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अन्तर्द्वन्द्वी के पार जाता है उसमें से तिरुमल के तातय्य देव की रक्षा के लिए बीस रक्षक नियुक्त होंगे और शेष द्रव्य जैन मन्दिरों के जीपोंद्धार, पुताई आदि में खर्च किया जायेगा। यह नियम प्रतिवर्ष जब तक सूर्य-चन्द्र हैं तब तक रहेगा। जो कोई इसका उल्लंघन करे वह राज्य का, संघ का और समुदाय का द्रोही ठहरेगा। यदि कोई तपस्वी या ग्रामाधिकारी इस धर्म में प्रतिघात करेगा तो वह गंगातट पर एक कपिला गौ और
ब्राह्मण की हत्या का दोषी होगा।" वाग्मी : देखने की बात यह है कि कर्नाटक के शासकों ने किस प्रकार विभिन्न
धर्म के अनुयायियों से सद्भाव बनाये रखने का प्रयत्न किया। जैनियों के अधिकार की रक्षा का निर्णय, वैष्णवों के धर्म की शब्दावलि में इस प्रकार किया गया कि जनेतर व्यक्ति अपने वचन की रक्षा अपनी इष्ट-मान्यता की सौगन्ध खाकर करें।जनों या वैष्णवों के लिए इससे बड़ा अभिशाप और क्या होगा कि यदि वह वचनभंग करते हैं तो ब्राह्मण की हत्या और गौवध के दोषी होंगे। इस खोटे कर्म की जघन्यता पर जोर देने के लिए एक श्लोक भी अन्त में खुदवा दिया :
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेति वसुन्धराम् ।
षष्टिवर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥ .. अर्थात् भूमि (धर्म कार्य के लिए) स्वयं दी हो या उसे किसी अन्य ने दिया हो, जो उसका हरण करेगा वह छह हजार वर्ष तक विष्टा का
कीड़ा बना रहेगा। पुराविद् : कर्नाटक में यह विवाद जैनों और वैष्णवों का ही नहीं था, शैवों और
वैष्णवों में भी दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर भेद रहा-मूर्तियों और
उपासना की पद्धतियों के कारण विवाद बढ़ा। श्रतज्ञ : किन्तु प्रत्येक विवाद का हल समता-भाव के कारण निकलता गया।
शैव-वैष्णव विवाद का हल 'हरिहर' की संयुक्त मूर्ति की कल्पना द्वारा
कर लिया गया। वाग्मी : एक अर्थ में वीर-शैव धर्म के समर्थक गुरुओं ने समय को देखते हुए
सामाजिक और धार्मिक सुधार के आन्दोलन चलाये। जनता उनकी ओर आकृष्ट हुई। तब वैष्णवों और जैनों को भी सावधान होना पड़ा। सबने अपने अपने धर्म और दर्शन का प्रचार जोर-शोर से प्रारम्भ किया। बड़ी हलचल का समय था वह । यही कारण है कि इन शताब्दियों में अनेक आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। श्रुतज्ञ
जी, है न यह बात ! कुछ नाम बताइये। श्रुतज्ञ : अवश्य । कुछ आचार्यों के और उनके ग्रन्थों के नाम गिनवाता हूँ ।