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-- अन्तद्वन्द्रों के पार
उन्मीलन, स्पन्दित हुआ। और भरत के उर में वसन्त के शत-सहस्र फूलों की सुरभि महक उठी।
तभी दोनों बहिनें-ब्राह्मी और सुन्दरी, हृदय की समस्त मंगल-कामनाओं को वाणी की मिश्री में घोलती हुई बोली :
"वीरो, भइया हमारे, गज से नीचे उतरो।"
"किसने कहा ? किससे कहा ? मुझसे ? मैं क्या हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। दो तलवों भर धरा पर ध्यान करता रहा हूँ और ये वाणी कहती है. 'गज से नीचे उतरो!" मुनि बाहुबली के मन में बिजली-सी कौंध गई ! समाधान उन्हें स्वयं ही से प्राप्त हो गया । शब्दों के अर्थ की आवश्यकता नहीं पड़ी। “सचमुच, भरत की पृथ्वी पर खड़े होने का संवेदन-शूल मुझे अहंकार के गज पर उठाये हुये
इसी बीच सुनाई पड़े भरत के शब्द :
"मुनिराज, भरत का यह चक्रवर्तित्व तुच्छ है । आपकी इस तपस्या पर भरत के हजार राज्य निछावर हैं । आपको मैं नमन करता हूँ।" ___भरत की शान्त, गद्गद वाणी ने बाहुबली के मन को सुलझा दिया। उन्होंने आगे बढ़ने के लिए जैसे ही पग उठाया, वह वीतराग ध्यान के ऊँचे-से-ऊँचे शिखर पर एक क्षण में पहुँचे गये। उन्हें केवलज्ञान हो गया। निर्वाण की ओर उनकी यात्रा द्रुततर हो गई। तीर्थंकर आदिनाथ से भी पहले वह मोक्षगामी हो गये । यह मानव की आध्यात्मिक विजय का चरम-परम उत्तुंग शिखर था।