Book Title: Antardvando ke par
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 154
________________ 116 ...- अन्तर्द्वन्द्वों के पार सन 1887 के अभिषेक का वर्णन 'एपिग्राफिया कर्नाटिका' में रोचक ढंग से किया गया है। सन् 1900, 1910, 1925, 1940, 1953, और 1967 के महामस्तकाभिषेक के विशद वर्णन उपलब्ध है। 1967 के महामस्तकाभिषेक के आयोजन के समय स्वर्गीय श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन ने विविध कार्यक्रमों को नियोजित करने और उन्हें सफल बनाने में जो श्रम किया तथा समाज को मार्गदर्शन दिया, वह चिरस्मरणीय रहेगा । उनके अग्रज श्री साहू श्रेयांसप्रसाद उस परम्परा को आगे बढ़ाकर 1931 के सहस्राब्दि-प्रतिष्ठान-महोत्सव को सफल बनाने के लिए जिस प्रकार दिन-रात कार्यरत हैं वह निस्संदेह स्तुत्य है। यह देश का सौभाग्य है कि परम विद्वान, तपस्वी और वर्चस्वी साधु एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज की प्रेरणा देश-व्यापी प्रभाव उत्पन्न कर रही है। एक मणिकांचन सुयोग यह भी हुआ कि आज श्रवणबेल्गोल की धर्मपीठ के कर्मठ, तत्वज्ञ और शान्तपरिणामी तरुण त्यागमूर्ति भट्रारक स्वस्ति श्री चारुकीर्ति जी महाराज की छत्रछाया में इस क्षेत्र का उत्तरोतर विकास हो रहा है। इस विकास के इतने नये आयाम हैं कि देखकर चमत्कृत हो जाना पड़ता है। 1981 का सहस्राब्दि-महोत्सव विश्व के धार्मिक-सांस्कृतिक इतिहास में अपना विशेष महत्त्व रखेगा इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि लाखों नर-नारी इसमें सम्मिलित होंगे और विश्व के दूरदर्शन-केन्द्र, फिल्म-निर्माता, रेडियो-स्टेशन आदि अपूर्व रुचि लेंगे। धन्य भाग्य उनके जिनके जीवन में यह अवसर आ रहा है।

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