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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
संघ जहाँ-जहाँ पहुँचता होगा, किस प्रकार ये बारह हजार साधु पहाड़ों की घाटियों
और जंगलों के सुनसान प्रदेशों में दिन-रात तपस्या में लीन रहते होंगे। अञ्चलवासी जनता के लिए यह अद्भुत चमत्कारी अनुभव रहा होगा। जिस धर्म में समवसरण और दिव्यम्वनि की संकल्पना है, उस धर्म की पताका के धारक आचार्य भद्रबाहु अच्छी तरह समझते थे कि जो बात मात्र वाणी के उपदेश से नहीं सध सकती, वह तपस्या और संयम के प्रत्यक्ष उदाहरण से कहीं अधिक गहराई के साथ जनमानस में प्रविष्ट हो जाती है। सहनों दिगम्बर मुनि अलग-अलग या समूह रूप में जब कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होते होंगे तो स्वभावतः इन साधुओं की खड्गासन या पद्मासन मुद्रा को तीर्थंकर-धर्म से संदर्भित करके लोगों ने दिगम्बरत्व की कल्पना को प्रत्यक्ष आत्मसात् कर लिया होगा।
[जैन संस्कृति की रूपरेखा प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ ने चित्रित की। उनके पुत्र भरत ने उसकी संवर्धना की, और बाहुबली ने तो जीवन की यथार्थता में उस संस्कृति के अनेक आयाम खोल दिये । वह तमोगुण में व्याप्त अंधकार से रजोगुण की ओर बढ़े और अन्त में उन्होंने निर्वाण की शुद्ध सात्त्विक स्थिति का साक्षात्कार किया।
भगवान आदिनाथ से भी पहले बाहुबली को मोक्ष प्राप्त हुआ, यह घटना बड़ी चमत्कारी और महत्त्वपूर्ण है । इस काल के वह पहले मोक्षगामी जीव हैं और पहले कामदेव हैं । स्वयं भरत ने पोदनपुर में तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति न बवा. कर बाहुबली की अत्यन्त ऊंची, 527 धनुष प्रमाण पन्ने की मूर्ति बनवाई ! • विशालता का ध्यान करते हैं तो लगता है कि बाहुबली ही ऐसे महिमामय
महापुरुष हैं, जिनकी मूर्ति सार्थक रूप में बड़ी-से-बड़ी बनाई जा सकती है। • वे अपराजेय हैं। उनकी कथा में युद्ध की चुनौती है। सेनापतियों और योद्धाओं
के लिए वे प्रमाण-पुरुष हैं। • उन्होंने जीवन में जो देखा, सहा और भोगा उसमें क्रोध, मान, माया और
लोभ, चारों कषायों की तीव्रतम अभिव्यक्ति है :
भरत चक्रवर्ती द्वारा अपने भाई बाहुबली के शिरच्छेद के लिए चलाया गया चक्र माया और छल का चरम उदाहरण है क्योंकि तीन प्रकार के युद्धों की निश्चित प्रक्रिया के विरुद्ध उन्होंने यह हेय कार्य किया। चक्रवर्ती का लोभ ऐसा कि शेष सम्पूर्ण संसार को जीतकर भी राज्य-विस्तार की लालसा में अपने छोटे भाई को अति-सीमित भूमि को भी वह छोड़ नहीं सका। मान और अहंकार का प्रत्यक्ष दर्शन तो बाहुबली ने अपने ही जीवन में किया । स्वयं गुरु से दीक्षा नहीं ली; भरत को पृथ्वी पर संचरण न करना पड़े इसलिए एक वर्ष तक एक ही स्थान पर मात्र दो तलवों पर खड़े हुए उन्हें कठिन कायोत्सर्ग तपस्या में भी अहंकार का शल्य चुभता रहा।