Book Title: Antardvando ke par
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 51
________________ चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय 31 उसकी दूसरी बहनें भी विवाह में आयी थीं। सब के पास सुन्दर वस्त्र और मूल्यवान आभूषण थे। यशोमती थी एक निधन ब्राह्मण की पत्नी । बहिनों ने यशोमती की निर्धनता की तथा उसके पति की द्रव्य-उपार्जन की अक्षमता और कुरूपता की हँसी उड़ाई। यशोमती ने विवाह के वे दिन मन मारकर काट दिये । दु:खी होकर जब यशोमती पति के पास लौटी तो उसने अपनी व्यथा-कथा उसे सुनाई। उसके आंसुओं की धार रुक नहीं रही थी। चाणक्य ने तभी निश्चय कर लिया कि वह गांव से बाहर जाकर धन कमायेगा और सबको दिखा देगा कि उसकी क्या सामर्थ्य है। अभिमान और अहंकार की मात्रा भी चाणक्य में उतनी ही थी, जितना बड़ा उसका ज्ञान। वह नन्दराजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचा। महाराजा महापद्मनन्द की दानशाला में प्रवेशकर वहां के पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और सबको पराजित कर दिया। बात मगध-सम्राट तक पहुँची। प्रसन्न होकर उन्होंने चाणक्य को दानशाला का प्रधान बना दिया। चाणक्य का यश और प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता गया। युवराज घनानन्द को चाणक्य का अहंकार, उसकी उद्धतता और उसका बढ़ता हुआ प्रभाव पसन्द नहीं था। एक दिन युवराज ने दासी से सुना कि चाणक्य राजसभा में आकर स्वयं महाराज के खाली सिंहासन पर बैठ गया। दासी ने चाणक्य से जब कहा कि सिंहासन को छोड़कर दूसरे आसन पर बैठे तो चाणक्य ने कहा- "इस पर तो मेरा कमण्डलु रहेगा।" "तब इस तीसरे आसन पर बैठो", दासी ने कहा। "इस पर मेरा वस्त्र रहेगा, और उस अगले आसन पर मेरा यज्ञोपवीत, और उस आसन पर शास्त्र..." दासी से यह घटना सुनकर युवराज का क्रोध इस सीमा तक बढ़ा कि उसने चाणक्य की चोटी पकड़कर उसे दानशाला से धक्के देकर निकाल दिया । चाणक्य ने क्रुद्ध नाग की तरह अपनी चुटिया की कुण्डली खोल दी और प्रतिज्ञा की : "मैं जब तक इस समूचे नन्दवंश का नाश नहीं कर दूंगा, शिखा की गाँठ नहीं बांधूंगा ।" वह निकल पड़ा ऐसे होनहार बालक की खोज में जिसमें राजत्व के गुण हों, जिसके माध्यम से वह नन्दवंश का उच्छेद करके नये राजवंश की स्थापना करे । नये राजवंश की स्थापना के लिए आवश्यक था कि प्रारम्भ से ही स्वयं से प्रतिबद्ध व्यक्ति को राज्य-संचालन की क्षमता में प्रशिक्षित किया जाये और उसके माध्यम से इतना सैन्य-बल एकत्र किया जाये कि नन्द राजा को युद्धकौशल और नीति-चातुर्य के आधार पर सिंहासन से च्युत किया जा सके। चाणक्य घूमता हुआ हिमालय की तराई में पिप्पलीवन में बसे मौर्यों के गणतन्त्र में पहुंचा, जहां के शासक व्रात्य-क्षत्री थे । वह गांव के मुखिया के यहाँ ठहरा तो पाया कि गृहपति इस चिन्ता से ग्रस्त हैं कि उनकी गर्भवती पुत्री को यह दोहद या अन्तरंग इच्छा हुई है कि वह चन्द्रमा का पान करे।

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