Book Title: Antardvando ke par
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 152
________________ 114 अन्तर्द्वन्द्वों के पार बाहुबली ने एक स्थान पर खड़े होकर इतने दीर्घ समय तक कायोत्सर्ग ध्यान किया कि उनके शरीर पर बेलें चढ़ गयीं। दक्षिण की मूर्तियों में चरणों के पास सांप की बबियां (बमीठे) हैं जिनमें से साँप निकलते हुए दिखाए गए हैं। किन्तु उत्तर की मतियों में, प्रभासपाटन की मूर्ति को छोड़कर संभवतः और किसी में सांप की बांबियां नहीं दिखायी गयी हैं । उत्तर भारत की मूर्तियों में बाहुबली की बहिनों-ब्राह्मी और सुन्दरी का अंकन नहीं है। जहाँ भी दो स्त्रियाँ दिखाई गयीं हैं वे या तो सेविकाएँ हैं, या फिर विद्याधरियां जो लता-गुच्छों का अन्तिम भाग हाथ में थामे हैं, मानो शरीर पर से लताएँ हटा रही हैं। एलोरा की गुफा की बाहुबली मूर्ति में जो दो महिलाएँ अंकित हैं, वे मुकुट और आभूषण पहने हैं । वे ब्राह्मी और सुन्दरी हो सकती हैं। बिलहरी की दो मूर्तियों में से एक में दो सेविकाएँ, जो विद्याधरी भी हो सकती हैं, लतावृन्त थामे हुए हैं। ये त्रिमंग-मुद्रा में हैं। मूर्ति के दोनों ओर और कन्धों के ऊपर जिन-प्रतिमाएँ हैं। दूसरी मूर्ति में भक्त-सेविकाएँ प्रणाम की मुद्रा में लता-गुच्छ थामे दिखायी गयी हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उत्तर भारत की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में बाहुबली को साक्षात् तीर्थंकर की प्रतिष्ठा दर्शाने के लिए सिंहासन, धर्मचक्र, एक-दो या तीन छत्र, भामण्डल, मालाधारी, दुन्दुभिवादक और यहां तक कि यक्ष-यक्षियों का भी समावेश कर लिया गया। श्रीवत्स चिह्न तो अंकित हैं ही। ___ इसीलिए प्रथम कामदेव बाहुबली को अब सम्पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान बाहुबली कहा जाता है, और उनकी मूर्ति को तीर्थंकर-मति के समान पूजा जाता है। धोती-पहने बाहुबली की मूर्तियाँ भी कतिपय श्वेताम्बर मन्दिरों में प्राप्त हैं। दिलवाड़ा (राजस्थान) मन्दिर की विमलवसहि, शत्रुजय (गुजरात) के आदिनाथ मन्दिर और कुम्भारिया (उत्तर गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर में लगभग 11-12वीं शताब्दी की इस प्रकार की मूर्तियां प्राप्त हैं। इन मूर्तियों का यद्यपि अपना एक विशेष सौंदर्य है तथापि यह कहना अनुचित न होगा कि बाहुबली की तपस्या और उनकी कायोत्सर्ग मुद्रा का समस्त सहज प्रभाव दिगम्बरत्व में ही है।

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