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श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
1167 ई०)से शिकायत की। राजा ने रामय्य को बुलाया। रामय्य ने वह ताड़पत्र दिखलाया जिस पर जैनों ने अपना वचन लिखा था। उसने पुनः जैनों को चुनौती दी कि वे अपने सात सौ मन्दिरों को ध्वंस कर दें तो वह पुनः अपना सिर काटकर सात दिन में उसे जोड़ सकता है। किन्तु जनों को उसकी चुनौती स्वीकार करने का साहस नहीं हुआ। राजा विज्जल ने रामय्य को विजयपत्र दिया और उसके देवता सोम
नाथ के नाम कई गांव दिये। वाग्मी : किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैनधर्म का प्रभाव इन घटनाओं के
कारण कर्नाटक प्रान्त से समाप्त हो गया। इतिहास की घटनाएँ आती और जाती हैं, किन्तु संस्कृति का वह प्रभाव जो जन-मानस में गहरे पैठ जाता है, जो भाषा, साहित्य और कला के माध्यम से स्थायी रूपाकार ले लेता है, वह समय के थपेड़ों को सहकर भी अक्षुण्ण
रहता है। श्रुतज्ञ : एक बात और भी है। यदि जैनधर्म और जैन धर्मायतनों के प्रति जनता
की सद्भावना न होती तो उसकी सुरक्षा ही नहीं हो सकती थी। वैष्णव और जैनियों के अनेक विवादों को शासकों ने समाप्त किया और सद्भाव बढ़ाया। शिलालेख क्र. 475 (शक सं० 1290) इस विषय में विशेष महत्त्व रखता है। यह लेख विजयनगर-काल के बुक्कराय प्रथम का है। लेख का प्रारम्भ रामानुज की स्तुति से होता
"रामानुजो विजयते यति राज-राज" फिर जो कहा गया है उसका अर्थ है : "वीर बुक्कराय के राज्य-काल में जैनियों और वैष्णवों में झगड़ा हो गया। तब जैनियों में से आनेयगोण्डि आदि नाडुओं ने बुक्कराय से प्रार्थना की। राजा ने जनियों और वैष्णवों के हाथ से हाथ मिला दिये और कहा कि जैन और वैष्णव दर्शनों में कोई भेद नहीं है। जैनदर्शन को पूर्ववत् ही पंच महावाद्य और कलश का अधिकार है । यदि जैनदर्शन को हानि या वृद्धि हुई तो वैष्णवों को इसे अपनी ही हानि या वृद्धि समझना चाहिये। श्रीवैष्णवों को इस विषय के शासन (आदेश) समस्त राज्य की बसदियों में लगा देना चाहिये। जैन और वैष्णव एक हैं, वे कभी दो न समझे जावें।" और भी, "श्रवणबेलगोल में वैष्णव अंग-रक्षकों की नियुक्ति के लिए राज्य भर में जैनियों से प्रत्येक घर के द्वार पीछे प्रतिवर्ष जो एक 'हण' लिया