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श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
एक दसवां रस 'इतिहास-रस' भी होना चाहिए । भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की चर्चा में एक शिलालेख का संदर्भ में श्रवणवेल्गोल से
बाहर का, किन्तु फिर भी श्रवणबेल्गोल के अन्दर का, देना चाहता हूँ। अनुगा : पुराविद्जी , यह कैसे संभव है कि बाहर का भी है और भीतर का भी ? पुराविद : अभिप्राय यह है कि वह शिलालेख है तो श्रीरंगपट्टन का, ई० सन्
900 का, किन्तु उसका संदर्भ है श्रवणबेल्गोल का । उसमें कहा गया है कि कलबप्पु शिखर (चन्द्रगिरि) पर महामुनि भद्रबाहु और चन्द्र
गुप्त के चरण-चिह्न हैं। वाग्मी : इतिहास के अध्येताओं में लेख क्रमांक 1 को लेकर जो विवाद है
और जिन-जिन विद्वानों ने भद्रबाहु, प्रभाचन्द्र और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में मन्तव्य दिए हैं उनका निष्कर्ष कहीं आया होगा । वह
क्या है ? पुराविद् : पुरातत्त्व के धुरन्धर विद्वान् रायबहादुर नरसिंहाचार्य ने, जिन्होंने
अपना सारा जीवन लगाकर श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है, उनका पाठ और अर्थ निश्चित किया है, वे इन शिलालेखों के संग्रह के संपादक भी हैं। अतएव उनके द्वारा निकाला गया निष्कर्ष ही प्रमाण है। यह लेख ऋ० 251 (11वीं शती) जो भद्रबाहु गुफा में उत्कीर्ण है
'श्रीभद्रबाह स्वामिय पादमं जिनचन्द्र प्रणमतां।" अर्थात् जिनचन्द्र ने भद्रबाहु स्वामी के चरणों को नमस्कार किया। इसी प्रकार लेख क्र० 254 (13वीं शती) में-चिक्कबेट्ट (चन्द्रगिरि) के शिखर पर जो चरण-चिह्न अंकित हैं, उनके सम्बन्ध में लिखा है कि ये भद्रबाहु स्वामीके चरण हैं : ___भद्र बाहु-भलि-स्वामिय पाद।" लेख क्र० 564 (ई० सन् 1432) में विन्ध्यगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धरबसदि के स्तम्भ पर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी और चन्द्रगुप्त का उल्लेख है :
"यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्व-श्रुतार्थप्रतिपादनेन । तदीय-शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः ।
विवेश यत्तीव्रतपःप्रभाव-प्रभूत-कोतिर्भुवनान्तराणि ॥" लेख ऋ० 71 (सन् 1163) में भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा गया है और चन्द्रगुप्त को उनका शिष्य