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श्रवणबेलगोल के शिलालेख...
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श्रुतज्ञ
बौद्धग्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे श्रीदेवकीतिमुनये कविवादिवाग्मिने ॥"
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के निर्मल ज्ञान का गुणगान सारे संसार में हो रहा है। उस ( ज्ञान - सागर ) के लिए जो चन्द्रमा के समान है; प्रतिवादी के परिहार के लिए बच्च है, चार्वाक् के अभिमान पर्वत को चूर करने वाले, अपराजेय बौद्धगज के मद को सिंह-गर्जना के भयंकर प्रहार से पराभूत करने वाले, नैयायिकों के गर्व के सरकण्डों को तीक्ष्ण बुद्धि के हँसिये से नष्ट करने वाले, अपनी अनुपम वाणी के धारावाही चमत्कार से चंचल-मति कपिल - सिद्धान्त को इस प्रकार दहन कर देने वाले जैसे दावानल; चारों ओर व्याप्त वैशेषकों के हंस-दल को अपनी गम्भीर वाणी की गर्जना से पलायन-प्रवृत्त करने वाले आदि ।
: आपने देखा होगा वाग्मीजी, लेख क्रमांक 77 में मुनि महेश्वर के विषय में कहा गया है कि उन्होंने 70 शास्त्रार्थों में प्रसिद्ध प्रतिद्वन्द्वियों को जीता। इसी प्रकार शत्रु-भयंकर के विशाल महल पर विज्ञप्ति लगा दी गई थी कि मुनि विमलचन्द्र ने पाशुपत, बौद्ध, कापालिक और कपिल - सिद्धान्त के मानने वालों को जब चुनौती दी, तो सब उद्विग्न हो गये ।
पुराविद् : यह तो वही लेख है जिसमें समन्तभद्र की शास्त्रार्थ विजय का उल्लेख है जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।
वाग्मी : मुझे एक दूसरे लेख का ध्यान आ रहा है । वह है लेख क्रमांक 360 जिसमें कहा गया है कि चारुकीर्ति का यश इतना प्रशस्त था, कि चार्वाकों को अपना अभिमान, सांख्य को अपनी उपाधियाँ, भट्ट को अपने सब साधन और कणाद को अपना छल छोड़ना पड़ा । कत्तले बसदि के लेख क्रमांक 79 में बड़े रोचक ढंग से गोपनन्दि आचार्य की शास्त्रार्थ - प्रतिभा का वर्णन है :
"मलेयदे शांख्य मट्टविरु भौतिक पोंगि कडंगि वागदि तोलतोलबुद्ध बौद्ध तले-दोरदे वैष्णववडंगडंगु वाग्बलद पोड वेड गड चार्व्वक चार्व्वक निम्म दर्पमं सलिपने गोपणन्दि - मुनिपुंगवनेम्ब मदान्ध सिन्धुरं ॥"
• अर्थात् 'सांख्यगणो ! विरोध न करो, चुप हो जाओ । भौतिक अहंकार से फूल न जाओ । बुद्धमान बौद्धो, अपना शीष न दिखाओ, जाओ, जाओ । ओ वैष्णवो अपने आपको छुपा लो, छुपा लो । ओ मृदुभाषी
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चार्वाको, अपनी वाणी की शक्ति का अहंकार छोड़ दो। भला मुनि