर आडउ गुरुअग्गइ जिम बाल । तिणि कत्तिय - मास - अमावसि परणीय केवल लच्छि विसाल
॥१४॥
॥१५॥
॥१६॥
॥१७॥
॥१८॥
॥१९॥
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॥२१॥
[59] रोहणगिरि रयण, गयणि तारायणु, सायरि जल-कण-संख । जो मुणइ वियक्खणु सो वि न सक्कइ जसु गुण भणिउ असंख ॥ सो सिद्ध-बुद्ध सिरि-गोयमसामिउ संपत्तउ सिवरज्जि । मइ वनिउ किं पि मेरुनंदण थिर निय-मण-वंछिय-कज्जि निय-मण-वंछिय-कज्जि नमई जसु सुर-नर-किनर इंद-चंद-नागिंद-असुर-विज्जाहर-मुणिवर । उच्छव मंगल रिद्धि विद्धि जसु नामि पयासई रोग-सोग-दोहग्ग-दुरिय दूरंतरि नासई ।। सो वीरसीसु सूरीसवरु महिम-गरिम-गुणि मेरुगुरु। सिरि गोयमगणहरु जयउ चिरु सयलसंघ कल्याण करु ॥२२॥
इति श्री गौतमस्वामिच्छंदांसि ।।
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[60] "गौतमस्वामिच्छंदांसि" गत कठिन शब्दो १/४ परवरीयई पुनि पुण्यथी परिवरे, वधे. २/४ गणनायकु
गण(गच्छ, मुनिसमुदाय)ना नायक ३/४ गणराउ
गणराज-गणना राजा ४/१ गणहरु
गणधर (तीर्थंकरना मुख्य शिष्य) ५/२ कंतु
कांत-प्रिय ६/२ लद्धिसमिद्ध लब्धि-समृद्ध; (लब्धि-विशिष्ट शक्ति) ७१ कज्जारंभिहिं
कार्यारंभे ७/१ भविय
भव्य (-जन) ७/३ गलहत्थिय
गळे झालीने काढी मूकीने ७/३ दुरियभरु
दुरित वृन्द ७/४ दुत्तर ७/४ झत्ति
शीघ्र ९/२ झाणु
ध्यान १०/३ पंगुरणु
पांगरण-कपडां वगेरे ११/२ सुक्खसयाई सौख्यशत-सेंकडो सुखो १४/३ पिच्छल
सुंवाळु, लीसुं, चमकतुं १५/१ जन्नु
यज्ञ १५/१ सुरसत्थु
सुरसार्थ - देवोनो समूह १५/३ सव्वनवाइ
सर्वज्ञवादी (पोताने सर्वज्ञ मानतो) १५/४ उप्पाडवि
ऊंचो करीने १७/३ समवसरणि
समवसरण - तीर्थंकरनी धर्मसभा १६/१ सत्तहत्थ सुपमाणु सात हाथ ऊंची कायावाळा १६/३ पारंतइ
पारणां करतां
दुस्तर
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१६ / ३
लद्धिय
१७/३
निवड
१८ / १
चरमसरीरी
१८/२ अट्ठावयतित्थ
१८/३ कर- तंतुय
१८/४ अच्चब्भुयचरिउ
१८/४ वासि
१९ / १
चक्काहिवनिम्मिय
१९/१ वन्न - पमाणि
२०/१ परवाइय-मयगल
२०/१ मडप्फर
२०/१ आइउ
२० / ४ २१/३ सिवरज्जि
केवललच्छि
[61]
प्राप्त करी
निबिड
जेनो अंतिम जन्म छे ते; हवे पछी अजन्मा
अष्टापदतीर्थ
(सूर्य - ) किरणरूपी दोरी
अति-अद्भुत चरित्र वाळा
निवास माटे
चक्रवर्ती निर्मेल
वर्ण (रंग) प्रमाणे
परवादी रूप हाथी
गर्व, दर्प
हठ
केवलज्ञाननी लक्ष्मी
शिव (मोक्ष) नुं राज्य
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'उवसग्गहर' थुत्तनी समस्या पूर्ति
- सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी महाराजे रचेलु उवसग्गहर स्तोत्र जैन जगतमां अत्यंत प्रसिद्ध तथा प्रचलित छे. तेनी पांच गाथा छे. ए गाथाओनां प्रत्येक चरणने गुंथी लईने २२ गाथा प्रमाण समस्यापूर्ति स्तोत्र अत्रे प्रस्तुत छे. रचनाना कर्ता २२मी गाथामां प्राप्त निर्देश प्रमाणे उपाध्याय श्री हर्षकल्लोलगणिना शिष्य छे, जेमणे पोतानं नाम आप्युं नथी. रचना प्रगल्भ तथा प्रसादसभर छे. प्रास बहु सहजताथी गोठवातां जणाय छे. केटलाक तळपदा शब्दप्रयोगो पण बहु ज रूडा थया छे. दा.त. 'मलुक्कं' (गा. ३) - मुलक, 'टालिअ' (गा. ५) टाळेल वगेरे.
मारा विद्वान मित्र मुनिश्रीधुरंधर विजयजी पासेथी प्राप्त एक फुटकर पत्रमा आ कृति सचवायेली छे. तेमां थोडोक अंश तूटतो होवाथी ते नवो बनावी [ ] मां उमेर्यो छे.
श्री पार्श्वस्तवनं समस्यापूर्तिरूपम् ॥
ॐ नमो जिनागमाय ॥ पणमिअ सुरवरपूइअ .. पयकमलं पुरिसपुंडरियपासं । संथवणं भत्तिचणो भणामि भवभमणभीयमणो ॥१॥ उवसग्गहरं पासं पणमिह(मह) नट्ठट्ठकम्मदढपासं । रोसरिउभेअपासं विणिहयलच्छीतणयपासं ॥२॥ जं जाणइ तेलुक्कं पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । जो झाइऊण सुक्कं झाणं पत्तो सिवमलुक्कं ॥३॥ विसहरविसनिन्नासं रोगगइंदाइभयकयविणासं । मेरुगिरिसन्निकासं पूरिअआसं नमह पासं ॥४॥ मरगयमणितणुभासं मंगलकल्लाणआवासं । टालिअभवसंतासं थुणिमो पासं गुणपयासं ॥५॥
उपगीतिः ॥
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[63] विसहरफुलिंगमंतं सच्चं निच्चं मणे धरिज्जंतं । कुणइ विसं उवसंतं भविया ! इय मुणह निब्भंतं ॥६॥ पयपण[य]देवदणुओ कंठे धारेइ जो सया मणुओ । सो हवइ विमलतणुओ नामक्खरमंतमवि अ णुओ ||७|| तस्स गहरोगमारी पराभवं न य करेइ विसमारी । जो तुह सम( सुमि?) रणकारी संसारी पत्तभवपारी ॥८॥
पथ्या ॥ तस्स वि सिज्झइ कामं दुट्ठजरा जंति उवसामं । संथुणइ जो पगाम अभिरामं तुज्झ गुणगामं ॥९॥
उपगीतिः ॥ चिठ्ठह दूरे मंतो जो झा[य]इ निच्चमेव एगंतो । तुह नाममसंभंतो सो जायइ लच्छिमइमंतो ॥१०॥ न य डसइ दुट्ठभोई तुज्झ पणामो वि बहुफलो होई । तुह नामेण विओई न हवइ, ण पराहवइ कोई ॥११॥ नरतिरिएसु वि जीवा भमंति नरए य कायरा कीवा । समिअजिणसमयदीवा जेहिं तुह न नामिआ गीवा ॥१२।। रिद्धि आहेवच्चं पावंति न दुक्खदोगच्चं । जे तुह आणं सच्चं पार्लिति य भावओ निच्चं ॥१३॥ तुह सम्मत्ते लद्धे जीवेणं हवइ सासपइसद्धे(?) । अणुवमते असमिद्धे अणंत तुह नाणसंबद्धे ॥१४।। तुह सुरनरवरमहिए चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए । पयकमले मलरहिए मणभसलो वसउ मह सुहि(ह)ए ॥१५॥ पावंति अविग्घेणं जीवा जय (जइ?) दुट्ठदोसवग्घेणं । न नडिज्जति अ सिग्घेणं भवपारं विहिअ विग्घेणं(?) ॥२६॥ सासयसुक्खनिहाणं जीवा अयरामरं ठाणं । लब्भंति तुह पयाणं जेसिं वट्टइ मणे झाणं ॥१७॥ उपगीतिः ।
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[ 64]
इय संथुओ महायस ! कित्तिं दित्तिं धिई च मह पइस । वयणरसविजियपायस ! निन्नासिअदुरिअ ! हयअयस ! ॥१८॥ कलिमलमइरहिएणं भत्ती(त्ति )ब्भर निब्भरेण ही (हिअ) एणं । [सद्धाए सहिएणं मए थुओ जिण ! पणिहिएणं] ॥१९॥ ता देव ! दिज्ज बोहिं [पत्थेमि अहं तहा हिययसोहिं । तह मह दूरमबोहिं] कुणसु भवारण्णभमणोहिं ॥२०॥ अवगयपवयणनिस्संद ! भवे भवे पासजिणचंद ! । तुह पयपंकयमयरंद - भसलत्तं भवउ मह वंद! ॥२१॥ उवझायहरिसकल्लोल - सीसेणं भद्दबाहुरइयस्स। . संथवणस्स समस्सा विहिआ विबुहाण य पसंस्सा ॥२२।। इति श्रीपार्श्वस्तवनं समस्यास्तोत्रम् ॥ लिखितं दामोदर पुरुसोत्तमेन ।।
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वाचक यशोविजयजीनो पत्र-खरडो
- पं. शीलचन्द्रविजयगणि भूमिका :
वाचक यशोविजयगणि-रचित 'समुद्र-वहाण-संवाद'नी खरडारूप प्रतिमां (जुओ 'अनुसन्धान'-२), ते संवादनी पूर्णाहुति पृ. ८/१मां थया बाद, नीचेना अंशमां तथा ८/२ पृ. मां श्री यशोविजयजीए एक पत्र लख्यो छे. पत्रना मरोड जोतां ते उतावळमां लखायेलो होय तेम जणाय. 'संवाद'ना तथा पत्रना अक्षर-मरोडो जुदा जुदा होवाथी बन्ने अलग अलग समये लखाया होवानो विशेष संभव छे. पत्रमां लेखके क्यांय पोतानु नाम नथी लख्यु; पोताने "विनेयलेशदेशीयो विजयः" ए रीते ज निर्देशे छे. वळी, पत्र गच्छपति आचार्य उपर लखायो छे, तेम स्पष्ट होवा छतां कया आचार्य पर लखायो - तेनो क्यांय नामोल्लेख नथी. सं. १७१७मां यशोविजयजी पोताना गुरुजी आदि साथे घोघा चातुर्मास रहेला, अने संभवतः "समुद्रवहाण - संवाद" त्यां ज, ते चातुर्मास दरम्यान ज रचायो जणाय छे. ज्यारे आ पत्र तो, पोते राजनगर चातुर्मास हता, अने गच्छपति पुरबन्दिर (पोरबंदर)मां चोमासुं हता, त्यारे लखायो होवानो प्रगट निर्देश छे.
पत्रमां कोई कोई अक्षर लखतां ज चहेराया छे, तो कोई अशुद्धि पण - -उतावळ जन्य-जोवा मळे छे. आ बधा परथी ए पत्र पत्र नहि, पण लखवा धारेला पत्रना खरडा (Draft) रूप होवानुं मानवं वधु उचित लागे छे.
पत्रमा विशेषता एटली ज छे के - पत्रलेखके गच्छपतिने अरजी करी छे के "चालु वर्ष दरमियान आप श्रीपूज्यनो एक पण पत्र मारा पर केम नथी ? हवे पत्र लखीने मने आश्वस्त करशो."
अद्यावधि अप्रगट एवो आ पत्र-खरडो अहीं प्रस्तुत छे.
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पत्रनो पाठ स्वस्ति श्रीमद् यदीयक्रमकमलनमन्नाकिकोटीरकोटिभ्रश्यन्मन्दारमाला परिचयरचि(?)ता भृङ्गराजी विरेजे । नम्रौकः स्थैर्यहेतोः किमु पदनिहिता शृङ्खला सिन्धुपुत्र्यास्तन्यादन्याय्यवृत्तिव्युपरमपरमश्रीसमृद्धिं स वीरः ॥
एनं श्रीमन्तं सुत्रामग्रामजेजीयमानमहामोहसङ्ग्राम लब्धजयपताकाभिरामजगदऽतिशायिस्थामधामरामणीयकदत्तजनचमत्कारं तर्कसम्पर्कसमितिप्रासादडिण्डीरपिण्डप्रपाण्डुपवादपाथोधिस्वतन्त्रप्रचारमुद्रणसेतुबन्धायितसप्त(?)भङ्गीतस्यात्कारं सहृदयहृदयङ्गमरमणीयतालङ्कत सर्वभाषापरिणामिवचनरचनारचित सुधार[स] तिरस्कार श्रीवीरजिनजगदाधारं प्रणम्य विधूदयप्रवर्द्धमानगतरङ्गमिषादुन्मिषद्विधूपलनिर्मितप्राकारविस्तारिकान्तिजान्हवीं रसोल्लासादालिङ्गितुं विस्तारितकरेणेवोदन्वता विराजिते श्रीपूज्यपादपाविते श्रीमति पुरबन्दिरे, पुरन्दरपुरलक्ष्मीलुण्टकविलासकलितात्रा(?द् रा)जन्वतः श्रीराजनगराद् विनेयलेशदेशीयो विजयः सविनयं सानन्दं प्रेमप्राग्भारप्रकर्षमन्थरं द्विपतर्कप्रमितावर्त्तवन्दनेनाऽभिवन्द्य विधिवद् विज्ञपयति यथा कृत्यं चात्र
प्रातर्महेभ्यसभ्यपरिपूरितायां सभायां ग्रन्थस्वाध्यायविधानादिप्रस्तुतकार्य परम्परायां प्रवर्त्तमानायां क्रमागतपर्युषणापर्वापि सक्षणनवक्षणकल्पसूत्रवाचन कल्पिताकल्पसंकल्पकल्पलतोपमश्रीजिनभवनपूजा - सार्मिकजनपोषण-दीनोद्धारश्रीजिनशासनप्रभावनादिभावनानुविहितानेह:समुचितभावदुस्तपतपस्तपनादिकर्मशत्रुनिर्मूलन-शमशर्मप्रदधर्मकर्मोपबृंहितं सुखमाशिखरमध्यारोपितं श्रीमत्पूज्यचरणपरिचरणकरणप्रभावादऽपरम् ।
अपराहठपरम्पराकमलिनीपरागलुब्धकविकुलमधुकरनिकरझंकारस्फीतसौभाग्यस्वच्छतपगच्छसाम्राज्यधुरन्धराणां कृतार्थीकृताऽर्थसार्थवितरणगुणविजित सुरतरु शोभाभराणां निःसीमस्थैर्यगुणपाटवपाठनछात्रीकृतसुरभूधराणां अगण्यलावण्यपुण्यतारुण्यसर:स्नानरसिकसुरपुरपुरन्ध्रीनयनकलभसुलभनिरुपमधूतरङ्गरङ्गनिर्झराणां लक्षभराणां श्रीपूज्यपुरन्दराणामस्मिन्नब्देऽद्य यावन्नैकोऽपि लेखो मत्करकमलमलंचकार । तदऽतः परं प्रसादमासादय(द्य?)तत्प्रेषणेन प्रमोदनीयं विनयपरमाणोः परमाण्विन्द्रियनैकायिकमुख्यचातुरीधुरीणैः ।
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[67] किं च - कुवलयोल्लासशीतपादैवितीर्णबहुलप्रसादैर्गलितसकलविषादैनिराचिकीर्षाकोट्यऽधिरूढनिखिलगूढप्रसादै: श्रीपूज्यपादैस्त्रिसन्ध्यं नतिरवधार्या । प्रसाद्ये च नत्यनुनती यथार्ह तत्राऽन्तिषदां पं. ल. प्रभृतीनाम् । शिष्योचितं कृत्यं प्रसाद्यम् । जिननामग्रहणे स्मारणीयो विनेय इति भद्रम् ॥
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अपभ्रंश दोहा
संपा. मुनि भुवनचन्द्र प्राचीन गुजराती अने अपभ्रंशना संधिकालना गणाय एवा आ दोहा एक पत्र खंभातना पार्श्वचंद्रगच्छ संघ हस्तकना ज्ञानभंडारनी प्रकीर्ण पत्रोनी पोथीमांथी मळ्यूं छे । लेखनकाळ सोळमा सैकानो पूर्वार्ध मानी शकाय । भाषाकीय अध्ययन माटेनी सामग्री तरीके उपयोगी थशे एम मानी अहीं रजू काँ छ ।
जिह जिणधम्म न जाणीयइ, नवि देवह गुरु भत्ति । तिणि तूं जीवा दंगडइ, वसिसि म एकइ रत्ति ॥१ जहि संमत्त न आलवण, संजम नवि चारित्त । तिह तूं जीव म रइ करिसि, छिज्जइ जेण परत्त ॥२ जे जिणसासण लीण मण, अणुदिण दढ संमत्त । तिह सिउं किज्जइ मित्तडी, सिज्झइ जेणि परत्त ॥३ दाण सुपत्ति न दिद्धउ चंगं, तव-नियमेण न सोसिउं अंगं । जिण न निमिउ भव-तरण-समत्थो, हा हा जम्म गयउ अकयत्थो ॥४ जिम पंथिहिं पहिय निसंबलउ, दिसि पक्खा जोयइ भुक्खियउ धम्म-विहूणा जीव तूं, जिहिं जाइसि तिहिं दुक्खियउ ॥५ जिह बिहु पहरह मग्गडउ, तिह जिय संबंल लेइ । जिह चउरासी भक -गहण, तिह अवहेल करेइ ॥६ अत्थह जीविय-जुव्वणह, धम्मि न लाहउ लेइ । गुण तुट्टइ धाणुक्क जिम, परि हत्थडा मलेइ ॥७ मा रूसउ मा रोस करि, रोसिहि नासइ धम्मु । धम्म-विहूणा नरय-गय, दुलहउ माणुस-जम्मु ॥८ कोह पइट्ठउ देह-घरि, तिन्नि विकार करेइ । अप्पणु तावइ पर तवइ, परतह हाणि करेइ ॥९ सूधा बं(वं ?)छइ दीहडा, चिंतिज्जइ अप्पाणु । जीव पयाणा-धंधलिहिं, किह संजम किह दाणु ॥१०
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[69 ] भारी-कम्मा जीवडा, जइ बुज्झिसि तउ बुज्झ । सयल कुटंबउ खाइस्यइ, माथइ पडिस्यइ तुज्झ ॥११ लग्गइ कोह-पलेवणइ, डज्झइ गुण-रयाणाई । उवसम-जलि जि न उल्हवई, सहई ति दुक्ख-सयाइं ॥१२ धम्म न संचिउ तव न किय, नमिउ न जिणवर-देउ । जीवु जि हीडइ दुक्खियउ, तिह कम्मह फल एउ ॥१३ दान-सील-तव-भावणा, एह तरंडउ जाहं । नवकारिहिं वउलावणउं, सिद्धि घरंगणि ताहं ॥१४ संसारडइ बीहामणइ, आस कि बंधण जाइ । सुप्पइ अन्न-मणोरहें, अन्नेरडइ विहाइ ॥१५ जिम घर-कारणि निसि-दिवस, जह जिय सुप्पडिलग्गु । तिम जइ धम्मह दुइ घडी, ता पामइ सिव-मग्गु ॥१६ संसारडइ भमंतडा, लद्धा दुइ रयणाई । जिणवर सामि सुसाहु गुरु, चिंतामणि-तुल्लाई ॥१७ सिरि इक्केकउ पलियडउ, आविउ अग्गेवाणु । नीसरि जुव्वण-पाहुणा, जरा मलेसिइ माणु ॥१८ गिउ जुव्वण बंबलि करवि, छडा पयाणा देउ । जर थक्की मत्थइ चडवि, धवला गुड्डर देउ ॥१९ . मोहु न मेल्हइ घर-तणउ, जउ सिरि पलिया केस । वलि वलि जिण-धम्मह तणा, को देस्यइ उवदेस ॥२० हीयडा जिणवर वंदीयइ, संपइ विरूअउ कालु । जिम मच्छहं तिम माणुसहं, पडइ अचिंतिउ जालु ॥२१ दीहा जंति वलंति नहु, जिम गिरि-निज्झरणाई । लहुया-लगि जिय धम्म करि, सूवहि निचंतउं काई ॥२२
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170]
[ह. भायाणी अने अगरचंद नाहटा संपादित अने एल.डी. सिरीझ क्रमांक ४० तरीके १९७५मां, 'प्राचीन गूर्जर काव्य संचय'मां संपादित, पाटणना ज्ञानभंडारनी एक प्रति (सूची पृ. २५)ने आधारे प्रकाशित, ३९ क्रमांक वाळी 'दंगडु' नामक रचना-गत पहेलां पांच पद्य, पद्य क्रमांक ८(= खं. ७), १६ (= खं. ८), १७ (खं. ९), २३ (= खं. १०), २४ (= खं. ११)-एटला अहीं संपादित खंभातनी प्रतमां मळतां पद्यो साथे, थोडाक पाठभेदे, समान छे. बाकीनां पद्य नवां छे. उक्त 'दंगडु' रचनानां बाकीनां पद्य खंभातनी प्रतमां नथी. 'दंगडु' नाम नाहटाजीए कामचलाउ
आप्यु हतुं. हकीकते तो ए नाम वगरनो फुटकळ (मुख्यत्वे दोहाओनो) सुभाषितसंग्रह जणाय छे. ह. भा.)
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मुनि प्रेमविजयनी टीप
__ संपा. मुनि भुवनचन्द्र जगद्गुरु विजयहीरसूरीश्वरजीना समुदायना मुनि प्रेमविजयजीए स्वीकारेला नियमोनी सूचिनी आ प्रति तेमना पोताना उपयोगार्थे लखायेली जणाय छे । खंभातना श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ संघ हस्तकना भंडारनी आ प्रति (विभाग २, प्रत क्र. ९०९) लाल अने काळी शाहीथी लखाई छ । अक्षरो सुंदर अने मोट छ । एक पृष्ठमां ११ पंक्ति तथा एक पंक्तिमां सरेराश ३५ अक्षरो छे. पांच पत्रनी आ प्रति सारी स्थितिमा छ।
जैन श्रमणोए पालन करवाना पांच महाव्रत तथा अन्य आनुषांगिक नियमो उपरांतना स्वेच्छाए धारण करेला नियमोनी आ सूचि छ । संयमी जीवन कई सीमा सुधी जीवी शकाय तेनु निदर्शन तो आमां मळे छे ज, परंतु प्रस्तुत नियमावलि मात्र कष्टमय जीवन जीववाना जड प्रयासरूप नथी; आंतरिक जागृति, नम्रता, सहजता तथा व्यावहारिक दृष्टिकोणनां पण आमां दर्शन थाय छे । अपवादोनुं आयोजन खास ध्यान खेंचे छ । भाषाकीय दृष्टिए पण आ कृति उपयोगी बनशे एवी आशा छ ।
.८०। परमगुरु विजयमान भट्टारिक श्री श्री... श्री हीरविजयसूरिगुरुभ्यो नमः । मुनि प्रेमविजयनी टीप लिखिइ छइ । जावजीवना अभिग्रह जाणिवा ।
कलपडो, कांबली, संथारिउं, चोलपट्ट - एतलइ एक बोल । १ पात्रां त्रिण, पडला पांच, रताणां त्रिण, झोली बदू-ए बोल बीजे । २
जावजीव औषधनुं पंचखाण, अथवा बइ आंखिनइ हेति, अथवा सादिकनइ डंसइ, अथवा लू लागइ मोकलउ; अथवा प्रहारपाटूई मोकलउ-ए बोल त्रीजउ । ३
विगइ पांच- पचखाण-ए चउथउ बोल । ४
नीलो नालिकेर १, गोटो २, टोपरां ३, खारीक ४, खजूर ५, द्राक्ष ६, लवंग ७, एलची ८, सुंठि ९, मिरी १०, पीपरि ११ - ए समस्तनुं पचक्खाण-ए बोल पांचमो । ५
खीरनुं पचखाण अनइ निवीनुं दूधनुं पचखाण-ए बोल छठउ । ६
धाननुं सूकउं सालणउं मोकलूं, अवर समस्त नीलवण अनइ समस्त सूकवणए समस्त खाएं सालणउं आदि देईनइ पचखाण-ए बोल सातमो । ७
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[72] दिन प्रतई सालणां त्रिणि कलपई; गांठसीनउं जावजीव पचखाण; जिवारई छूटइ तिवारई चउविहार; इम करतां विहरी आव्या पछी गांठसी छूटी सांभरइ तउ ते आहार जती वाधतो ऊसारइ तउ पचखाण भंग न थाइ; इम करतां ते आहार जती न खपावइ तो ते आहार हुं करी ऊठउं अनइ ऊठीनइ चउविहार पचखाण करुं । वली सहस्र सझाय उभां गणउं - ए बोल आठमो । ८
जावजीव बियासणउं तिविहार करिवउं - ए नवमो बोल । ९
पांणी पोतानी मात्राना तवा (?) पचखाण । इम करतां जती भगतई करावइ तो करें - ए बोल दसमो । १०
दिन प्रतइं देवदर्शन करिवठं, इम करतां वरांसइ न थाइ तु बीजइ दिवस सालणउं निषेध - ए बोल इग्यारमउ । ११
दिन प्रतई त्रिकाल देव न वंदाइ तु बीजइ दिवस एक नउकरवाली ऊभां गुणवी - ए बोल बारमउ । १२ ।
दिन प्रतिइं त्रिणि सहस्र सज्झाय गुणवो, पणि उपवासनइ दिवस, अनइ पारणानइ दिवस, अनइ विहार करिवउ होइ तिवारइ, अनइ योगादिकनइ कामई, अनई लिखवउं होइ तिवारइ, अनइ भणवलं होइ तिवारई, अनइ वेयावच्च विशेष थकी करवउ होइ तिवारई, अनइ लेप वाटवानइ काजई, अनइ आलोयणनी सज्झाय करवी होइ तिवारइं, अनइ शरीरनइ कारण, अनइ लोच करवा होइ तिवारई, एतलइ कारणई सज्झायनी जइणा; अनइ दिन प्रतई मोटका कारण विना सझाय-सहस्र न मूंकिवउं । जउ तीणइ दिवस न थाइ तउ बीजइ दिवस गुणी पुहचाडिवउं । एक नउकरवाली श्रीसेत्तुंजा नामनी, एक नउकरवाली श्रीसीमंधरसामिना नामनी, एक नोकरवाली श्रीगौतमसामिना नामनी, एक नोकरवाली श्रीआणंदविमलसूरिना नामनी, एक नोकरवाली श्रीविजयदानसूरिना नामनी, एक नोकरवाली श्रीहरिविजयसूरिना नामनी, एक नउकरवाली श्रीविजयसेनना नामनी, एक नउकरवाली श्रीविमलहर्ष उपाध्यायना नामनी, एक नउकरवाली पंडित श्रीवांदरऋषिना नामनी, एक नोकरवाली समस्त साधना नामनी - एतली १० नउकरवाली दिन प्रतिइं गणवी । कारण विना - ए बोल तेरमो । १३
सझ्यातरना घरनुं धृत, अनइ उधायं, अनइ गकार, अनइ चउथो आहार ए समस्तनो पचखाण - ए बोल चउदमो । १४
खेत्रातीत, कालातीत, मार्गातीत, ए आहारपाणी लेवा पचखाण । कारण विना । अनइ आहारपाणी जे नदी माहि लेई ऊतरइ छइ ते आहारपाणी लेवा
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[73 ] पचखाण । पण वासा चालवउं होइ, अनइ कोस त्रिण, तथा च्यार-पांच जावउं होइ, अनइ जो तथाविध गाम न आवई तो कलपइ-ए बोल पनरमउ । १५
दिन प्रतइं आहार तिवारई करें (जिवारइं) दसवीकालिकनी सतर गाथा गुणउं । जउ न गुणाइ तउ बीजइ दिवस एक नोकरवाली गुणवी-ए बोल सोलमो । १६
जावजीव विगइ पा सेर उपरांत पचखाण । अथवा वाधतउ होइ तु मोकलूंए बोल सतरमउ । १७
नीवीनइ दिवस तीन घाणवा उपरांत दाधेल होइ तो कलपइ - ए बोल अढारमो । १८
मुझ थकी बीजा कुणहीनइं अप्रीति ऊपजइ तो बीजइ दिवस नीवी करिवीए बोल उगणीसमो । १९
अनइ परनउ अवगुण बोलवा पचखाण । इम करता वरांसइ बोलाइ तउ बीजइ दिवस सालणउं निषेध - ए बोल वीसमो । २०
दिन प्रतिई थंडिल पडिलेहवा; इम करतां न पडिलेहाइ तु बीजइ दिवस नीवी करवी - ए बोल इकवीसमो । २१ ।।
भइरव, सालू, महिमदी, बाहादरी, झूनो, गोडीउं, अटाण, श्रीबाप, तथा रेसमी वस्त्र-ए आदि देईनइ समस्तनउं पचखाण - ए बोल बावीसमुं । २२
पोथी एक, पाठां धोलां बि, वीटागणउ एक-ए बोल त्रेवीसमो । २३
सूत्रनी नुकरवाली, अथवा पत्रजीवानी पण एक राखुं - ए बोल चउवीसमउ। २४
___ अणगल्यउं पाणी वावरवा पचखाण । इम करतां वरांसइ ववराइ तु नुकरवाली एक ऊभां गुणउं-ए बोल पंचवीसमो । २५
जती बिहुँनइ दिन प्रतई वीसामण करिवी । कारण विना - ए बोल छावीसमउ । २६
विहरवां गयां जे हीड्यो विहरावइ ते विहरुं । खपसारू ना न कहिवी - ए बोल सत्तावीसमउ । २७
मास माहि उपवास पांच, आंबिल बि, निवी पांच करवी । एतलो तप शरीरनइ कारणइं न थाइ तउ जे तपनी जेतली सझाय थाइ ते तपनी तेतली सझाय गुणी पुहचाडवी - ए बोल अठावीसमउ । २८
विहरवानी वस्त छुटी नखाय तु, अनइ छूटी नांखी लिवाइ तु एक नउकरवाली
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[74] गुणवी-ए बोल इगुणत्रीसमो । २९ ।
उधाडइ मुढइ बोलाइ तु नोकार वीस गुणवा, अनइ आहार करतां कउगला कीधा पाखइ बोलाइ तु नउकरवाली एक गुणवी - ए बोल तीसमो । ३०
काजउ अणपूंज्यइ बइसाइ तु, उधर्या पाखइ बइसाइ तो नोकरवाली एक गुणवी-ए बोल इकत्रीसमउ । ३१
वडिलेहण करतां, अनइ पडिकमणुं करतां बोलवा पचखाण; गुरु बोलावई तिवारई बोलउं, बीजी परई बोलाइ तु नउकरवाली एक ऊभां गुणवी-ए बोल बत्रीसमउ । ३२
संथारीउ अनइ उतरपटणउं उपरांत अधिकउं उपगरण पाथरवा पचखाण; अनइ उसीसइ पण किसी वस्त मूंकवा पचखाण । उसीसइ बाहई अनइ शरीरनइ कारणइं तीन पड ऊढवां - ए बोल तेत्रीसमो । ३३
माहरी मात्रानुं उपगरण अणपडिलेडं रहइ तो नउकरवाली एक गुणवी - ए बोल चउत्रीसमो । ३४
जावजीव पाडिहारू वस्त्र अथवा कांबलो-कांबली वावरवा पचखाण; अनइ कारणई पणि वावरवा पचखाण-ए छत्रीसमो बोल । ३६
___ माहरइ डीलिई तेल आदि देइनइ विलेपणनी जात चोपडवा पचखाण; इम करतां कोई बलात्कारई चोपडइ तु बीजइ दिवस नोकरवाली, दंड १-ए बोल सांत्रीसमउ । ३७
. रातई अखोडा-पखोडा न पडिलेहाइ तो नोकरवाली एक-ए बोल अठत्रीसमो। ३८
सीकीनी पडिलेहण पचवीस, उवधिनी पडिलेहण पचवीस, थापनानी पडिलेहण तेर, डांडो, डंडासणों, काणदोरु, उघारो-ए समस्तनी पडिलेहण दस, - एणइ प्रकारई जेहनी जेतली पडिलेहण छई तेहनी तेतली पडिलेहण करिवी । अधिकी-ऊछी थाइ तो नउकार पांच, पडिलेहण डीठ गुणवा । पणि इणी विधि पडिलेहण पोताना उपगरणनी पडिलेहण करिवी । कारण विना - ए बोल इगुणच्यालीसमो। ३९
सीकी, उपधि, डांडो अणपूंज्यो लेवाइ तु, अनइ अणपूंज्यो मूंकाइ तु एक नोकरवाली गुणवी - ए बोल च्यालीसमउ । ४०
सांजइ सरीर अकालसन्या थाइ तु आंबिलतप करी पुहचाडवो, अनइ सझ्यातर घर कीधइ जो हीड्या पण न पलइ तो भंगई आंबिलतप करी पुहचाडिवउं
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[75] ए बोल इकतालीसमो । ४१
अनइ इरियावही पडिकम्या पाखइ आहारपाणी कराइ तो नउकार पांच गुणवा-ए बोल बितालीसमो । ४२
ठाबडइ भागइ छठतप करी पुहचाडवो - आंबिल तथा नीवी तथा सझाय सहस्र च्यार गुणी पुहचाडवो-ए बोल त्रइतालीसमो । ४३
मात्रउं अणपूंज्यइ परठवाइ तु, अनइं ऊभां परठवाइ तउ नोकार पांच गुणवा । कारण विना । - ए बोल चउतालीसमउ । ४४
____ माहरइ काजई माहरइ मुंढइ खाएं-खाटउं कहवा पचखाण, वरांसतां कहवाइ तउ नउकारवालिनउ दंड १; अनइ जती प्रतइं अथवा ग्रहस्त प्रतई माहरा मूंढइ मुंहई थकी कठोरभाषा बोलाइ तउ नोकरवाली दस गुणवी - ए बोल पचतालीसमउ । ४५
इणी प्रकारइं पचतालीस बोल लख्या छई । श्री सीमंधरस्वामी साखि । प्रतिदिन विजयमान भट्टारिक परमगुरु तपागच्छतिलकसमान, विस्वाधार, कलिकालगौतमावतार, कल्पद्रुम, गच्छाधिराज श्री श्री..... हीरविजयसूरि - तत्पट्टप्रभाकर, धर्मभारधोरिंधर, सौभाग्यवंत आचार्यपदचक्रसमान, संयमश्रीहृदयार, कूर्चालसरस्वती, प्रतक्षभारती, चतुर्बुद्धिनिधान, वादीगजपंचानन, कुमतिमानमर्दन आचार्य श्री श्री... विजयसेनूरि- तद्गच्छे वाचक चक्रचूडामणिसमान महोपाध्याय श्री श्री... बिमलहर्षगणितत्शिष्य मुनि प्रेमविजयनी टीपणी जाणिवी ।
संवत् १६३९ वर्षे आसो सुदि १ दिने वारु गुरुदिने लिखितं । छ । छ । मुनि प्रेमविजयपठनार्थं ।
कल्याणं भवतुमिति भद्रं । गुरुप्रसादात् ॥ (नोंध : पांत्रीशमा बोलनो पाठ खूटे छे - ह. भा.]
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ट्रंकी नोंध 'मीण प्रत्ययवाळ अर्धमागधी वर्तमान कृदंतो
१. श्वेतांबर जैन आगमोनी भाषाना अध्येताओ जाणे छे के परंपराथी ए आगमोनी भाषा अर्धमागधीने नामे जाणीती होवा छतां हाल आपणी पासे आगमोनो जे पाठ छे तेनी भाषा मिश्र स्वरूपनी छे । तेमां मोटा प्रमाणमा महाराष्ट्री प्राकृतनां लक्षण छे, क्वचित् शौरसेनी प्राकृतनां तो केटलेक अंशे अर्धमागधीनां. मोटो प्रश्न तो प्राचीन अर्धमागधीनी लाक्षणिकताओ कई कई हती ते निश्चित करवानो छ । आ विषयनी अनेक विद्वानो वर्षोथी विचारणा करता रह्या छ ।
के. आर. चन्द्रे छेल्लां थोडांक वरसोमां आ विषयनां विविध पासांनुं सघन अध्ययन कयुं छे । 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' (१९९१), Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts (1994), और 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' (१९९५) ए पुस्तकोंमां पूर्ववर्ती संशोधन तथा आगमग्रंथोनां विविध संपादनोने आधारे समीक्षात्मक सामग्री प्रस्तुत करी छे. अहीं तो मात्र तेमणे एक व्याकरण-रूपने लगती जे माहिती एकत्रित करीने पिशेलने अने अशोकलेखोने आधारे 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' ना पृ. ५६-५७ उपर आपी छे ते तरफ ध्यान दोरवानो आशय छ ।
संस्कृतमा आत्मनेपदी धातुओना वर्तमान कृदंतनो प्रत्यय ०मान होवानुं जाणीतुं छे । तेनुं प्राकृत रूप ०माण छ । परंतु जैन आगमोमां जे प्राचीनतम गणाय छे ते 'आचारांग' अने 'सूत्रकृतांग'मां थोडांक रूपोमां ०माणने बदले ०मीण प्रत्यय मळे छे। पिशेले पोताना प्राकृत व्याकरणमा जे एवां रूप नोंध्यां छे (जेम के ६५६२) ते नीचे प्रमाणे छे :
अभिवायमीणे : आया० पृ. ४१, १. आगममीण
: आया० १, ६, ३, २; १, ७,४, १; १, ७, ६,
२; १, ७, ७, १. समणुजाणमीण
आया० १, ६, ४, २; १, ७, १, ३. आढायमीण
: आया० १, ७, १, १; १, ७, २, ४, ५.
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[77]
अणाढायमीण
आया० १, ७, १, २. अपरिग्गहमीण
आया० १, ७, ३, १. अममायमीण
आया० १, ७, ३, २. आसाएमीण
आया० १, ७, ६, २. अणासायमीण
आया० २, ३, २, ४. निकाममीण
सूय० ४०५ (= १. १०, ८) भिसमीण
: णाया० ६ १२२; जीवा० ४८१, ४९३. भिब्धिसमीण : णाया०६ १२२; जीवा० ४८१, ४९३, १०५, विकासमीण : सूय० पिशेले 'आयारंग'ना याकोबीना १८१२ना तथा कलकत्ताना १९३६ना संपादननो उपयोग कर्यो छे : तो 'सूयगडंग' माटे मुंबईनुं संवत १९३६नु, ‘णायाधम्मकहा' माटे Steinthaly १८८२- अने 'जीवाभिगम' माटे अमदावादनुं संवत १९३९र्नु संपादन उपयोगमा लीधुं छे. 'पाइअसद्दमहण्णवो'मां 'णिकाममीण', 'भिसमीण'
अने 'भिब्भिसमीण' पिशेलने आधारे नोंधायां छे. २. पिशेले ए पण नोंध्युं छे के उपर्युक्त ०मीण प्रत्ययवाळां रूपोने स्थाने
हस्तप्रतोमा -माण एवं पाठांतर मळे छे, अने -मीण प्रत्ययवाळु रूप अशोकना शिललेखोनी भाषामां पण मळे छे. वुल्नरे पोताना Asoka Text and Glossary ए पुस्तकमां (१९२४) पहेला भागमां अशोकलेखोना व्याकरणनी जे रूपरेखा आपी छे, तेमां वर्तमान कृदंतना आत्मनेपदी रूपोमां पकममीन, पलकमामीन, पायमीन, विपटिपादयमीन अने संपरिपजमीन एटलां आपेलां छे. (परिच्छेद ५४, पृ. XXXVI) शब्दसूचिमां आपेला आ रूपो साथे तेवां रूप अर्धमागधीमां मळतां होवानो पिशेलनो हवालो आप्यो छे । सहसराम, सिद्धापुर, रूपनाथ, धौली वगेरे पूर्वभारतनां अशोकलेखोमां आवां ज रूपो मळे छे ते खास नोंधपात्र छ । जैन आगम ग्रन्थमालामां संपादित 'आयारंग'मां उपर्युक्त रूपोने स्थाने ०माण प्रत्ययवाळो पाठ छे. पण 'सूयगडंग' अने ‘णायाधग्मकहाओ'मांनां रूपो ०मीणवाळां अपायां छे. याकोबी वाळां पाठांतर नोंधायां नथी । परंतु बेत्रण स्थळे ०मीणवाळा रूप, पाठांतर नोंधायुं होवानुं मारा ध्यानमां आव्यु :
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[78] १, ६, ४, सू. १९२ मां तथा १, ८, २, सू. २००मां आवता हण पाणे घातमाणा माटे हणपाणघातमीणा एवं चूर्णि- पाठांतर, तथा १, ८, २, सूत्र २०७ मां आढायमाणे माटे आढायमीणाए एवं जूनी प्रतो, पाठांतर । आवां बीजां पण पाठांतर नोंधायां होय । जेम. के 'आयारंग-चूर्णि'मां आरंभमीण एवं रूप पण मळे छे. चन्द्रे 'सूयगडंग'-मांथी विकासमीण नोंध्युं छे.
प्राचीन प्राकृत अभिलेखोनी भाषा पर जेमणे विद्वताभर्यु पुस्तक लख्यु छे ते डो. ग. अ. महेंदळए पण नोंध्युं छे के -मीन-/-मीण- प्रत्ययांत कृदंत-रूपो अशोकलेखोनी पछी मळतां नथी. आनुं तात्पर्य ए छे के अशोकलेखो अने प्राचीन जैन आगमोनी भाषामां जळवायेलां, अने पछीथी पालि के प्राकृतोमां अज्ञात आवां ०मीन/०मीण प्रत्ययांत विरल वर्तमान कृदंतो इसु पूर्वे त्रीजी शताब्दी आसपासनी मगध-प्रदेशनी लोकभाषामां प्रचलित होवार्नु आ उपरथी जोई शकाशे, अने तेने जैन आगमग्रंथोमां विविध कक्षाए वधताओछा प्रमाणमां मूळ परंपरा जळवाई होवाना एक चोक्कस पुरावा तरीके पण चींधी शकाशे.
जू. गुज. आंबलु ‘पति, प्रियतम' 'वसंतविलास-फागु'ना ४९मा पद्यनो पाठ अने अनुवाद, संपादक कांतिलाल व्यास अनुसार (ई. १९५९, १९६९) आ प्रमाणे छे :
धन धन वायस तूं सर, मूं सरवसु तूंअ देसु,
भोजनि कूर करांबुलु, आंबुलु जरि हुं लेहसु । - 'धन्य छे तारा स्वरने, बायस ! मारुं सर्वस्व हुं तने आपीश; भोजनमां कूर अने दहीभात आपीश -- जो (तारा शुकने हुँ) मारा वहालाने पामीश ।'
Indo-Aryan (=L' Indo-aryen - अंग्रेजी अनुवादक Alferd Master, 1965)मां Jules Bloch एवं जणावे छे (पृ. २५१) के सं. प्रत्यय-मान-ना मूळमां भारतइरानीय --म्न- छे, अने पूर्वीय अशोकलेखो अने 'आयारंग-सुत्त मां मळतो -मीनप्रत्यय एनुं रूपांतर छे, जेना उपर सं. आसीन-जेवा रूपमां मळता-ईन-प्रत्ययनो प्रभाव पड्यो होय. ब्लोखे तेमां प्राकृत मेलीण-ने पण ध्यानमा लेवानुं कर्तुं छे, परंतु मेलीण-, गलीण-, पपलीण सादृश्यमूलक होवार्नु मे अन्यत्र सूचव्युं छे.
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[79]
'आंबुलु' शब्द उपरनुं व्यासनुं टिप्पण आ प्रमाणे छे : 'आंबुलु' = प्रियतम, स्वामी (< अप. 'अंब' + 'ल'). सरखावो : कोइल सरिखी स्त्री नही, जस मन इसिउ विवेक, अंबविहूणी अवरसिउं, बोल न बोलइ एक । ('प्राचीन सुभाषितो', 'भारतीय विद्या, ३, १, पृ. १७६). 'अम्ह सरिस म बोलीसि आमला' ('प्रबोधचिंतामणि', 'प्राचीनगुर्जर काव्य', पृ. १२०) । 'अंबणु लाइवि जे गया, पहिअ पराया के वि.' (सिद्धहेमचंद्र, ८-४-३७६) ।।
आमांथी पहेला उद्धरणमां अंबविहूणी' शब्द द्विअर्थी छे : 'आंबा वगर' अने 'प्रियतम वगर'. बीजा उद्धरणमां 'आमला' शब्द 'प्रियतम'ना अर्थमां छे के 'मरडाट वाळां, द्वेष के खार वाळां वचन' एवा अर्थमां छे ते हं संदर्भ जोईने चोक्कस करी शक्यो नथी । त्रीजा उद्धरणमां 'अंबण'नो अर्थ 'दोधकवृत्ति'मां 'अम्लत्व, स्नेह' एम आप्यो छे।
आ नोंधनो हेतु 'आंबुला' शब्द उपर्युक्त अर्थमां जूनी मराठीमां मळे छे ए हकीकत तरफ ध्यान दोरवानो छे.
__ मराठी संतभक्त कवि 'ज्ञानेश्वरी'कार ज्ञानदेवने नामे मळती 'ज्ञानेश्वरी गाथा' ए कृति (जेमांनी केटलीक रचनाओ ज्ञानदेवनी नहीं, पण तेमने नामे चढेली पछीना केटलाक कविओनी रचना होय)मां 'अंबुला' के 'दादुला' (= प्रियतम)नामनां गीतो छे. नीचेनी पंक्तिओमां ए शब्दप्रयोग मळे छ :
'अंबुला माहेरी भोगि घणीवरी,
मग तया श्रीहरी सांगो गज । (महियरमां में मारा पति साथे घणा भोग भोगव्या अने पछी में ए गुह्य श्रीहरिने कह्यु.)
आ माहिती अने उद्धरण में Catherina Kiehnle ना निबंध Metaphors in the Jhanadev Gathā ए लेखने आधारे आपेल छे । (Studies in South Asian Devotional Literature, संपादको : एन्टविसल अने मालिझों, १९९४, पृ. ३१०-३११). किन्लेए 'ज्ञानेश्वरी गाथा' ना केटलाक भागनो अनुवाद प्रकाशित करेल छे (Texts and Teachings of the Mahārāstrian Nath Yogis तथा A Garland of Songs on Yoga, 1994).
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[80] 'वसंतविलास'मां संबंधविभक्तिनो 'चा' अनुग, 'निरोप' (= आदेश आपवो) अने आ 'आंबुलु' जूनी मराठीमां प्रचलित प्रयोगो छे. ('खरतरगच्छ-बृहद् गुर्वावलि'मां 'निरोप' शब्द आदेशना अर्थमां संस्कृतमां वपरायो छे : यूयं पुस्तक-समर्पण-निरोपं ददध्वम् ।' (पृ. ३). "निरोप'ना अन्य प्रयोगो माटे जुओ जयंत कोठारी, 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश', १९९५ ।
लजामणी गुजरातीमां लजामणी, रिसामणी एटले एवो छोड जेनां पांदडां हाथ अडाडतां ज संकोचावा लागे । कोशमां आ माटे लाजाळु के लाजाळी पण आप्यो
हिन्दीमां तेने माटे लजवनी, लजाधुर, लजालू के लाजवंती एवा शब्दो कोशमां आपेल छे.
___आ बधा शब्दोनो अर्थ छोडनी लाक्षणिकता शरमाळ स्त्रीना जेवी होवानी लोकमान्यता उपर आधारित छे. हेमचंद्रना प्राकृत व्याकरणमा लज्जालुआ अने लज्जालुइणी शब्दो नोंधाया छे. प्राकृत कोशमां ते 'लजामणी'ना अर्थमां होवार्नु मान्यु छ । हिन्दीमां आ उपरांत छुईमुई शब्द पण लजामणी माटे छे. अडतां ज मरी जाय, करमाई जाय ए रीते ए छोडनी लाक्षणिकता घटावाई छे. 'पाइअसद्दमहण्णवो' मां तथा 'देशी शब्दकोश'मा 'विशेषावश्यक-भाष्य'मांथी (गाथा १७५४) लजामणी माटे छिक्कपरोईया शब्द आप्यो छे. उद्धरण छ :
छिक्कपरोइया छित्तमेत्तसंकोयओ कुलिंगो ब्व ।
एटले के 'कुलिंगनी जेम अडकतां ज जे संकोचाई जाय छे ते छिक्कपरोइया।' छिक्क परोइया (= स्पृष्ट-प्ररोदिता) एनो यौगिक अर्थ छ 'अडक्याथीअडकीने जेने रडाववामां आवे छे'- 'अडकतां ज जे रडी पड़े छे.' कुलिंगनो अर्थ आ संदर्भमां चोक्कस नथी । इंद्रगोप (= इंद्रनो गोवाळ), चंद्रवधूटी ('चंद्रनी वहु'), गोकळ-गाय ए चोमासामां नीकळतां लाल रंगना सुंवाळा कीडा माटे, भरवाड्य ए चोमासामां नीकळता लांबी ईयळ जेवा कीडा माटे, मामणमूंडो ए एक धोळा रंगना कीडा माटे, बिलाडीनो टोप के हिन्दी कुकुरमुत्ता 'चोमासामां थती छत्री-आकारनी
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[81]
फूग' (संस्कृत छत्रक नाम आकार प्रमाणे), वाणियो 'तीडना प्रकारचें चोमासु जंतु' वगेरे जेवां कीडांनां के छोडनां नाम लोककल्पनाना सूचक छ ।
सुकुमारिका, प्रथमालिका पूर्णभद्रना ‘पंचाख्यान'मां एक स्थळे 'सुकुमारिकाभिग्रह-लब्ध-व्रतादेशः' एवो प्रयोग पांचमा तंत्रनी पहेली कथा 'भिक्षुओनां माथां फोडनार वाळंद'मां मळे छे. भागालाल सांडेसराए 'पंचतंत्र'ना तेमना अनुवादमां (पृ. ३३१-३२, टिप्पण ४) पंचतंत्रनी बीजी परंपराओमांथी सुखमालिका अने सुष्मालिकात्याग एवां पाठांतर नोंधी, हर्टलनो अर्थ टांकी, पोतानुं सूचन आप्युं छे के "अहीं सुकुमारिका एटले गुजराती सुंवाळी 'सूकवीने तळेली पूरी, जे कूणी होय छे' ए पाठ ज होय." तेमणे 'विपाकसूत्र' परनी अभयदेव-सूरिनी वृत्तिमांथी सुकुमारिका-तलन-भाजनानि ए उद्धरण पण आप्युं छे । सुंवाळी त्यजवानो नियम लीधो ए अर्थ बराबर छे'' तेमने आ बाबतमां शंका बतावी छे ते अकारण छे. सुखमालिका/सुष्मालिका ए भ्रष्ट पाठो छे. तरुणप्रभाचार्यना 'षडावश्यक-बालावबोध'मां, शुभशीलगणिकृत 'पंचशतीप्रबोध'मां तेम ज अन्यत्र जैन संस्कृतमां सुकुमारिका वपरायो छे. 'पंचशनीप्रबोध'मां आपेला एक उद्धरणने समजावतां शुभशील कहे छे : ‘कस्मिन् ग्रामे विवाहे जायमाने बालानां प्रातरेवानुकंपायै सुकुमारिकादिना प्रथमालिका दीयते (पृ. १०४). अहीं प्रथमालिका शब्द 'शिरामण'ना अर्थमां छे. 'पाइअसद्दमहण्णवो' मां पढमालिका शब्दनो प्रयोग 'ओघनियुक्तिभाष्य' (गाथा ४७)मांथी, अने 'देशी शब्दकोश'मां 'आवश्यकचूर्णि' (पृ. ८२)माथी नोंध्यो छे.
प्रा. कियाडिया कियाडिया शब्दनो 'पाइअसद्दमहण्णवो' अनुसार 'काननी बुट्टी', 'काननो उपरनो भाग' एवो अर्थ छे. अने ते 'व्यवहारभाष्य'ना पहेला उद्देशकमां वपरायो छ । 'देशी शब्दकोश'मां एने ज अनुसरीने ते आप्यो छे अने 'व्यवहारभाष्य'नी टीकामांथी नीचेनो संदर्भ आप्यो छे :
'तं चेल्लयं कियाडियाए घेत्तुं सीसे खडुक्कं दाउं....'
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[82] अर्थ :- 'ए चेलाने कियाडियाथी पकडीने माथा पर टुंबो मारीने.....'
अहीं कियाडिया = सं कृकाटिका. ए देश्य नहीं, तद्भव शब्द छे. कृकाटिका एटले हेमचंद्रार्ये 'अभिधानचिंतामणि'मां का छे तेम शिरःपीठ-एटले के 'डोक अने माथानी संधिनो पाछलो भाग.' कृकाट शब्द ए अर्थमां 'अथर्ववेद'मां (९, ७, १), कृकाटी वराहमिहिरकृत 'बृहत्संहिता'मां (२, ९) अने कृकाटिका सुश्रुतमां मळे छे.
'व्यवहारभाष्य'ना उपर आपेला उद्धरणमां खडुक्का शब्द खडुग, खडुहा, खड्डया एवां रूपांतरे आगमसाहित्यमां वपरायो होवा- 'देशी शब्दकोश'मां नोंध्युं छे. 'जीतकल्पभाष्य'मां कण्णामोड-खडुहा-चवेडादी एवो प्रयोग छे, त्यां 'कान आमळवो, टाकर मारवी, थप्पड मारवी' एवा प्रकारो आपेला छे. पूरतो संभव छे के उपर्युक्त खडुक्का वगेरे एक ज मूळ शब्दना रूपभेद के लिपिभेद छे, अने ते रवानुकारी छे.
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[83 ] 'अंगविज्जा'मां निर्दिष्ट भारतीय-ग्रीक-कालीन अने क्षत्रपकालीन सिक्का
- ह. भायाणी
सद्गत मुनि श्रीपुण्यविजय वडे संपादित प्राकृत ग्रंथ 'अंगविज्जा' (प्राकृत ग्रन्थ परिषद, क्रमांक १, १९५७)मां ईसवी चोथी शताब्दीनी (तथा तेनी पूर्ववर्ती बेत्रण शताब्दीओनी), जीवननो भाग्ये ज कोई प्रदेश बाकी रहे तेवी अढळक शब्दसामग्रीनो संचय छे. अने संपादके मोटा कदना ८७ जेटलां पृष्ठोमां सविस्तर वर्गीकृत शब्दसूचि आपीने अभ्यासीओने घणी सगवड करी आपी छे.
___ 'अंगविज्जा'मां एक स्थाने धनने लगती विगतो आपतां सुवर्णमाषक, रजतमाषक, दीनारमाषक, णाण(?)मासक, कार्षापण, क्षत्रपक, पुराण अने सतेरक एटला सिक्काओनो निर्देश छ (पृ. ६६, पद्यांक १८५-८१६). बीजा एक स्थाने आ उपरांत अर्धमाष, काकणी अने 'अट्ठा'नो निर्देश छे. अन्यत्र पण बे स्थाने सिक्काओनो उल्लेख छ (पृ. ७२, १८९).
__ आ सिक्काओनुं ग्रंथनी भूमिकामां सद्गत वासुदेवशरण अग्रवाले जे सविस्तर विवरण आप्युं छे ते इतिहासरसिकोना ध्यान पर आवे ते माटे नीचे उद्धृत कयुं छे.
'मौर्यकालथी गुप्तकाल'मां ('गुजरातनो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास', ग्रंथ २, १९७२) रसेश जमीनदारे आमांथी काहापणनो (पृ. १७७) तथा भोगीलाल सांडेसराए काहावण, खत्तपक अने सतेरकनो (पृ. २२७) उल्लेख को छे. 'अंगविज्जा' ना पांचमा परिशिष्टना बारमा विभागमां पृ. ६६ तथा ७२ उपर निर्दिष्ट सिक्काओनी सूचि आपी छे.
___जमीनदारे 'प्राक्-गुप्तकालीन भारतीय सिक्काओ'मां (१९९८), पृष्ठ १३४ उपर 'अंगविज्जा'मांथी काहापण अने खत्तपकनो निर्देश को छे. तेमणे जणाव्युं छे तेम 'विद्यापीठ' द्वैमासिकमां केटलांक वरस पहेलां प्रकाशित लेखमाळा एमना ए पुस्तक रूपे हवे सुलभ बने छे. एमां लेखके सिक्काविज्ञान विशे तथा भारतीय सिक्काशास्त्र विशे सामान्य माहिती आपीने पछी चिन्हित संज्ञा वाळा सिक्काओ, नगर, गण अने जनपदना सिक्का तथा विदेशी शासकोना सिक्का विशे व्यवस्थित माहिती आपी छे. आथी सिक्काशास्त्रने लगता साहित्यनी गुजरातीमां अभाव जेवी दशामां एक प्रमाणभूत पुस्तक लेखे एनुं मूल्य उघाडु छे.
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(२)
'इसी प्रकरण (९, २) में घन का विवरण देते हुए कुछ सिक्कों के नाम आये हैं, जैसे स्वर्णमासक, रजतमासक, दीनारमासक, णाणमासक, काहापण, क्षत्रपक, पुराण और सरक। इनमें से दीनार कुषाणकालीन प्रसिद्ध सोने का सिक्का था जो गुप्तकाल में भी चालू था । णाण संभवतः कुषाण सम्राटों का चलाया हुआ मोय गोल घड़ी आकृति का तांबे का पैसा था जिसके लाखों नमूने आज भी पाये गये हैं । कुछ लोगों का अनुमान है कि ननादेवी की आकृति सिक्कों पर कुषाणकाल में बनाई जाने लगी थी और इसीलिए चालू सिक्कों को नाणक कहा जाता था । पुराण शब्द महत्त्वपूर्ण है जो कुषाणकाल में चांदी की पुरानी आहत मुद्राओं (अंग्रेजी पंचमार्क्ड) के लिए प्रयुक्त होने लगा था, क्योंकि नये ढाले गये सिक्कों की अपेक्षा वे उस समय पुराने समझे जाने लगे थे यद्यपि उनका चलन बेरोक-टोक जारी था। हुविष्क के पुण्यशाला लेख में ११०० पुराण सिक्कों के दान का उल्लेख आया है। खत्तपक संज्ञा चांदी के उन सिक्कों के लिए उस समय लोक में प्रचलित थी जो उज्जैनी के शकवंशी महाक्षत्रपों द्वारा चालू किये गये थे और लगभग पहली शती से चौथी शती तक जिनकी बहुत लम्बी श्रृंखला पायी गई है। इन्हें ही आरम्भ में रुद्रदामक भी कहा जाता था । सतेरक यूनानी स्टेटर सिक्के का भारतीय नाम है । सतेरक का उल्लेख मध्यएशिया के लेखों में तथा वसुबन्धु के अभिधर्मकोश में भी हैं
आया
1
पृष्ठ ७२ पर सुवर्ण - काकिणी, मासक- काकिणी, सुवर्णगुञ्जा और दीनार का उल्लेख हुआ है । पृ. १८९ पर सुवर्ण और कार्षापण के नाम हैं । पृ. २१५-२१६ पर कार्षापण और णाणक, मासक, अद्धमासक, काकणी और अट्ठभाग का उल्लेख है । सुवर्ण के साथ सुवर्ण- माषक और सुवर्ण - काकिणी का नाम विशेष रूप से लिया गया है (पृ. २१६)
अध्याय ५६ में इसके अतिरिक्त कुछ प्रचलित मुद्राओं के नाम भी हैं, जो उस युग का वास्तविक द्रव्य घन था; जैसे काहावण (कार्षापण) और णाणक । काहावण या कार्षापण कई प्रकार के बताये गये हैं। जो पुराने समय से चले आते हुए मौर्य या शुंग काल के चांदी के कार्षापण थे उन्हें इस युग में पुराण कहने लगे थे, जैसा कि अंगविज्जा के महत्त्वपूर्ण उल्लेख से (आदिमूलेसु पुराणे बूया) और कुषाणकालीन पुण्यशाला स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है (जिसमें ११०० पुराण मुद्राओं का उल्लेख है) । पृ. ६६ पर भी पुराण नामक कार्षापण का उल्लेख है । पुरानी
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कार्षापण मुद्राओं के अतिरिक्त नये कार्षापण भी ढाले जाने लगे थे । वे कई प्रकार के थे, जैसे उत्तम काहावण, मज्झिम काहावण, जहण्ण (जधन्य) काहावण । अंगविज्जा के लेखक ने इन तीन प्रकार के कार्षापणों का और विवरण नहीं दिया । किन्तु ज्ञात होता है कि वे क्रमशः सोने, चांदी और तांबे के सिक्के रहे होंगे, जो उस समय कार्षापण कहलाते थे। सोने के कार्षापण अभी तक प्राप्त नहीं हुए किन्तु पाणिनि सूत्र ४.३.१५३ ( जातरूपेभ्यः परिमाणे) पर 'हाटकं कार्षापणं' यह उदाहरण काशिका में आया है। सूत्र ५.२.१२० ( रूपादाहत प्रशंसयोर्यप्) के उदाहरणों में रूप्य दीनार, रूप्य केदार और रूप्य कार्षापण इन तीन सिक्कों के नाम काशिका में आये हैं। ये तीनों सोने के सिक्के ज्ञात होते हैं । अंगविज्जा के लेखक ने मोटे तौर पर सिक्कों के पहले दो विभाग किए - काहावण और णाणक । इनमें से णाणक तो केवल तांबे के सिक्के थे । और उनकी पहचान कुषाणकालीन उन मोटे पैसों से की जा सकती है जो लाखोंकी संख्या में वेमतक्षम, कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि सम्राटों ने ढलवाये थे । णाणक का उल्लेख मृच्छकटिक में भी आया है, जहां टीकाकार ने उसका पर्याय शिवाङ्क टंक लिखा है । यह नाम भी सूचित करता है कि णाणक कुषाणकालीन मोटे पैसे ही थे, क्योंकि उनमें से अधिकांश पर नन्दीवृष के सहारे खडे हुए नन्दिकेश्वर शिव की मूर्ति पाई जाती है । णाणक के अन्तर्गत तांबे के और भी छोटे सिक्के उस युग में चालू थे जिन्हें अंगविज्जा में मासक, अर्धमासक, काकणि और अट्ठा कहा गया है। ये चारों सिक्के पुराने समय के तांबे के कार्षापण से संबंधित थे जिसकी तौल सोलह मासे या अस्सी रत्ती के बराबर होती थी । उसी तौल माप के अनुसार मासक सिक्का पांच रत्ती का, अर्धमासक ढाई रत्ती का, काकणि सवा रत्ती की और अट्ठा या अर्धकाकणि उससे भी आधी तौल की होती थी । इन्हीं चारों में अर्धकाकणि पच्चवर (प्रत्यवर) या सबसे छोटा सिक्का था । कार्पापण सिक्कों को उत्तम, मध्यम और जघन्य इन तीन भेदों में बांटा गया है । इसकी संगति यह ज्ञात होती कि उस युग में सोने, चांदी और तांबे के तीन प्रकार के नये कार्षापण सिक्के चालू हुए थे । इनमें से हाटक कार्षापण का उल्लेख काशिका के आधार पर कह चुके हैं । वे सिक्के वास्तविक थे या केवल गणित अर्थात् हिसाब किताब के लिये प्रयोजनीय थे इसका निश्चय करना संदिग्ध है, क्योंकि सुवर्ण कार्षापण अभी तक प्राप्त नहीं हुए। चांदी के कार्षापण भी दो प्रकार के थे। एक नये और दूसरे मौर्य श्रृंग काल के बत्तीस रत्ती वाले पुराण कार्षापण । चांदी के कार्षापण कौन से थे इसका निश्चय करना भी कठिन है। संभवतः यूनानी
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[86] या शक-यवन राजाओं के ढलवाये हुए चांदी के सिक्के नये कार्षापण कहे जाते थे। सिक्कों के विषय में अंगविज्जा की सामग्री अपना विशेष महत्त्व रखती है। पहले की सूची में (पृ. ६६) खतपक और सत्तेरक इन दो विशिष्ट मुद्राओं के नाम आ भी चुके हैं । मासक सिक्के भी चार प्रकार के कहे गये हैं - सुवर्ण मासक, रजत मासक, दीनार मासक और चौथा केवल मासक जो तांबे का था और जिसका संबंध णाणक नामक नये तांबे के सिक्के से था। दीनार मासक की पहचान भी कुछ निश्चय से की जा सकती है, अर्थात् कुषाण युग में जो दीनार नामक सोने का सिक्का चालू किया था और जो गुप्त युग तक चालू रहा, उसी के तोलमान ये संबंधित छोटे सोने का सिक्का दीनार माषक कहा जाता रहा होगा। ऐसे सिक्के उस युग में चालू थे यह अंगविज्जा के प्रमाण से सूचित होता है । वास्तविक सिक्कों के जो नमूने मिले हैं उनमें सोने के पूरी तौल के सिक्कों के अष्टमांश भाग तक के छोटे सिक्के कुषाण राजाओं की मुद्राओं में पाये गये हैं (पंजाब संग्रहालाय सूची संख्या ३४, ६७, १२३, १३५, २१२, २३७), किन्तु संभावना यह है कि षोडशांश मोल के सिक्के भी बनते थे। रजतमाषक के तात्पर्य चांदी के रौप्यमासक ये ही था। सुवर्णमासक यह मुद्रा ज्ञात होती है जो अस्सी रत्ती के सुवर्ण कार्षापण के अनुमान से पांच रत्ती तौल की बनाई जाती थी।
इसके बाद कार्षापण और णाणक इन दोनों के विभाग की संख्या का कथन एक से लेकर हजार तक किन लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहीए यह भी बताया गया है । यदि प्रश्नकर्ता यह जानना चाहे कि गडा हुआ धन किसमें बंधा हुआ मिलेगा तो भिन्न भिन्न लोगों के लक्षणों से उत्तर देना चाहीये । थैली में (थविका) चमडे की थैली में (चम्मकोस), कपड़े की पोटली में (पोट्टलिकागत) अथवा अट्टियगत (अंटी की तरह वस्त्र में लपेटकर), सुत्तबद्ध, चक्कबद्ध, हेत्तिबद्धपिछले तीन शब्द विभिन्न बन्धनों के प्रकार थे जिनका भेद अभी स्पष्ट नहीं है। कितना सुवर्ण मिलने की संभावना है इसके उत्तर में पांच प्रकार की सोने की तौल कही गई है, अर्थात् एक सुवर्णभर, अष्ट भाग सुवर्ण, सुवर्णमासक (सुवर्ण का सोलहवां भाग), सुवर्ण काकिणि (सुवर्ण का बत्तीसवां भाग) और पल (चार कर्ष के बराबर)।'
उपरना विवरणमा जे सतेरक नामनो सिक्को छे ते यूनानी स्टेटर (stater) होवानु अग्रवाले तेम ज सांडेसराए का छे । परंतु बीजी एक शक्यता पण विचारी
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[87] शकाय । केटलाक भारतीय-ग्रीक सिक्काओ पर अग्रभागे ग्रीक लिपिमां अने पृष्ठभागे खरोष्ठी लिपिमा जे लखाण छे तेमां राजाना एक बिरुद तरीके Soteras / त्रतरस ( = त्रातारस्य) आपेलुं छे. आ Soter परथी संस्कृत रूप 'सतेरक' थयुं होय, जेम रुद्रदामानो सिक्को ते 'रुद्रदामक' तेम सतेरनो सिक्को ते 'सतेरक' : 'पारूथक द्रम्म', 'स्पर्धक' ए सिक्कानामोमां पण 'क' प्रत्यय रहेलो छे. Soter अने 'सतेरक', उच्चारसाम्य अधिक छे. जेम Apolodotas नुं प्राकृत 'अपलदत' करायुं, तेमां ग्रीक ने माटे 'अ' मळे छे, ते ज प्रमाण Soter ना Oने स्थाने 'सतेरक' मां 'अ' छे.
संस्कृतमां शौटिर 'अभिमानी', शौटीर्य 'अभिमान, पौरुष' ए शब्दो महाभारत-कालीन छ । ए उपरांत शौण्डीर तथा रूपांतरे शौण्डिर अने शौडीर तथा नाम शौण्डीर्य के शौण्डर्य ए प्रमाणे मळे छ । 'वीर' अने 'वीरता' एवा अर्थ पण नोंधाया छे. प्राकृतमां सोडीर, सोंडीर 'शूर', 'शूरता' एवा शब्दो छे. मारी एवी अटकळ छे के मूळ शब्द सं. शौटीर, प्रा. सोडीर होय, अने ए आ ग्रीक - Soter 'वाता' उपरथी संस्कृत-प्राकृतमां लेवायो होय । शौण्डीर, सोंडीर ए रूपांतरो पछीथी कदाच शौण्ड 'व्यसनी, निपुण' साथे जोडी देवायाथी थया होय ।
प्रियतमा वडे प्रियतमनुं स्वागत ईसवी बीजी सदीमां थयेला प्रतिष्ठानना राजा हाल सातवाहननो, विविध कविओए रचेलां प्राकृतभाषानां मुक्तकोनो जे संग्रह, 'गाथासप्तशती' के 'गाथाकोश'ने नामे जाणीतो छे, तेनी १४०मी गाथा नीचे प्रमाणे छ : रच्छा-पइण्ण-णअणुप्पला तुमं सा पडिच्छए एतं । दार-णिहिएहिं दोहिं वि मंगल-कलसेहिं व थणेहिं । अर्थ : तारा आववाना मार्ग पर दृष्टिनां नीलकमळ बिछावीने अने द्वारप्रदेश पर स्तनकलश राखीने ते तारुं स्वागत करवा ऊभी छे. अहीं, आवी रहेला नायकना स्वागत माटे पुष्पो अने मंगळ कलशने स्थाने प्रतीक्षा करती नायिकाना नयनकुवलयथी थतो दृष्टिपात अने तेना कलश समा स्तन होवानी कल्पना छे. बीजा एक मुक्तकनो अनुवाद हुं नीचे आपुं छु : तरुणीना स्तनकलश उपर झूलती, रातांलीलां किरणांकुरे स्पुरती माणेकनीलमनी माळा : प्रीतमना हृदय-प्रवेश-उत्सव माटेना मंगळ पूर्णकलश उपर तोरणे झूलती वंदनमालिका.
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आ विचारनुं विस्तरण 'अमरुशतक'ना २५मा मुक्तकमां जोवा मळे छे. के. ह. ध्रुवे पोताना अनुवादमां उपर्युक्त प्राकृत गाथानो तुलना माटे निर्देश करेलो छे. (ते ज प्रमाणे जोगळेकरे पोताना 'गाथासप्तशनी' ना अनुवादमां 'अमरुशतक'नुं मुक्तक तुलना माटे आप्युं छे.) अमरुनु ए मुक्तक तथा के.ह.ध्रुवनो अनुवाद हुं नीचे आपुं छु : दीर्धा वंदनमालिका विरचिता दृष्ट्यैव मेंदीवरैः पुष्पाणां प्रकर: स्मितेन रचितो नो कुंद-जात्यादिभिः । दत्तो स्वेदमुचापयोधर-भरेणार्यो न कुंभांभसा स्वैरेवायवयैः प्रियस्य विशतस तन्व्या कृतं मंगलम् ॥ ('दृष्ट्यै व'ने बदले पाठांतर 'नेत्रैर् विनें०') 'द्वारे वंदनमाळ दीर्ध सुहवे नेने, न नीलोत्पले पूरे मर्कलडे ज चोक जुवती, ना जाईजुई फूले ने अर्धे अरपे पयोधरजळे, ना कुंभकेरा पये व्हालानां पगलां वधावी विध ए अंगे ज तन्वी लिये.'
आ मुक्तकना भाव, संचारी, रस वगेरेनुं विवरण करतां ध्रुवे कह्यु छे : 'अहीं पहेला चरणमां औत्सुक्य, बीजा चरणमा हास अने त्रीजा चरणमां स्वेद आदि भाव प्रतीत थाय छे, ते बधा हर्ष नामे संचारी भावना सहकारी बनी प्रवासानंतर संभोगशृंगारनुं पोषण करे छे. 'सरस्वती कंठाभरण' प्रमाणे समाहित अलंकार छे, ते नायकना परितोष रूपी ध्वनि- अंग छे. आ विलास नामे स्वभावज अलंकारनो दृष्टांत छे. आत्मोपक्षेप नर्म छे. व्यतिरेक अलंकारनो ध्वनि छे'. (पृ. २५-२६) । भोजकृत 'शृंगारप्रकार मां संभोगशृंगारना निरूपणमां. रतिप्रकर्षना निमित्त लेखे जे प्रियागमन-वार्ता, प्रियसखीवाक्य वगेरे दर्शाव्यां छे, तेमां एक प्रकार मंगलसंविधाननो छे. प्रियना स्वागत माटे दधि, दुर्वांकुर वगेरे जोगववां ते मंगलसंविधान. तेनुं जे दृष्टांत आप्युं छे, ते अपभ्रंश भाषामां होईने तेनो पाठ घणो भ्रष्ट छ (पृ. १२२१). तेनुं पुनर्घटन करतां जे केटलुं समजाय छे तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे : प्रियने आवतो जोतां ज हर्षावेशथी तूटी पडेल वलय ते श्वेत जव, हास्य स्फुयुं ते दहीं, रोमांच थयो ते दूर्वांकुर, प्रस्वेद ते रोचना(?), वंदन ते
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मंगळपात्र, विरहोत्कंठा अदृश्य थई ते उतारीने फेंकेलुं लूण, सखीओनी (आनंद)अश्रुधारा ते जळनो अभिषेक, विरहानल बुझायो ते आरती-आ रीते प्रियतमना आगमने मुग्धाए मंगळविधि संपन्न कर्यो । (वी. एम. कलकर्णी संपादित Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poctics. भाग १, परिशिष्ट १, पृ. ३४)। . आनो ज जाणे के पडघो सोमप्रभे 'कुमारपालप्रतिबोध मां पाड्यो छे. कोशा गणिकाए स्थूलभद्रने पोताने त्यां आवतो जोई कई रीते तेनुं पोतानां अंगो वगेरेथी प्रेमभावे स्वागत कर्यं ते वर्णवतां कवि कहे छे : कलिउ दप्पणु वयण-पउमेण रोलंब-कुल-संवलिय, कुसुम-वुट्टि दिट्ठिहि पयासिय । । पल्हत्थ-उवरिल्ल थण, कणय-कलस-मंगल-दरिसिय ।। चंदणु दंसिउ हसिय-मिसि, इय कोसहिं असमाणु । घर पविसंतह तासु किउ, निय-अंगिहिं संमाणु ॥
(१९९५नुं पुनर्मुद्रण, पृ. ५०६, पद्यांक १४) 'वदनरूपी दर्पण धर्यु, दृष्टिपातो वडे भ्रमर-मंडित कुसुमवृष्टि करी, उत्तरीय खसी जतां प्रगट बनेल स्तनो वडे मांगलिक कनककलश दर्शाव्या, हास्यवडे चंदन - एम घरमा प्रवेश करता स्थूलभद्रनु कोशाए पोतानां अंगो वडे अनुपम संमान कयुं.' छेवटे विश्वनाथना 'साहित्यदर्पण'मांथी : अत्युनत- स्तन-युगा तरलायताक्षी, द्वारि स्थिता तदुपयान-महोत्सवाय । सा पूर्ण-कुंभ-नव--नीरज-तोरण-स्रक्-संभार-मंगलमयत्न-कृतं विधत्ते ॥ 'जेनुं स्तनयुगल अति उन्नत छे, अने नेत्रो चंचळ तथा दीर्घ छे एवी ते तरुणी प्रियतमना आगमननो उत्सव मनाववा द्वारप्रदेशमां ऊभी छे. तेथी पूर्णकुंभ, नीलकमळ अने तोरणमाळानी मंगळसामग्री कशा ज यत्न वगर उपस्थित थई गई छे.' . आम, मूळे बीज रूपे जोवा मळतुं एक काव्यात्मक भावनुं वर्णन उत्तरोत्तर परंपरामां कविओ द्वारा केवु विस्तरण पामतुं जाय छे तेनुं आ एक सरस उदाहरण छे.
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[90] 'जुगाइजिणिदचरियं' ना एक पद्यनो आधार
वर्धमानसूरिए तेमनी 'जुगाईजिणिंदचरिय', वगेरे कृतिओमां पूर्व परंपराओनो ठीकठीक लाभ लीधो छ । 'जुगाइजिणिंदचरिय' (रचनाकाल ई.स. ११०४)मां ऋषभनाथना धनसार्थवाह तरीकेना पहेला भवना वर्णनमां धन एक सवारे जे मंगळपाठक वडे उच्चारातुं मंगळ पद्य सांभळे छे ते नीचे प्रमाणे छे (मुद्रित पाठ अशुद्ध होईने शुद्ध करी आप्यो छे) : कुमुय-वणमसोहं पउम-संडं सुसोहं
अमय-विगय-सोयं घूय-चक्काण चक्कं । पसिढिल-कर-जालो जाइ अत्थं मयंको उदयगिरि-सिरत्थो भाइ भाणू पसत्थो ॥
(पृ. ४, पद्यांक ४३) संस्कृत छाया : कुमुद-वनमशोभं पद्मषंडं सुशोभं
अमद-विगत-शोकं घूक-चक्राणां चक्रम् ।। प्रशिथिल-कर-जालो याति अस्तं मृगांक
उदयगिरि-शिर-स्थो भाति भानुः प्रशस्तः ॥ आ नीचे आपेला माघकृत 'शिशुपालवध ना जाणीता पद्य (११, ६४)नो ज प्राकृत अनुवाद छ : कुमुद-वनमपनि श्रीमदंभोज-खंडं
त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः । उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं
हत-विधि-ललितानां ही विचित्रो विपाकः ॥ वर्धमानसूरिए आनुं चोथु चरण छोडी दीधुं छे ।
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Jain Monumental Paintings of Ahmedabad
Dr. Shridhar Andhare
Pilgrimage is one of the primary institutions in India, which has exercised great influence on the minds of the people of all dimensions. According to Kashi Khanda of Skanda Puranal there are two kinds of Tirthas namely, Manas Tirtha and the Bhauma Tritha i.e. spirirtual and physical objects of pilgrimage. It is said that those whose minds are pure, who are men of virtue and those who are self controlled and saintly beings sanctify the places they visit and theniselves become peripatetic Tirthas. In the Tirtha Yatra chapters of Mahabharata? it is mentioned that,"It is the purity of mind and senses, wisdom, truth, freedom from anger, pride and sins and above all treating all creatures as their own selves is the essence of all pilgrimage."
In the second category of physical Tirthas are included the Dharma Tirtha i.e. places noted for men of learning; the Artha Tirtha i.e. centers of trade and industry on the banks of a confluence; the Kama Tirtha i.e. where men of worldly desires enjoyed life in full luxury and the Moksha Tirtha i.e. secluded spots among natural surrounding fit for meditation. More often all or more than one of the above factors nike a place famous as a place of pilgrimage such as Varanasi, Avanti, Dwarika and many others which are common to other religions including Jainism. Buddhism inspired Buddha's disciples in creating holy spots. The same phenomenon holds good for Hinduism and Jainism. We observe that even the aboriginal cult figures of Yakshas and Nagas were assimilated to fulfill the needs of the Buddhist, the Brahminical and Jain pantheons which gave rise to new Tirthas. At this point of time the Sthala Mahatmya' evolved and regarded each Tirtha as the epitome of the entire country, 1. N. P. Joshi. Skanda Purana (Marathi Trans.) sake 1905. Pune. See
Kashi Khanda (Uttarardha) pp. 197-252. 2. Mahabharata. Aranyaka Parvan. ch.80. 3. ob-cit.
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The ancient Jain tradition, rich in its system of philosophy, religion and ethics presents in its Tirthas an equally interesting cross section of Indian cultural heritage. This vast material is recorded in the Tirthamala, or the memoirs of the Jain pontiffs, of the Sanghas, Practically all the great centers of civilization were included among the Jain Tirthas such as Mathura, Kampilya, Ahichhatra, Hastinapur, Rajagraha, Kaushambi, Ayodhaya, Mithila, Avanti, Pratisthana, Champa(Bhagalpur), Pataliputra, Sravasthi, Varanasi, Prayag, Nasikeya, Prabhas, Dwarika and many others.
Acharya Jinabhadra Suri (ca. 14th cent.) preserved the records of the Jain religious tradition in his Vividha-Tirtha-Kalpa, a compendium of hymns and stotras composed by these wandering religious teachers, constitute a valuable account of their literary activities and provide a religious history of the Sanghas. The heads of such pilgrimages were called Sanghapatis who organized such activities under the guidance of some spiritual teacher or Ācharaya and undertook its financial responsibility. It is this pious act which earned them the honorific title of Sanghapatis, Sanghvi or Sanghi in Hindi, Gradually, this concept gave a great impetus to the Tirtha Yatra activity among the Jain coniniunity and achieved for it a vitality and continuity unknown elsewhere. Thus, it is apparent that like other sects, the Jains also had and still have their Tirhtas or holy places all over India. They are invariably located on picturesque hilltops which are difficult to access, but which provide undoubtedly, the most natural surroundings for concentration. Famous among them are Satrunjaya and Girnar in Gujarat, Samimeta Shikhara in Bihar and Astapada (the exact location of this Tirtha in geographical terms is not clear, though it is ragarded as one of the Tirthas by the Jains).
It is customary for the Jains to visit the Tirtha of Satrunajaya at least once in their lifetime to gain wisdom because this Tirtha is most sacred to them. For those who are unable to visit the Tirtha, the Jains created a radition of commissioning such painted Patas (cloth banners) illustrating the Tirthas in a symbolic and cartographic manner. A number of such banners have been published by the
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[ 93 ] author in the recent catalogue of “The Peaceful Liberators."** These banners are hung oriented toward the direction of the Satrunjaya hill, at sacred jain locations such as temples, Upasrayas (temporary resting places for itinerant Jain monks and nuns) and other such institutions on the day of Kartik sud punam, i.e. on a full moon day of the month of Kartika (October-November) for public viewing. On this day thousands of devotees visit and worship the Pata and the Tirtha of Satrunjaya is thrown open to all from this day. As a result of this religious belief wealthy Jain families often commissioned painting of Tirtha Patas mainly on cloth. Therefore we see a number of such banners surviving even today. Moreover, such Patas were also made on wooden planks, in plaster work on temple walls and also carved in stone in low relief, to be displayed inside the temples. The earliest examples of these can be seen at the Osian and the Ranakpur temples in Rajasthan which date back to the 11th and the 15th centuries respectively. :
It is generally observed that smaller Panchatirthi Patas i.e. banners showing five Trithas, were of early dates and were by and large preserved in folded or scroll forms for easy portability. Subsequently the size of the Patas become large as they were in tended to be displayed in Jain public places for big audiences. Some of these Patas bear inscriptions mentioning the place, time of creation and also the names of the benefactors etc. Two such interesting specimen of Vividha Tirthi Patas? are dicussed here in detail. These form the subject matter of this paper.
4.
5. 6.
Pratapaditya Pal. The Peaceful Liberators. Jain Art from India. LACM 1994. See Jain Monumental Paintings. U.P.Shah. Vardhamana Vidya Pata. JISOA Vol.X. 1942. pp 42-51. Shridhar Andhare.“A note on the Mahavira Samavasarana (pata). Chhavi I. Golden Jubilee Volume. Bharat Kala Bhavan, Benares, 1972. U. P. Shah. Treasures of Jain Bhandaras. L. D. Series 69. Ahmedabad 1978. col. pls. V and VI; B+W pls. 131-133. Also see Shridhar Andhare. painted Banners on cloth: Vividha Tirtha Pata of Ahmedabad. Marg, Homage to Kalamkari. Bombay, 1979, p. 40.
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Both the Patas are in a vertical format, the longest one measuring 4.5 x 1.20m. of the Samvegi Jain Upasraya and the other somewhat shorter measuring 3.5 x 1.08m. of the Anandji Kalyanji Pedhi, in Ahmedabad diplay identical subject matter of illustrating various Tirthas in a symbolic manner. Both have extensive colophons and Sanskrit text relating to pictures on the Pata describing each, line by line. Such a practice is noted here for the first time.
Apsrt from mentioning the name of the benefactor as Seth Shantidas of Ahmedabad, the Jain magnate of the Mughal period, the scribe mentions a succession of the great Jain monks of the late Akbar - early Jehangir period starting from Shri Hiravijayji to Vijayasena Suri to Rajasagar Suri to Buddhisagar Suri and others by whose commands the Pata was ordered by Seth Shantidas. The end of the long colophon mentions the following in Devanagari script.
"स्वस्ति श्री. विक्रम संमत् १६९८ वर्षे ज्येष्ठ सित.......... महाराजाधिराज पातशाह श्री. अकबर प्रतिबोधक.... हीरविजयसूरि पट्टोदय गिरि दिनकर .... भट्टारक श्री. विजयसेन सूरिश्वराणाम् भट्टारक श्री. राजसागर सूरि चरणानाम्, युवराज भट्टारक श्री. बुद्धिसागर सूरि प्रमुखानेक वाचना दि चतुर परिकर चरणानाम् उपदेशात् अहिमदाबाद वास्तव्ये ओसवाल ज्ञातीय श्री. चिंतामणी पार्श्वनाथ प्रासादादि, धर्म, कर्म, निर्माण, निष्णात शा. श्री. शांतिदासेन सकल मनुष्य योग्य पंचभरत, पंचैरावत, पंचमहाविदेहातीतानागता ? वर्तमान २०, विरहमान ४, शाश्वतजिन - शाश्वत जिन तीर्थपट श्री. शत्रुजय, गिरिनार, तारंगा, अर्बुत, चन्द्रप्रभु, मुनिसुव्रत, श्रीजिराईला पार्श्वनाथ, च, श्री. नवखंडा पार्श्वनाथ, देवकुल पाटक, मथुरा, हस्तिनागपुर, कलिकुंड, कलवृद्धि करहाटक साचोर आदि नाम युक्त - सप्तविषत नामं - इदम्."
Though the last few lines of this colophon are not legible, the rest undoubtedly confirms that the Pata was commissioned by Seth Shantidas living at Ahmedabad in A.D. 1641. The Samvegi Upasraya Pata has also similar text but certain portoins have been left blank. However both colophons need detailed study.
From this elaborate colophon it would be apparent that Seth
8.
M.S.Commisseriat. A History of Gujarat. Vol. II. Orient Longmans. Bombay. 1957. Ch. XIII. p. 140-143.
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[95] Shantidas was a devout Jain and spent his great resources freely on purposes enjoyed by his faith. His career and activities flourished during the reigns of Emperor Jehangir and Shah Jahan and his great resources as a financier, and business connections at the inperial court as a jeweller, enabled him to enjoy considerable favour and influence at the imperial court at Delhi. He had attained a very high social position and was made the first “Mayor of Ahmedabad" by social voice. During the course of his magnificent career he built the temple of Chintamani Parsvanath in a suburb of Ahmedabad.
According to Chintamani Prasasthi', a Sanskrit verse, written in A.D. 1640, on the basis of the original copy found by Muni Jinavijayaji in Ahmedabad, this temple was begun in A.D. 1621 during the regin of emperor Jehangir by Seth Shantidas and his brother Vardhaman. In view of Jehangir's happy relations with Jain leaders and his tolerance of their religion, the construction of the temple was finally completed in A.D. 1625. This monument was seen by an itinerant German traveller Mendelslo, who confirms that after his visit Aurangzeb converted this teniple into a masjid. Another French traveller by the name of M.de Thevenot who visited the city in A.D. 1666, writes that,"The inside roof of the mosque is pretty enough and the walls are full of the figures of men and beasts etc.” This brings to light the fact that there was painting activity in Ahmedabad in the early 17th century. Moreover, Shah Jahan also issued a number of farmans in favor of Shantidas which throw significant light on the activities of that period. A detailed study of these documents is on the way.
In yet another instance quoted in the Jain Rasamalało which, apart fron giving a vivid account of Shantidas's career mentions in Gujarati that, "He had got made several Tirtha Patas of Siddhachal and others fron emperor Akbar.'
મહાન અકબર અને જહાંગીર બાદશાહ પાસે તેમનૂ સારી રિતે માન હતુ. અકબર બાદશાહ પાસેથી તેમણે સિદ્ધાચલ તીર્થાદિના પટ્ટાઓ કરાવી લીધા હતા.” 9. ob-cit 10. Jain Rāsamālā (Gujarati). Pt. I.Srimad Buddhisagarji Grantha mala. No.
24. Bombay 1902. p. 8.
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[96]
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It is well known that Ahmedabad and Patan in Gujarat have been prolific conters of Jain and secular paintings on paper and cloth till about the middle of the 15th century, of which the Champaner Panchatirthi Pata11 of A.D. 1433, and the Vasanta Vilasa scroll of A.D. 145112. painted at Ahmedabad are the major landmarks. It is very likely that due to the frequent visits of the Mughal royalty in and around Gujarat in the late Akbar-early Jehangir period that practicing Gujarati painters shed some of their earlier characteistic features and adopted new conventions of dress and landscape as evidenced by the Matar Sangrahani Sutra of A.D. 1583 now in the collection of the L.D.Museum in Ahmedabad. At the same time the cultural scenario of Ahmedabad appears to be gradually changing. Obviously, Seth Shantidas's cordial relations with the imperial Moghuls at Dehli may have brought about certain changes which are reflected in the arts and crafts of that period. Art of miniature painting in particular shows a new understanding in the first quarer of the 17th century in the so called popular Moghul documents but with a strong Rajasthani and Gujarati flavor. This material was discovered and published in the last two decades of which the MS. of Anwar-i-Suhaili of A.D. 160114 painted at Ahmedabad, the Cowasji Jehangir folio of Gita Govinda15 and a set of horizontal Ragamala paintings16 published by Saryu Doshi and Tandon in Marg and the latest set of Bhagavata Purana11 discovered by the author, all
11. Moti chandra. Jain miniature Painting fron Western India. Ahmedabad 1949. Figures. 177,182, also see N.C.Mehta, A Painted Roll from Gujarat. A.D.1433 Indian Arts and Letters Vol. VI. pp. 71-78. 12. Norman Brown. The Vasanta Vilasa. New Haven 1963 13. Moti chadra and U.P.Shah. New Documents of Jain Paintings. Mahivara Jain Vidyalaya. Pt. I. Bombay. 1968. p. 356.
14. R.Pinder Wilson. Paintings from the Islamic Land. Oxford 1969, pp.
160-171.
13
15. Karl Khandalavala and Moti Chandra. Miniatures and sculptures from the late Sir Cowasji Jehangir Bart, Bombay 1965. col. pl.D. Fig. 69.
16. Saryu Doshi and R.K.Tandon. Marg. 1981. Notes.
17. An Illustrated MS. of Bhagvata Purana. (Private collection.) Unpublished.
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[97] may belong to Gujarat or may have been painted in Gujarat up to ca. 1650 A.D.
In respect of building activity of Gujarat in the early 17th century, especially at the mosque of Sarkhej ka Roza in Ahmedabad; there are extant remains of wall paintings above the arches and on the interior of tombs of some of the subsidiary mosques in the contemporary Mughal style, which stylistically resemble the two Suri Mantra Patas of the early 17th century, published by Sarabhai Nawab 8. These Patas have been lost but they impart a glimpse of the style that prevailed in Ahmedabad in the early 17th century.
The Pata from Prachya Vidya Pratisthana, Paladi, Ahmedabad which represents Vividha Tirhtas again is an example of the type of painting that was done at Ahmedabad in the early 17th century. It is a curious mixture of Mughal and Jain elements with male and female figures clad in contemporary Mughal costume. The next two large vertical Patas from Samvegi Jain Upasraya and Anandji Kalyanji Pedhi respectively, hereafter culled no. 1 and no. 2 are quite similar in many respects and are perhaps painted by the same hand at the same time. They are divided into four parts horizontally. The only difference being that the first has the colophon on the top whereas the second has it at the bottom.
The general arrangements of Patas shows the ground completely filled with smaller rectangles of different colours showing seated Tirthankaras and other deities in rows numberin 904. The first register from the top has a Shikhara shaped arrangement with ascending steps having rectangles filled with cosmological calculations, smaller and larger temples and other figures etc. The second register has two Tirthas, Satrunjaya above and Girnar Garh below, divided by a second line of boundary wall. The drawing and painting in this square is similar to what one observes in the Mewar Ramayana of 1649 by Manohar. This does not appear to be very far in date from the Patas presently under discussion. In this semistylized landscape the artist has tried to give a number of symbolic
18. Sarabhai Nawab. Suri Mantra Vidhi, Ahmedabad 1971.
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. [98] and historic details which can be interpred. It shows a number of teniples, Kundas, lakes and ohter details, The last register has various other Tirthas including Astapada and Sammeta Sikhara. The arrangement here is so complex that it becomes rather difficult to identify. However, the following; Sri Satrunjaya, Girinara, Taranga, Arbhuta, Chandraprabhu, Muni Suvrata, Sri Giraila Parsvanath, Kalavriddhi, Karahataka, Scahor etc. are included in the text. The last two examples are late and belong to the Anandji Kalyanji Pedhi and the Samvegi Jain Upasraya respectively.
I acknowledge the courtesy of the institutions which have allowed me access to their material in the preparation of this paper. I am also thankful to Shri Laxmanbhai Bhojak and Shri Amrutbhai Patel for their help in reading the colophon.
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Interpretation of a Passage in the Bhagavadajjukiya
H. C. Bhayani
In the well-known farce Bhagavadajiukiya by Mahendravikramavarman (7th cent. A.C), the Yama's agent taking with him the snatched away life of the courtesan, decribes the route he traverses to reach Yama's land in the following verse. (no.25) :
गङ्गातीर्य विन्ध्यं शुभ-सलिल - वहां नर्मदामेष सह्यं
गोलेयीं कृष्णवेण्णां पशुपति - भवनं सुप्रयोगां च काञ्चीम् । कावेरी ताम्रपर्णीमथ मलयगिरिं सागरं लङ्घयित्वा । वेगादुतीर्य लङ्कां पवन - सम-गतिः प्राप्तवान् धर्म- देशम् ॥
Lockwood and Bhat have understood goleyim as qualifying Kṛṣṇavenna and meaning 'whirling'.
The translations of Beloni-Filippi, Van Buitenin and C. Minakshi are not accessible to me. I think goleyim (better gauleyim) here is a synonym of the river Godavari on the following grounds.
The river Godavari is also known as Goda in later Sanskrit. Its Prakrit form gola has been widely used, and adopted in late Sanskrit also. In medievel literature Golla is known as the name of a country. Probably it is based on golya, 'the country around the river Gola'. golla- occurs in Hemacandra's Parisiṣṭaparvan (8,194) (MW) and in Prakrit in Malayagiri's commentary on the Avasyaka (PSM). In the Raula-vela (in a mixture of Late Apabhramsa and Early Indo-Aryan), datable in P. 12 cent. A.C. occur golla ‘a person from the Golla country' and golla ‘a girl from the Golla country'.
In view of this gauleyi in the third line of the cited verse can be taken to mean the river of the Golya country. It is in line with the other river names occurring in the verse Ganga, Narmadā, Kṛṣṇā/ Kṛṣṇaveņņā, Kaveri and Tamraparni.
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[100]
References : Bhagavadajjukiya. Ed., Anujan Accan. 1925.
King Mahendravarman's plays. Edited and Translated by M. Lockwood, A. Vishnu Bhat. 1978, 1991.
(The Preface and the Bibliography give infromation about other editions and translations of the Bhagavadajjukiya).
Raula-vela of Rodā. Ed. H. C. Bhayani. 1994.
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मेरुरत्न-उपाध्याय-शिष्य-कृत पांडवचरित्र-बालावबोध ('अनसंधान'-४, पृ. ८५ थी चालु)
(अंबा-अंबिका-अंबालिका-हरण) विचित्रवीर्य-विवाहह रेसि चर मोकलिया चिहु दिसि देसि ॥ १२६ जे देखु कंन्या गुणवंति विनयवंति जे वलि रूपवंति । बलि छलि ते कंन्या आणेसुविचित्रवीर्य हुं परणावेसु ।। १२७
(बोली) इसइ प्रस्तावि एकि चर कासी-नगर-थिका आविया छइं । तेहे गांगेउ तणा पद कमल प्रणमी-नइ वार्ता कहई छई । सांमी, सांभलि कंन्या त्रिहुं-नी वार्ता । आव आव (?) अपसरा भांजी नइ अकेकी घडी छइ । कासीपुरी नगरी कासी-नरेश्वर राजा राज्य करइ । तेह-नइ कासीश्वरी पटरांणी । तेह-नइ त्रिण्णि कुमरि । त्रिंण्ण-इ योवन संप्राप्त हुई छई । तिणि कासी-नरेश्वरि विश्व माहिला गमा अनेकि राज-कुमर जोआव्या । पणि तीह-नी जांमलिई वर कुण्हइ न मिलई । ति-वार अम्हे इसिउं विमासिउं । ईहं त्रिहुं कंन्यानी जांमलिइ एक वर राजा विचित्रवीर्य छइ पणि बीजु वर नथी । ति-वारं गांगेइ कहिउं । ते कंन्यानां नाम सियां? चर कहई छई, सांभलु । वडी नांम अंबा, तेह लुहुडी-नुं नाम अंबिका, त्रीजी-नुं नाम अंबालिका । पणि देवां ही दुर्लभ । वली गांगेउ कहइ छइ । एक वार मगावीअई। जइ मागी दि त लिइं। नहीतरि बलात्कारि लेई आविसु । चर वली कहई छई । सांमी, मागिQ-तागिq रहिउ । अत कांई सयंवरा-मंडप मंडाणुं छइ । महा-मनोहर सुवर्णमय रत्नमय पीठ । पित्तलामय रुप्यमय भीति । थांभा कुंभी सिरां पाट पीढ सुवर्णमइ ऊपरि रत्न-कंबल वस्त्र तेहना उल्लोच । चंद्रोआनां मंडाण । ति-वार-पूठिई मणि-मुक्ताफल-तणां झूबिका । अनेकि किकिणि-तणा झणत्कार। कोरणी-तणी वितिपिति । चित्रांमणतणी विचित्राई । जल-यंत्र मंडाणा छइं । अनेकि मंचोन्मंच बंधाणा छइं । राय राणा मंडलीक प्रतिइं कुंकुम-पत्रिका मोकली छई । राज-कुमर-नी कोटि मिली छई । पणि जि काई आपणपा हूइ निउंचं नथी । ते सत्य-नुं कारण भणी । काई राजा विचित्रवीर्य बेडीवाहा-नी बेटी-नु बेटु । एत न मांन विचारीअइ छइ । सत्यवती-नु मूल संबंध न जांणइ ।
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[ 102 ] गांगेउ कहइ छइ । पाधएं आपणपा निउंतरं नथी मोकलिउं ? तु जोए माहरा हाथ । तिम करुं जिम खातां नवि सरई । ति वारं वली पइला कहई छई । स्वामिन, लगन-आडा पांच दिन छई । ति वात सांभली अनइ गांगेइ चर पहिराविया । ऊठिउ गांगेउ । दिव्यमइ रथ एक सज कीधु । छत्रीस डंडाउध तेहे भरिउ पूरिउ । आपणपइं हाथि कोडंड धनुष लीघु । तोला यमल भाला भाथा भीडिया । चालि कासी-पुरी-भणी ।
__पांचमइ दिनि प्रभात-समइ गांगेउ रथि बइठु सयंवरा-मंडप-माहि पहुतु । राज-कुमर-ना लाख कोडि देखिवा लागु । आभरणि अलंकरणि परिवारि परवरिया। अनेकि सिंघासण मंचोन्मंचि बइठा नित्य प्रेक्षणीक करावई छई । इसि प्रस्तावि कासी-नरेश्वर-राजा मंडप-माहि आविउ छइ रांणी-सहित । त्रिंण्णइ [३ख] कुमरि प्रतीहारी-सहित आवी छइं । ते कुमरि-ना सत्य-नइ तेजि करी राजकुमर-नां तेज आछां कियां । त्रिंण्णि-इ कुमरि त्रिहुं-ने हाथे वर-माला । मंडप माल्हती माल्हती प्रतीहारी मुहरं थिकी वर-तणां व्रणन करी वर दिखालइ छइ ।
छत्रीस लाख कनोज-देस-नु सांमी कनोज-राय-नु कुमर कर्ण । गमइ? न गमइ । वली आघेरडी चाली प्रतीहारी । आ सात-लक्ष कर्णाट-देश-तणु स्वामी विपुलराजा तेह-नु कुमर जइतमाल । गमइ ? अत ना । वली आघेरडी चाली प्रतीहारी । आ नव-लक्ष कूकण-देश-तणु स्वामी बलिचंड राजा तेह-नु कुमर बलमित्र । गमइ ? अत ना । वली आ नव-सहस्र नवसारी-देस-तणु स्वामी राजा रूपसेन तेह-नु कुमर ससिवदन । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ साठ-सहस्र केकिंधा, तेह-नु स्वामी केतु राजा, तेह-नु कुमर सूर्यसेन । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ बत्रीस-लाख मरहट्ठ-नु स्वामी महीपाल राजा, तेह-नु कुमर प्रद्योतन । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ मालवा देस-नु स्वामी धरवीर राजा, तेह-नु कुमर प्रतापमल्ल । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ नव- सहस्र लाड देस-नु स्वामी लीलांगद राजा, तेह-नु कुमर चंद्रसेन । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ नव-सहस्र सुराष्ट्र देस, जेहनु स्वामी आनंददेव राजा, तेह-नु कुमर कर्णराज । गमइ ? अत ना । वली प्रती०। आ पांचालदेस-नु स्वामी पांचाल राजा, तेह-नु कुमर विद्युत्प्रभ गमइ ? अत ना। वली प्रती०। आ कच्छदेस-नु स्वामी कपोल (?) राजा, तेह-नु [कुमर] सुंदर । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ नव-लाख सिंधु देस-नु स्वामी राजा सवेर
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[ 103 ] नु कुमर दधिपूर्ण । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । आ मरु-देस-नु स्वामी कृष्णदेव राजा-नु कुमर महीनाथ । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । अर्बुदाचलदेसनु स्वामी प्रहराज राय-नु कुमर राजस्यंघा । गमइ ? अत ना । वली प्रती० । दस-सहस्र मेदपाट-नु स्वामी सहस्रमल्ल-नु कुमर कलाकर्ण ! गमइ ? अत ना। वली प्रती० । सवालख-नु स्वामी मल्लराज तेह-नु अखइराज कुमर गमइ ? अत ना। वली प्रती० । ऊंडडविहारदेस-नु स्वामी गंगाधर राजा-नु कुमर गंगदत्त । गमइ ? अत ना ।
तिहां थिकी त्रिंण्णइ चाली अनइ गांगेउ-नइ रथि आवी छई । प्रतीहारी कहइ छइ, साठि लक्ष कुरूक्षेत्र देस, ए तेह-नु स्वामी गांगेउ बोलीअइ, जान्हवी गंगा-तणा उदर-नु ऊपनु, स्यांतन-राय-तणु पुत्र, सोभाग-सुंदर, असम साहसीक मल्ल । सहस्रकिरण सूर्य-नइ प्रतापि, सोल-कला-संपूर्ण जेह-नी किरणावली। शूरवीर पराक्रमी, स्यंघ-ने परिक्रमी । माता-पिता-नु भगत । गंगाजल-समान जेह-ना निर्मल गुण । वाचा-अविचल मर्यादा-मयरहर । सरणाईचिडाय-पांजर । दांनि दलिद्रहर, जाचक-जन-कल्पतर । एकांग वर वीर । वीराधिवीर बिरिदा चतुर्दश विद्या-निधान बत्रीस-लक्षणक । बहुत्तरि-कलाकुशल । कूर्चाल सरस्वती । गोत्र-गोवाल । बाल-ब्रह्मचारी । एह गांगेउ कुमर । जइ एह-ना पद-कमल प्रामीअई तु मनोवांछित वर-तणी प्राप्ति हुइ ।
प्रतीहारी-ना ए बोल कहतां समी त्रिंण्णइ कन्या ऊपाडी समकाल आपणइ रथि बइसारी । वली गांगेउ कहइ छइ, भईओ ! कहिसि अणकहिइं छल करी गिउ । हुं कही कहावी जाउं । जेह-ने खवे खाजि हुइ, ते आविज्यु । जेहनई पेट दुखतुं हुइ, ते आविजिउ । इस्या बोल कही गांगेइ हाथि धनुष लीधु । धोंकार नीपजाविउ । तिवारं घणा कुमर पुलायन करिवा लागा । नासता एकि अडवडी पडई छई । हाथ-पग अलगा हुई छई । जिम केसरी स्यंध-नइ नादि गजेंद्र गडडी पडइ ते परि सयंवर-मंडप-माहि हुवा लागी छइ । चालिउ गांगेउ हस्तिनागपुर-भणी । तीह-माहि जे महा शूरवीर हता ते परस्परिई कहिवा लागा। आपणपई जीवताइ आ एकाकी मात्र त्रिण्णिइ कन्या लेई चालिउ । वली कही कहावी-नइ । ति वार लाख राजकुमार ऊ(४ क)ठिया । आपणे आपणे परिवारसहित गांगेउ-ना रथ भणी आवीआ । ... गलई वलिया रथ चउ केर वींटिउ। बांण-नी धर धोरणि चलावी । पणि गांगेउ-लगइ एकइ न जाई । पणि तुहइ
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[104]
गांगेउ - नइ मनि दया - नु परिणांम । ति वार गांगेइ बांण मेल्हिउं ।
चउपई
जव गांगेइ परठिउं बाण मणुअ बापडा कहि कुण मात्र मेल्हिउं क्षिप्र बांण गांगेवि कहि-नां नाक गयां कहि कांन कासीपति बोलाविउ राउ अम्ह कूं कुत्री नही मोकली कासीपति लागु तु पाइ ए त्रिणइ कंन्या तुम्हि वरु चालु हुं साथिई आवेसु आपिसु सवि मयगल तोखार गांउ - साथि थिउ राउ गयपुर पाटणि उत्सव-रंग विचित्रवीर्य परणाविउ राउ
मनह तणा मनोरथ सवइ
विषय - सुखि लागु राजिंद राज- तणी कय न करइ सार वीसारी माय-तणी भगति गांगेउ मन-माहि न धरइ
अमर-लोक छांडइ सुर-ठाण विण - लागा मोडाविया गात्र वेणी - डंड गया सवि खेवि नास भड मेल्हि सवि मांम कहि तूअ करउं किसु हिव ठाउ हव जे तउ सिख्या दिउं कर जोडी वींनती कराइ जं जं जाणु तं तं करु तिहा आवी वीवाह करेसु अरथ गरथ कोठार भंडार लोधा अपर सवे समुदाउ वरतिउ वडउ महोत्सव - रंग पणि ते गांगेउ-नु पसाउ पंच विषय सुहभर भोगवइ अनि कांई तेह जि आणंद पायक परिघु गय तोखार गुरु-देव-नी न जांणइ जुगति धरम नींम कांई नवि करइ
दिणि दिणि रमणि - सरिस घण नेह छुडि राउ दुर्बलउ देह
श्रवण अंखि नासा हुई हीण
तं जांणी जंपइ गांगेउ
विषय - सुखि लागु एकंत धर्म अर्थ शिव - सुख - नुं ठांम
एक कामि लागु मन रंगि सत्यवती दीध उपदेस
गांगेउ-ने लागु पाइ
ली १३०
वचन - कला सघली थई क्षीण सांभलि बांधव साचु भेउ देखि देह-नु आविउ अंत त्रिहुं - तणुं तई फेडिडं ठांम जाइसि मरी नींमिसहि भग्गि लाजिउ मनि कांई लवलेस च्यारइ बोल पतगरिया राइ
१३५
१४०
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[105]
[धृतराष्ट्र-पांडु-विदुर-जन्म] जायउ अंबादेविहि पुत्र
दीउ नाम धृतराष्ट्र निरुत्त
दाउ नाम वृतरा कांई इक पुव्व-कंम-वीनांणि जनम-लगइ जायंध सु जांणि जि(?ज)णिउ अंबिका वली सुपुत्र धुर-लग पांडु-रोगि संजुत्त पांडु नाम दीधुं तेह-नई पांडु-रोग धुर-लग जेह-नई
अंबालिका जि(?ज)णिउ सुत तेणि जाणीतु रांणे राएणि विदुर नाम दीधुं सुअ तास विद्या-कला-सरिस अभ्यास पंच पंच वउलियां जइ वरस गांगेउ बइठउ त्रिहुं सरिस कांई इक पुव्व-नेह-इ(?अ)हिनांणि विद्या कला... भणावइ तांणि सकल-कला-ना हआ सजांण पोढा थिया प्राक्रम-परांण विचित्रवीर्य वीसरिउ उपदेस करइ पुण्य नवि कय लवलेस १४५ वली कांम सेवइ अत्यंत दिणि दिणि देह झुडी गई अंति खयन-रोग लागु जस अंगि विवनु राउ विलासि अणंगि मृत्यु-काज कीधां गांगेइ बोलाविउ धृतराष्ट्र गुणेइ वडु कुमर तुं वडु गुणे उ बइसि पाटि बोलइ गांगेउ धृतराष्ट्र भणि संभलि ताउ मझ राज्य-नु नहीं ए न्याउ हुँ जाचंध कहिउ धृतराष्ट्र पांडु-कुमर बइसारु पाटि पांडु-कुमर-रहइं दीधुं राज जांणे गांगेउ युवराज क्रमि क्रमि पांडु हुउ वृधिवंत तपइ राजि जिमि कमलिणि-कंत १४९
(धृतराष्ट्र-विवाह)
(बोली) जे विचित्रवीर्य-ना कुमार धृतराष्ट्र, पांडु अनइ विदुर, तीहना पाणिग्रहणचिंता गांगेउ-नइ मनि अपार हुई छइ ।
चिंता करु म चीतवु, अवर कु चिंतइ कांई। क्षीर पयोहरि जिणि ठविउ, बालक उदरि ठियाइ ॥
गांधार-देस, सबल राजा, तेह-नइ शकुनि बेटु । गांधारी-प्रमुख आठ बेटी, पणि आठइ अपछरा-समांना । केतलेई. एके दिहाडे ते सबल-राजा दिवंगत हुउ । शकुनि राजि बइठु । पणि जे आठ बहिन छई, तीह-ना विवाह-तणी चिंता घणी । एक राज-चिंता । बीजी आठ बहिन-ना विवाह-नी चिंता । तिणि करी
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[106] राजा शकुनि व्यग्र-चित्त दिहाडइ दिहाडइ दूबलु थाइ ।
बिंदुनाऽप्यधिका चिंता चिचा, थाइ (?) भवेत् तु मे मतिः । चिता दहति निर्जीवं, चिंता जीव-समन्वितम् ॥
एकदा प्रस्तावि राजा शकुनि निद्रां पुढइ छइ, सिपुनांतर-माहि सिउं देखिवा लागु छइ । देवि-एक देखइ, दीदीप्यमान देह, चलत कुंडल आभरण (४ख), देव-दुक्खित(?ष्य) वस्त्र । जिसिउ कांई तेज-नु पुंज हुइ । रूप सौभाग्य लावंन्य-नी धणीयांणी जाणइ हुंति । (ति)णि जागविउ। राइ पगे लागी प्रणांम कीधु । मात, तम्हे कुंण । कहीउ। हुं तम्हारी कुलवति(? देवता) । तुं चिंतावन्त जांणी करी हुं तुझ रहई कहिवा आवी । ए कुमरि-नई वर-तणी चिंता म करिसि। ईहरई एक-इ-जि वर सिरजिउ छइ । शकुनि वली पूछइ छइ । मात, कहु-न ते कुंण । देवि कहइ छड्, सांभलि । हस्तिनागपुर पत्तन तिहां गांगेउ कुमर स्यांतन राय-नु बेटु जयवंतु वर्तइ, तैलोक्य -नमस्करणीय, बाल-ब्रह्मचारी, शूरवीर पराक्रमी। तेह-नु लघु भ्राता विचित्रवीर्य राजा दिवंगत हूउ । तेह-ना त्रिण्णि पुत्र छई, धृतराष्ट्र, पांडु अनइ विदुर । जे धृतराष्ट्र छइ, जे जन्म-जाचंध छइ, पणि भाग्यनु धणी छइ । ताहरी आठ-इ बहिनहं रई विधात्रां तेह-इ-जि वर सिरिजिउ छइ । ए वात साचीअ-इ-जि । पणि जाणे तेह-थिका तझ-रई सखाईआ घणा हुसिइं ।
एतली वात कही-नइ देवी जिम वीज-नु झात्कार हुइ तिम जातीअइ थाकी । शकुनि जागिउ, जिहां देवि आवी हती तिहां पारिजातक-नां पुष्प-नु प्रकर देखइ । ति वारं सिपुनांतर-नी वार्ता साचीअ-इ-जि जांणी । राइ विमासण कीधीअ-इ-जि नही । चतुरंगी सेना द्रव्य-नी कोडि, अनेकि समुदाउ, आठइ कंन्या गांधारी-प्रमुख प्रधान पुरुष-रहई राजा चलावी अनइ हस्तिनाग-पुर-भणी चालिउ । आगलि थिका भट्टमात्र मोकलिया छई । तेहे गांगेउ जणाविउ । ते वात जांणी गांगेउ सुहर्षित हूउ। भटमात्र-रहई घणुं दांन दीर्छ । मोटइ विस्तारि गांगेउ सांम्हु चालिउ छइ । राजा गांगेउ आवतु देखी शकुनि रेवंत-थिकु ऊतरिउ गांगेउने पगे लागु । विवाह-नी वात जणावी । मोटइ महोच्छवि धृतराष्ट्र आठ कुमरितणां पाणिग्रहण कराविउ । शकुनि आपणि राजि पुहुतु ।
(पांडु-विवाह) वली गांगेउ पांडव-कुमर-ना विवाह-नी घणी चिंता करइ । इसिइ प्रस्तावि कुणहिइं एकं देसंतरी आगइ गांगेउ यादवेंद्र-नी वात जणाविउ छइ । हवं
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कुंती - नी वात चलावीअइ छइ ।
[ 107 ]
(चउपई )
मथुरा - नयर वसइ सुविसाल जांणे सहसकिर (ण) अवतंस अणह-- ततु (?) आगर भर-पूर विस्तारि पणि बोली न सकेसु जांणे किर अमरापुर पवर नांम न जांणुं सविहुं तणां अंधविष्णु ठवि राजि लोकि राजि तपइ जिम सहसकिरण प्रतापीक नइ सवि सुचरित्र सूरवीर - पण पार न कोइ नाम - पहइ अधिकुं परिणांम जेह - ना गुण जांणई सवि देव जग जांणीअइ राइ - रांणेणि जाई तिसी न सुरसुंदरी एक जीभ ते मई न कहाइ कूंती जांणे रूप-निधांन सकल कला आपी उवझाइ राजा चिंतातुर थिउ तिमइ वर जो आवइ कुंती - रेसि कूंती - जोगि न वर को मिलइ ( बोली )
गंगा नइ जमणा बिहुं विचालि यदुराजा-नु मोटु वंस तेणि वंसि अवतरीउ सूर कथा एक बोलि लवलेस शौरि - नांमि सोरीपुर नयर शौरिराय - नइ बेटा घणा शौरिउ पुहुतु पर- लोकि मथुरां राजा भोजगविष्णु अंधगविष्णु-तणा दस पुत्र दस दसार ते भणीअई लोइ वडा - कुमर समुद्रविजइ नांम धरण पूरण लहुडु वसुदेव भोजगविष्णु-तणइ उग्रसेणि अंधविष्णु-तणइ दीकिरी
अति उत्सव हूआ पुर-ठाइ जोसी दीधुं कुंती नांम पोढी थई लेसालं जाइ जोअण- वेस पुहुत्ती किमइ चर पाठवीआ देसि विदेसि राजा अतिहि मणिहिं टलवलइ
१५०
१५५
राइ अंधगविष्णि वडु बेटु समुद्रविजइ तेडिउ छइ जे महा- गुणे करी गंभीर, शूरवीर, पराक्रमी । सांभलि वत्स, कौंती महा - सरूप कंन्या । वली गुणे करी विशिष्ट । एह- ना मन-गमतु अभीष्ट वर न मिलइ । प्रच्छन्न- चित्तिइ मझरई घणा दिन हूआ जोआवता । ति वार समुद्रविजइ कहिउं आम तात, ए कौंतीनुं रूप पट्टि लिखावीअइ । को एक आपणु चकोर पुरुष लेईनइ ( ५क) प्रिथ्वीमंडल - माहि मोकलीअइ । जे अनुरूप वर दीसइ, मोटा कुल-नु मोटा वंश - नु
१६०
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[108] तेह-नई दीजइ।
ति वारं मोटु एक पट्ट कराविउ । पणि महा विशिष्ट वली कलावंत चित्रकर एक तेडाविउ । कौंती-ना रूप-नी चित्रामि चीतरिवा-नी वात जणावी । ति वारं चित्रकि कहिउं - महाराज, कौंती-ना रूप-नु लवकेश एक सिउं कुणहिइं चीत्राइ छइ, जइ वृहस्पति आवइ तुहइ ? पणि तुहइ तम्हारई आदेशि करी जिसिउं जाणिसु तिसिउ पट्ट नीपाइसु ।' 'तु नींपाई।
(चउपई) आंण्या हींगलोअ हरीआल पंच-वर्ण वानां सुविसाल रस कीजइ तिहां एकि रूपमइ वली नींपना एकि कनकमइ कौंती भणइ रूपि अहिमांणि सकल शरीर देह-परमाणि लिखिउं रूप सरसइ-आधारि जिसी अवर नारि न संसारि । कोरक-नामि पाठविउ दूत विद्या-कला जि गुण-संजुत्त अंतर-गति आपिया अविभेउ चालिउ कोरक ते पट लेउ पूरव पंथ फिरिउ नेपाल अंग बंग नइ तिलंग डाहाल मरहठ सोरठ सहि नंमीआड गूजर मरु मालव मेवाड कौंती जोगि नही कइ भूप सूरवीरपण गुणि अनुरूप कुणहिइ एक नैमित्ति विसेसि कोरक वही गयउ कुरुदेसि १६५ गयपुरि पाटणि गयु सुजांण राजपाटि कां रांणोरांणि गांगेउ सहि पिक्खीअ पांडु अनुपम रूप अनइ बलवंड दीठउ विदुर अनइ धृतराष्ट्र अपर राय-सुअ सई साताठ जिसिउ पांडु गुणि रूपिहि होइ तिसिउ अवर नवि दीसइ कोइ नव-जोवण नव-नेह-गुणेणि कोरक-नुं मन बइठु तेणि वात जणाविउ तिणि गांगेउ पट्ट दाखि भाखिया सवि भेउ गांगेउ तिणि बइठु मंन्न पांडु-कुमर-रहई कहि उववंत्र मई ए दीर्छ रूप मझ गमइ जइ ताहरु चित्त इणि रमइ कुमर न बोलिउ कंन्या गमी ऊठिउ गांगेउ-पय नमी कोरकि पांडि करी अवलि वात मेलि विवाह म करिजे चात्र १७० कोरक-साथि जे जण जांण कंन्या जोई करे प्रमाण
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[109]
बेई सोरीपुर गया
कूंती राउ अछइ उत्संगि
सोइ मोकलिउ सोरीपुर-भणी वार म लाइसि कहीअइ घणी अंधविष्णु - उ भेटीआ दस दसार- सहि कही सु वात पांडु प्रति कुंती दिउ रात पांडु वान सवि गुणि मन - रंगि मझ इणि जनमि पांडु भरतार भोजन- भगति हुई सुविलासि म करु एह विवाह - नी वात जनम-लगी एह- नई पांडु-रोग आगइ वात कही मझ केणि हवडां अछइ विमासण कांइ मिली करी नइ पाछउ वलिउ पांडु टलत न करुं भरतार तिणि आशासन दीधी तेह हस्तिनागपुर पाटण जिहां तिहां-तणु सह कहिउ भेउ (बोली)
तु कुंती समरइ किरतार ते बेइ मोकलिया अवासि जादव - राइ कही मन - वात ए वर कूंती सिउ संजोग पांडु नांम लाधुं गुणि तेणि सूत मोकलिउ पाछु राइ पणि तोई कूंती - रहइं मिलिउ कूंती वर जांणिउ ते सार धात्री वात जणावी एह गांगेउ - नु चर गिउ तिहां वेगिहि मिलिउ जई गांगेउ
चर कहइ छइ-सांभली, पइला मोटा राजाधिराज । पणि तुहइ आपणु वस वखांणिउ । कुल वखांणिउं । वली तेहे कहिउं - जीह - नइ पूर्विज श्रीशांतिनाथ - प्रभु, श्रीकुंथुनाथ, श्री अरनाथ चक्रवर्ति धर्म - चक्रिवर्ति हुआ हुई, ते घर ते वर किणि मागिउं, किणि लाधुं ? पणि तांहि वडां विमासण छइ । वली सरूप कहावी अइ छइ ।
(चउपई ) एही नही अमर - सुंदरी
नवि किन्नरी न कइ चिंतरी इसी नारि अवर न सुणि भूप कहइ पांडु तेह - नुं मन किसिउंजइ जांणइ तु कहि छइ जिसिउं
कुंती-तणुं अनुपम रूप (५ख)
बे कर जोडी ते चर भणइ खरीअ वात ए सवि जांणउ सांभलि माहरी वाचा सार इणि वातं मनि हरखिउ भूप
कुंती कलत्र हुसिइ तम्ह - तणइ मझ-आगलि भागु तिणि भेउ पांडु टलत न करु भरतार जांणिउं कूंती - तणउं सरूप
१७५
१७८
१८०
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[110] पांडु-कुमरि नवि लाई वार दीधु तास लक्ष दीनार पणि तोई मनि अति असमाधि जांणे अंगि विलागी आधि किणि दिणि कुंती परणिसु कहइ तनु पलंगि निशि-भरि नवि रहइ भोजनि रसि मनु मांनइ नही वावि सरोवरि न रमइ रही सुरभि सुगंधि न मनु वीसमइ नदी-तडा-तडि जई नवि रमइ
(पांडु वडे विद्याधरनी मुक्ति) एक दिवस पल्लांणि पवंग बाहिरि वणि जावा मन-रंग वेगि वेगि गिउ वनि उद्यांनि तुरिय बंधि पमरिउ आरांमि १८५ दीठु खायर-थुडि एक पुरख करड पुकारि देहि घण दुक्ख जडिउ निवड खीले लोहमइ दीठु खांडु कुमरि तिणि समइ ते देखी दुख थिउं भूपाल दिवस-माहि पुहचइ(इ)ह काल जनमिया कांई जिणिणि ते पुरख जे न सकइ भंजी पर-दुक्ख समरिउ संतिनाह सिरि कुंथु समरिउ गांगेउ गुणवंत माहरा मन-नुं चिंतिउ हुजिउ एह पुरख-नुं दुख भाजिउ एक-मनु गिउ तस आसन्नु खीलु तांणिउ ते लोहमु साहस-बलि सोइ नीकलि जाइपडिउ पुरुख महि-मंडलि ठाइ चेत-वेत नवि कांई तास अधिकु लेवा लाग सास जांणिउं मरिसिइ दिउं नवकार वारुं चेत किमइ जइ लगार १९० वाला-केरु करि वींजणु . तीणि वाउ कीधु तस घणु वलि नवकार-मंत्र-संकेत विसा सोल सिरि वालिङ चित मुद्रा पांणि दिखाडी तेणि कर ऊतारी लइ राएणि तस अभिखेकि नीरि छांटेइ गइअ पीड वेगिहि ऊठेइ पांडु-कुमर-ने लागु पाइ विनय-वचन बोलइ तिणि ठाइ कहि बांधव कुण दिउं अपमांन तई मझ दीधुं जीवी-दांन उपगारह कीजइ उपगार ए नवि कांइ वडु विचार पणि तां तुं मनि अछइ सचिंत कहि मझ-आगलि भांगें भंति मझ वैताढ्य वास-नु ठाम विशालाक्ष सुणि माहीं नाम वेसासी विद्याधरि लीउ इहं आंणी अपाइ पाडीउ १९५ पुव्व-सनेहि निसुणि बलवंत इणि वनि आविउ भमत भमंत
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किहां वइताढ (किहां ) ए रान
मझ तई दीधुं जीवी-दांन
एह नेह रखे हुए भंग तुं तो उ वसुह-विख्यात जइ भांजी न सकुं संताप
विरला जाणंति गुणा, विरला विरयंति ललिय - कव्वाइं । विरला पर- कज्ज- करा, पर- दुक्खे दुक्खिया विरला ॥ हिव आपणपा बिहुं सनेह जेहु मोर अनइ वलि मेह अविचल प्रीति अनइ मन - रंग मझ आगलि कहि मन - नी वात तु मझ कृतघन-केरु पाप गुह्यमाख्याति भाषते ।
ददाति प्रतिगृह्णाति, भुंजयते भुंक्ते चैव षड्विधं प्रीति - लक्षणम् ॥
(दोहा)
पांडु भइ बांधव निसुणि मझ यादव - वंश जा न दिइ
तं सुणि विद्याधर भणइ मनह मनोरथ पूरिसिइ इणि विद्या छइ थंभणी कज-सिद्धि अदृशीकरण इणि करि थिकी सहू नमइ जइ लवलेस सुकीअ हुइ आपुं अगास-गामिनी इणि मुद्रां अधिकी फुरइ विद्याधर मुकलावि गिउ मुद्रा पहिरी राइ करि
विद्या - बलि ऊपडिउ अगासि रमलि - रेसि तिहां कूंती (६क) इसइ सूर आथमिउ सु जांणि धात्री गई माहि वन खंड
---
कहीसु कुंती - वत्त तिणि हुं अधुं सचित एह जि मुद्रा ह .. मनि मां' णिसि संदेह वमीकरण इणि होइ
अतुलीअ बल इणि जोइ राउल रा राजिंद
संभलि पांडु नरिंद विद्या हुं तम्ह-रेसि होंडे देसि विदेसि वलि आपणइ सुवासि जोई वात विमासि
( पांडुनुं शौरीपुर - गमन ) (चउपई )
गिउ सोरीपुर - तण निवासि अछइ गयु पांडु तिणि वनखंडि पछइ नव- पल्लव लेवा अहिनांणि अदृश न देखइ कूंती पांडु
२००
२०५
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२१०
[ 112] कूती धुरि जांणावी वात । तुं तो धात्री माहरी मात मझ वर पांडु नरेसर सरणि नहींतर कय संजय कय मरण आम-तात नवि देसिइ (तिहां) माहरु मन-चिंतित वर जिहां धात्री कहइ स बुद्धि करेसु पांडु नरेसर वर तइं देसु सवि वात सुणइ छइ पांडु धात्री गई माहि वन-खंड नव पल्लव लेवा वन-खंड कूती रही कयल-गृहि मंडि कूती वली विमासी वात किहां गहिली नइ किहां सोमनाथ किहां सोरीपुर किहां कुरुनाह तात मांड किम हुइ विवाह डाभ-तणु तिणि कीधु दोर लांबु जाडु अतिहि अघोर चडि असोकि गलि घाली पास परमेसर पूरे मझ आस समरिउ महा-मंत्र नवकार हुजिउ पांडु मझ भवि भरतार चडि असोक-तरु-केरी डालि बंधि दोर कूती तिणि कालि गलइ पास घालि सज थई नीचुं मेल्हिउ क्षणि नवि मूंई पांडु-राइ खग्गिहि सिउं दोर मंत्र जपिउ नवकार अघोर २१५ कुंती पडी धरणि थई अचेत ले उत्संगिहि वालिङ चेत जांणइ अपर पुरुष-नइ फुरिसि हव जीवीनइ किसिउं करेसु घडीअ एक-दोइ चडीउ चंद कुंती पिक्खवि पांडु नरिंद नामांकित कंकण बिहुं हाथि हरिखी हीअइ सुअक्षर वाचि पांडु भणइ म गिणिसि मनि भ्रति हुं ते पांडु नरिंदु कहंति इम करतां धात्री तस माइ आवी तिणि कदली-गृहि ठाइ दीठ पांड ओलखिउ ति वार तां कुंती तू? किरतार वेगि वेगि गांधर्व-विवाह कीधु कुंती पांडु-सनाह रहियां बेउ कदली-गृह-माहि रंगि रमंतां रयणि विहाइ लाधुं कंत-तणुं अति मांन कंता-देवि हई साधांन रयणि गलंती चालिउ राउ तिहां गयु जिहां गयपुर-ठाउ धात्री अनइं स कूता-देवि संपुहुती घरि कुसले खेमि कूती-उदरि वाधइ संतांन तपइ कांति तस कंचन-वन्न मनह-तणा डोहला विसाल दांन-तणी मति अबला बाल
(चालु)
२२०
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[113] चर्चापत्र
स्नेही श्री भायाणी साहेब
'अनुसंधान 'नो ताजो अंक (१९९५) स्नेहपूर्वक तमे मोकल्यो ते मने समयसर मळ्यो. एनो केटलोक भाग हुं जोई गयो छु. तमारो आ उपक्रम सरस छे, अने तमे जे चीवटथी ए चालु राख्यो छे ते माटे तमारी प्रशंसा घटे ।
१. पृ. ८४ पर तमारो 'मन'नो खुलासा करती पूर्ति छे. तमारा मंतव्य मुजब 'मन' मां निषेधवाचक 'म'नी साथे भारवाचक 'न' जोड्यो छे. भारतीय भाषाओमा अनुरोध के आग्रह दर्शावतो 'न'नो प्रयोग मळी आवे छे ते पर तमे ध्यान खेंच्युं छे
I
पूना - ४
ता. ११-१२-९५
'करो-न' जेवा प्रयोगोमां मूळमां आ 'न' अनुरोधसूचक हशे के ? मने एम लागे छे के एमां एक वाक्यनो संकोच थयो छे. एटले के मूळमां वाक्य आवुं बोलातुं हशे : 'तमे आ काम करशो के न करशो?" अंग्रेजीमां जेम कहेवाय छे ‘You would do it, won't you ?' आगळ जतां 'के न करशो ?' नुं संक्षिप्त 'न' एटलुं ज रह्युं, मारी आ मात्र एक कल्पना छे ।
'मन' नो खुलासो बीजी रीते थई शकशे के ? एमां निषेधदर्शक 'मा' अने 'न', बनेने एकत्रित कर्या छे ?
२. 'अनुसंधान' छापवा माटे वपराती देवनागरी लिपि मने ठीक लागती नथी. देवनागरी साथै सारो परिचय होवा छतां, काम चाले पण गुजराती भाषामां थयेलुं लेखन देवनागरी लिपिमां वांचतां मने सहेलाई लागती नथी. गुजरातीने बदले देवनागरी लिपिनो उपयोग करवानुं कारण तमे कदाच पहेला अंकमां आप्युं हशे. कदाच आ मारी एकलानी कठिनाई हशे कुशळ हशो.
लि. म. अ. मेहेंदळे
[मारा मित्र डो. मेहेंदळेने 'अनुसंधान' उपयोगी लाग्युं तेथी अमारा उत्साहनुं संवर्धन थयुं छे. 'म-न’नो तेमणे सूचवेलो खुलासो विचारणीय छे. वैदिक उपमावाचक 'न'नो खुलासो पण 'नळं न भिन्नममुया शयानो' 'जाणे के नाळ तूट्युं न होय तेम सूतो' - जेवामां आवो ज अपायो छे. नागरी लिपिमां गुजराती लखाण आपवानो हेतु पर प्रान्तना के विदेशी वाचको गुजराती लिपि करतां नागरी लिपिथी परिचित होईने केटलेक अंशे भाषा समजी शके एवो छे.
ह. भायाणी ]
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[ 114] 'शत्रुजय-मंडन-ऋषभदेव-स्तुति'नी प्राप्त वधु हस्तप्रतो
मुनि भुवनचन्द्र _ 'अनुसंधान' (५)मां पृ. ८० उपर 'शत्रुजयमंडण-ऋषभदेव-स्तुति' ए नामनी अपभ्रंश कृति प्रसिद्ध थई छ । खंभातना पूर्वोक्त ज्ञानभंडारमाथी आ कृतिना बालावबोध तथा टीकानी बे हस्तप्रतो पाछळथी प्राप्त थई । टीकाना प्रारंभे 'श्रीविजयतिलकोपाध्यायविहितविज्ञप्ते...' एवो स्पष्ट उल्लेख छ । आथी आना कर्ता विजयतिलक उपाध्याय निश्चित थाय छ। 'जैन गूर्जर कविओ' मां तथा 'मध्यकालीन गुजराती साहित्य कोश-१'मां आना कर्ता तरीके 'वासण' साधु नोंधाया छे ते हवे परिमार्जननो विषय बने छ । टीकारचना के प्रतिलेखननो समय प्रतिमां आपेलो नथी। प्रति सोळमा सैकानी जणाय छे। टीकाकारना नामनो पण निर्देश नथी ।
टीका संक्षिप्त छ- 'अर्थघटना'-अर्थ बेसाडवानो ज उद्देश टीकाकारे राख्यो छे। अपभ्रंश/जूनी गुजराती भाषानी कृति उपर संस्कृत टीका लेखे आ रचनानुं महत्त्व अवश्य गणाय ।
बालावबोध कंईक विस्तृत छ। कर्तानो निर्देश नथी । लेखनकाळ सोळमो शतक जणाय छे ।
बंने प्रतिओमां अशुद्धि पुष्कळ छे । छतां आ बे प्रतोमांथी केटलाक स्थळोए शुद्ध पाठ मळे छे, जे अहीं नोंध्या छ ।
३१मी गाथामां आवता 'आरवेला' शब्द विषे बंने प्रतो- अर्थघटन जुहूं पडे छ । बंने प्रतोना संबंधित अंश विद्वानोनी विचारणा अर्थे अहीं नोंधुं छु :
बाला - वली समुद्रनइ विषइ वेल थाइ । इहां संसाररूपिया समुद्रमाहि राग-द्वेष-रूपिणी वेल, आर कहता उछकचिल (तुच्छ कचिल ?) जिम वहई ।
टीका - आरवेलत्ति । क्रोधात्मिको द्वेषः, अनुरागमयो रागः, द्वे आरवेला पयोभ्रमच्युताः पोतभंजनशीला कुंभी, ते द्वे वहतः।।
मूळ पाठमां संशोधन : गाथा क्र. संशोधित पाठ गाथा क्र. संशोधित पाठ परिभमिउ
२२ लहुडलई सयल कसायह भेअ | २३ ए चिहुं ए कारणजोगि २० पमुह चिहुं तिहिं हुंति | ३१ दोसलउ ए रागलउ
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[ 115] स्वाध्याय : 'अनुसन्धान ना अंकोनो विद्वत्प्रवर कवि-मुनिराज श्रीधुरंधरविजयजीए 'अनुसन्धान'नी पत्रिकाओनो झीणवटपूर्वक स्वाध्याय कर्या पछी, पोतानी विशाळ विद्या-मूडीमांथी जे कांई तेमने जड्यु-सूझ्यु, ते तेमणे एक पत्रमा लखी मोकल्युं छे. तेनुं संकलन अत्रे प्रस्तुत छे. ऊहापोहथी ज तत्त्वनो के अर्थनो निर्णय करवा सुधी पहोंची शकाय छे, ते दृष्टिए आ बधी रजूआतनुं बहु मूल्य गणावू जोईए. १. अधिवासियां (अनुसं. ३/३३)
अधिवासियां - अधिवासित कर्यां - देवाधिष्ठित कर्यां के अभिमंत्रित कर्यां, एवा अर्थमां आ प्रयोग थाय छे. २. अनिवड. ( अनुसं. ३/३३)
अनिवड-अनिबिड तेमज अनिकट. निवड एटले निबिड-एवं तो प्रचलित
गब्दिका-गाडी (अनुसं. ४/३९)
गाडीनुं मूळ गंत्री होवानो संभव वधु जणाय छे. ४. तोडहिआ (अनुसं. ४/४४)
तोडहिका - तूरहि -- तूरी - एम बेसे छे. 'तूरी' नामे वाजिंत्र मारवाडमां प्रसिद्ध छे. 'तूरहि' कहेवातुं. ५. घवळी विशे (अनुसं. ४/८७) ।
जैनो गहुंली तरीके ओळखे - आलेखे छे. एर्नु मूळ शोधq पडे. साची गहुँली श्रीयंत्रनी प्रतिकृति जेवी अत्यारे पण मारवाडमां बाईओ कंकुथी दोरे छे, पछी एना पर साथियो काढे छे. ६. बे सरस्वतीस्तोत्र (अनुसं. ५/२४)
प्रथम स्तोत्र (अन्तःकुण्डलिनि) आ.बप्पभट्टिसूरिनी रचना छे, अने ते 'भैरव पद्मावतीकल्प' (सा.म. नवाब द्वारा मुद्रित)मां प्रकाशित थयेल छे. परंतु अनुसं.नी वाचनामां पहेलुं पद्य छे ते अधिक छे. भ.प.क.मां ते 'कन्दात्०' पद्यथी ज शरु थाय
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[116]
छे. ११मा पद्यनो पूर्वार्ध अलग अलग जणाय छे. भाषाप्रौढिनी दष्टिए बने रचना अलग पड़े छे. ७. उवहाणपइट्टा पंचासग (अनुसं. ४/३४, ५/५२)
__ आ रचना हरिभद्राचार्यनी जणाती नथी. मात्र 'विरह' न चाले, 'भवविरह' पद होय तो ज कर्ता तरीकेनी तेमनी ओळख पाकी थाय. महानिशीथ कूट होवा - न होवा विशे चालती चर्चाना संदर्भमां आ प्रकरण रचायुं होवानुं वधु संगत जणाय
८. (अनुसं. ५/५४-५५)
मधुसूदन ढांकी जणावे छे तेम 'श्रावकप्रज्ञप्ति' विनष्ट नथी; उपलब्ध छे, मुद्रित पण. वळी, 'सूरिमंत्रने चैत्यवासी जमानानी नीपज' गणावी छे, ते पण बराबर नथी. आर्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध नामे बे आचार्यो जे आर्यसुहस्तीना शिष्यो छे, ते 'कौटिक' कहेवाता; तेनुं कारण तेमणे कोटिवार सूरिमंत्र जपेलो ते छे. ते परथी निर्ग्रन्थगच्छनु नाम पण 'कोटिकगण' पड्यु. सूरिमंत्र न होय तो आ बधुं केम संभवे? साधु प्रतिष्ठा नहोता करावता - ए मुद्दो पण ठीक नथी. शिलालेखी पुरावा उपरांत साहित्यिक प्रमाणोने पण लक्ष्यमा लेवां अनिवार्य गणाय. पादलिप्तसूरि त्रण हशे भले, परंतु तेमां 'कीमियागर' एकेय नहोता. एमने ज्ञान हतुं, तो पण क्यारेय सुवर्ण बनाव्युं नहोतुं. ९. अर्हत्प्रवचन (अनुसं. ५/८८)
आ जोयु. ११ रुद्रनी वात तथा १४ कुलकरो दिगंबर परंपरामां छे. ते उपरथी आ कृति दिगंबरकर्तृक होवा- वधु संभवित लागे छे.
(पत्रमाथी संकलित)
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