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________________ [63] विसहरफुलिंगमंतं सच्चं निच्चं मणे धरिज्जंतं । कुणइ विसं उवसंतं भविया ! इय मुणह निब्भंतं ॥६॥ पयपण[य]देवदणुओ कंठे धारेइ जो सया मणुओ । सो हवइ विमलतणुओ नामक्खरमंतमवि अ णुओ ||७|| तस्स गहरोगमारी पराभवं न य करेइ विसमारी । जो तुह सम( सुमि?) रणकारी संसारी पत्तभवपारी ॥८॥ पथ्या ॥ तस्स वि सिज्झइ कामं दुट्ठजरा जंति उवसामं । संथुणइ जो पगाम अभिरामं तुज्झ गुणगामं ॥९॥ उपगीतिः ॥ चिठ्ठह दूरे मंतो जो झा[य]इ निच्चमेव एगंतो । तुह नाममसंभंतो सो जायइ लच्छिमइमंतो ॥१०॥ न य डसइ दुट्ठभोई तुज्झ पणामो वि बहुफलो होई । तुह नामेण विओई न हवइ, ण पराहवइ कोई ॥११॥ नरतिरिएसु वि जीवा भमंति नरए य कायरा कीवा । समिअजिणसमयदीवा जेहिं तुह न नामिआ गीवा ॥१२।। रिद्धि आहेवच्चं पावंति न दुक्खदोगच्चं । जे तुह आणं सच्चं पार्लिति य भावओ निच्चं ॥१३॥ तुह सम्मत्ते लद्धे जीवेणं हवइ सासपइसद्धे(?) । अणुवमते असमिद्धे अणंत तुह नाणसंबद्धे ॥१४।। तुह सुरनरवरमहिए चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए । पयकमले मलरहिए मणभसलो वसउ मह सुहि(ह)ए ॥१५॥ पावंति अविग्घेणं जीवा जय (जइ?) दुट्ठदोसवग्घेणं । न नडिज्जति अ सिग्घेणं भवपारं विहिअ विग्घेणं(?) ॥२६॥ सासयसुक्खनिहाणं जीवा अयरामरं ठाणं । लब्भंति तुह पयाणं जेसिं वट्टइ मणे झाणं ॥१७॥ उपगीतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520506
Book TitleAnusandhan 1996 00 SrNo 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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