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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
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मार्ग बनाऊँगा । एकाकी ध्यान करूँगा । निरपेक्ष, निःसंग, स्वतन्त्र । "
लगता है यह भी एक प्रकार के अहंकार की वाणी थी, जिसने गुरू को ही नकार दिया। भरत के अनुनय-विनय को भी मान नहीं दिया ।
तभी महामन्त्री का स्वर सुनाई दिया, "किस आवेग में जा रहे हो, बाहुबली ? भरत की बात भी नहीं सुनना चाहते ? पर, सोचो तो, यदि तपस्या करोगे तो कहाँ करोगे ? भरत की भूमि पर ही तो करोगे ? यदि आहार लेना हो तो किस के साधनों का लोगे ? भरत के ही तो ?” इन शब्दों को सुनकर बाहुवली को शायद आक्रोश आया हो, और उत्तर देने की भावना भी जगी हो, किन्तु मन को दबाया, अपने को समझाया - " तपस्या के लिए जा रहा हूँ । कष्ट, संकट और मान-अपमान को सहना भी तो तप है । साधना यहीं से प्रारम्भ हो ।"
बाहुबली ने मानो महामंत्री का स्वर सुना ही नहीं । चुपचाप चले गये । दूर, वन में। अपने ही विचारों में मग्न । ध्यान और समाधि में दत्तचित होने के लिए ।
इस प्रकार बाहुबली मुनि हो गये । और, पुराणों का कहना है कि उन्होंने एक for प्रतिमा-योग धारण कर लिया, कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करने की प्रतिज्ञा कर ली । ध्यान की इस उत्कृष्ट मुद्रा में जहाँ काया की संज्ञा का उत्सर्ग करना होता है उन्होंने वर्षभर इतना कठोर तप किया कि दीमकों ने देह में घर बना लिया, साँपों ने चरणों में बांबियां बना लीं, लताएँ शरीर पर चढ़ गईं, छिपकलियाँ देह पर घूमने लगीं।
अडिग तपस्या ने बाहुबली के भीतर एक दीप जला दिया । किन्तु बाहुबली के हृदय-क्षितिज पर साधना का वह प्रभात उदित नहीं हुआ जिसमें पूर्ण ज्ञान की किरणें फूटती हैं — जिसे केवलज्ञान कहते हैं, जो साधु को अर्हन्त का पद देता है, जो मोक्ष प्राप्त करने का मुख्य साधन होता है ।
इधर, भरत ने विचार किया— बाहुबली प्रायः एक वर्ष से ऐसी घोर तपस्या में लीन हैं कि सारी पृथ्वी को छोड़कर केवल उतनी ही धरा अपने लिए निश्चित कर ली है, जितनी पर पाँव के दो तलवे रखकर खड़े-खड़े ध्यान कर सकें। न आहार, न जल, न संचरण, न कम्पन |
भरत का मन अपने भाई की इस असम्भव और अनहोनी तपस्या को देखकर रात-दिन चिन्ता में डूबा रहता । इतनी घोर तपस्या करने पर भी बाहुबली को केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? उन्हें मोक्ष क्यों नहीं मिलता ?
भरत अपने पिता तीर्थंकर ऋषभदेव की धर्मसभा में गये । प्रश्न किया, "प्रभो ! बाहुबली एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर इतनी घनघोर तपस्या कर रहे हैं; उन्हें केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? दो तलवों भर जमीन पर खड़े हैं। ऐसी तपस्या भला कभी किसी ने की ?"
भगवान् ऋषभदेव ने कहा