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अन्तर्द्वन्द्रों के पार पुंगव गोपनन्दि, जो मत्त गज की भांति हैं, तुम्हारे दर्प को सहन करेंगे? आगे लिखा है : "षड्दर्शन के मार्ग पर चलने वाले विरोधी हाथियों को इस एक गज ने खदेड़कर भगा दिया। जैमिनी आतंकित हो गये, सुगत रुक गये और पराजय की मोहर लगा दी, अक्षपाद ने झट से चूड़ियां पहन लीं,
लोकायतों का गर्व खर्व हो गया और सांख्य प्राण बचाकर भागे।" पुराविद् : किन्तु यह लेख सन् 1398 का है। चौदहवीं शताब्दी के अन्त तक,
विशेषकर 11-12वीं शताब्दी में जैनाचार्यों का इतना अधिक प्रतिवाद हुआ और जैनधर्म पर इतने अत्याचार हुए कि आचार्यों और गुरुओं को अपने सिद्धान्त की श्रेष्ठता के लिए शास्त्रार्थ करने पड़े। जैन ज्ञान का तर्क और सिद्धान्तपक्ष बहुत प्रबल रहा आया और उसकी पृष्ठभूमि में इन आचार्यों का ज्ञान-बल ही उनका एकमात्र सहायक
था। शास्त्राचार्य का गर्व भी कितना वाचाल था! अनुज्ञा : कहते हैं जैन साधुओं में तप की सिद्धि के कारण अलौकिक चमत्कार
भी उत्पन्न हो जाते थे? वाग्मी : हाँ, ऐसे प्रसंग भी हैं कि किस प्रकार किसी मुनि ने किसी राजा के
सर्पदंश का विष दूर कर दिया। सिद्धर बसदि के स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख क्रमांक 360 में कहा गया है कि चारुकीति पाण्डित ने युद्ध क्षेत्र में मृतप्राय राजा बल्लाल को तत्काल स्वस्थ कर दिया था। उनके सम्बन्ध में एक दूसरे शिलालेख, क्रमांक 364 में कहा गया है कि चारुकीर्ति मुनि के शरीर को छूकर जो वायु प्रवाहित होती थी वह
रोगों को शान्त कर देती थी। भ्रतज्ञ : लेकिन, जैन मुनियों ने मन्त्र-तन्त्र और चमत्कार को धर्म-प्रचार का
साधन नहीं बनाया । बल्कि विचित्र बात तो यह है कि जैन शासन के पराभव की दुःखद घटना उक्त राजा बल्लाल के बाद सन् 1109 में विष्णुवर्धन बिट्टिगदेव के गद्दी पर बैठने के उपरान्त घटी। जैन सेनापतियों ने सहायता करके बिट्टिगदेव के राज्य को चोलों की अधीनता से मुक्त करवा दिया था। वह जैन धर्मावलम्बी था। किन्तु एक बार उसकी कन्या को किसी पिशाच ने ग्रस्त कर लिया। जैन आचार्य
और पण्डितों ने प्रयत्न किया, किन्तु कन्या पिशाच-मुक्त न हो पाई । तभी रामानुज आचार्य ने उसे स्वस्थ कर दिया । और भी अनेक चमत्कार उन्होंने किये । परिणाम यह हुआ कि विष्णुवर्धन बिट्ठिगदेव ने जैनधर्म का परित्याग कर दिया। इतना ही नहीं, उसने जैनियों