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॥२१॥
[59] रोहणगिरि रयण, गयणि तारायणु, सायरि जल-कण-संख । जो मुणइ वियक्खणु सो वि न सक्कइ जसु गुण भणिउ असंख ॥ सो सिद्ध-बुद्ध सिरि-गोयमसामिउ संपत्तउ सिवरज्जि । मइ वनिउ किं पि मेरुनंदण थिर निय-मण-वंछिय-कज्जि निय-मण-वंछिय-कज्जि नमई जसु सुर-नर-किनर इंद-चंद-नागिंद-असुर-विज्जाहर-मुणिवर । उच्छव मंगल रिद्धि विद्धि जसु नामि पयासई रोग-सोग-दोहग्ग-दुरिय दूरंतरि नासई ।। सो वीरसीसु सूरीसवरु महिम-गरिम-गुणि मेरुगुरु। सिरि गोयमगणहरु जयउ चिरु सयलसंघ कल्याण करु ॥२२॥
इति श्री गौतमस्वामिच्छंदांसि ।।
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