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जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक (30) । मनिसंघ आगे-आगे बढ़ता गया (31)। उसने कोटिपूर के समीपवर्ती मन्दिर में विश्राम किया (32)। कोटिपुर के ब्राह्मण सोम शर्मा और पत्नी सोमश्री के बालक का नाम था भद्रबाहु (33) । सोमशर्मा इतने ज्ञानी थे और उनका इतना मान था कि राजपुरुष भी उनके पास आते थे (34) । अभ्यागतों को आते देखा तो उनकी पत्नी सोमश्री स्वागत के लिए उद्यत हुई (35)। तभी समाचार आया कि श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य का केशलोंच प्रारम्भ हो गया है। समाचार सबके लिए हर्षदायक हुआ। धर्म की प्रभावना हुई (36)।
एक दिन विहार करते हुए आचार्य गोवर्धन ने एक बालक को खेलते हुए देखा । आचार्य गोवर्धन ने बालक के लक्षण देखकर निमित्त-ज्ञान से जाना कि यही उनकी आचार्य और शिष्य-परम्परा में पांचवां श्रुतकेवली भद्रबाहु होगा (37) । गोवर्धन आचार्य ने भद्रबाहु की शिक्षा का पूरा दायित्व ले लिया (38) । भद्रबाहु गोवर्धन आचार्य के साथ संघ में प्रविष्ट हो गये। धीरे-धीरे शास्त्रों के ज्ञान में वे निष्णात हो गये (39)।
समय बीतने पर भद्रबाहु ने गोवर्धनाचार्य से मुनिदीक्षा ली। मुनिचर्या के अनुसार वे आहार-विहार करने लगे (40)। भद्रबाहु के गुणों और तपस्या के कारण उनके अनेक शिष्य बन गये और सर्वत्र उनका स्वागत होने लगा (41)।
आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य
विहार करते हुए भद्रबाहु एक दिन उज्जयिनी पहुंचे और वहाँ एक उद्यान में ठहर गये । भद्रबाहु को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ उद्यान में एक कोटपाल लेटा हुआ है और आने-जाने वालों पर दृष्टि रख रहा है (42)। राजाज्ञा थी कि कोटपाल वहाँ से विचरने वाले गुप्तचरों से सावधान रहे (43)। कोटपाल ने भद्रबाहु को गुप्तचर समझकर अपने नियन्त्रण में ले लिया (44) । भद्रबाहु उपसर्ग के कारण ध्यानस्थ हो गये। देवी पद्मावती के प्रभाव के कारण कोटपाल वहाँ से अवश्य हो गया (45)। कोटपाल को इस प्रकार विलुप्त देखकर वहाँ आये हुए अनुचरों को आश्चर्य और आतंक हुआ। वे राजदरवार में पहुँचे (46) । सम्राट चन्द्र गुप्त उस समय उज्जयिनी के महाराज थे। जिसने भी यह समाचार सुना वह विस्मय में पड़ गया (47)। इतने में उद्यान में अन्य राजसेवक भी आ पहुँचे और उन्होंने प्रहरियों से प्रार्थना की कि उनको तत्काल सम्राट के समीप पहुंचा दिया जाए ताकि वे स्वयं भी आगे के समाचार दे सकें (48) । उज्जयिनी समृद्ध नगरी थी। नागरिकों का जीवन बहुत सुखी और शान्त था। वहाँ का व्यापार और शिल्प उन्नति पर थे (49) । चन्द्रगुप्त सम्राज्ञी के साथ अपने राज पुरुषों और सेवकों के दर सहित आचार्य भद्रबाहु का स्वागत करने के लिए आगे बढ़े (50) । सब गुरुओं को प्रणाम किया। सेवक भी भक्तिपूर्वक दिनम्र और आनन्दित हुए (51) ।