Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ १६, वर्ष ४६, कि०१ अनेकान्त अपनी गुरु परम्परा के सम्बन्ध में देवसेनगणि ने ग्रंथ सामने अपने को बहुत छोटा कवि माना है। किन्तु उनकी की आधप्रशस्ति में कहा है कि वीरसेन एवं जिनसेन यह आत्मलाघव प्रवृति का परिचायक है। आचार्यों की परम्परा मे बहुत से शिष्यों वाले होटल-पुत्र गुरु थे। उनके गड विमुक्त (गंड्ड्युक्त) नामक शिष्य थे सुलोचनाचरित रचना का परिचय देते हुए देवसेन और उनके शिष्य रामभद्र थे जो चाल्लुक्य वश को राज कहते हैं कि अनेक प्रकार के भेदों (अवान्तर कथाओं एव परपरा के थे"। इस रामभद्र के शिष्य निबडिदेव थे। रहस्य) से भरी हुई सुन्दर और प्राचीन कथा को में कहता उनके शिष्य श्री मालिधारिदेव और विमलसेन थे। उन हूँ यह कथा सुलोचना के विचित्र वृतान्तों से युक्त है और विमलसेन के शिष्य मूल देवसेन मुनि ने इस ग्रन्थ की नपपुत्र जयकुमार को आनन्द प्रदान करने वाली है यह रचना की है। कवि की इस मुनि परम्परा का सूक्ष्म कथा . कथा वतों के पालन करने वालो के द्वारा मिध्यात्व को अध्ययन करने से उनके निश्चित समय को निर्धारित नाश करने वाली एवं सम्यक्त्व को दृढ़ करने वाली है। किया जा सकता है। इस तरह अपभ्रंश की सुलोचना कथा सांस्कृतिक महत्व देवसेनमणि ने अपने इस काव्य में अपने से पूर्ववर्ती की रचना है। वाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, बाण, मयूर, हलीए, द्वारा-श्री सतोष जैन गोबिंद, चतुर्मुख, स्वयभू, पुष्पदत और भूपाल नामक प्रभा प्रिन्टर्स कवियों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि देवसेन ३२१.ए, सी सेक्टर शाहपुरा, २०वी शताब्दी के बाद ही हुए हैं । उन्होंने इन कवियो के भोपाल सन्दर्भ-सची चौधरी, गुलाबचन्द : जैन साहित्य का बहत इति- १२. रक्खस-संवच्छर बुह-दिवसए, हास, भागद, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, १९७३ सुक्क चउद्दसि सावय-मासए । पृ. ३३४ प्रादि । चरिउ सुलेयणाहि पिपण्णउ, २. कुवलयमालाकहा : ३.३० सह-अल्ह-वण्णण सपुण्णउ ।। -अंतिम प्रशस्ति ३. जैन, प्रेम सुमन : कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक १३. शास्त्री परमानन्द जैन; जैन ग्रन्थ प्रशस्तिसग्रह, अध्ययन, वैशाली, १९७५, पृ. ३८ । ४. सुलोचनाचरिउ (आमेर पाडुलिपि), सधि १, कड़वक ६ भाग २, पृ.७२। ५. हरिवशपुराण (जिनसेन)। १४. रामभट्ट णामें तव सारकउ, ६. हरिवंशचरिउ (धवल) अप्रकाशित पाडुलिपि : चालुक्कियवसहो तिल उल्लह। -अंतिम प्रशस्ति ७. वेलणकर, एच. डी., जिनरत्नकोश, पृ. १३२ । १५. अन्य की आद्य प्रशाश्त, सधि १, कड़वक ३ । ८ जैन, कुन्दनलाल, दिल्ली जैन ग्रन्थ-सूची। १६. आयण्णहो बहुविहु-भेय-भरिउ, ९. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार, अपभ्रश भाषा और साहित्य हड कमि चिराणउ चारु चरिउ । को शोध प्रवृत्तियां, दिल्ली, १९७२ पृ. १७३ । वइयरहें विचित्तु सुलोयणहें, १०. सुलोचनाचरितम् (वादिचन्द्र) अप्रकाशित पाडुलिपि शिवपुतहो मयणक्कोवणाहें। के आधार पर। वयवतिहि हयमिच्छात्तयाहें, ११.णिवमम्मलहो पुरिणिवसते चारुट्ठाणे गण गणवंते । वरदिढ-सम्मत्त-पउत्तियाहे ॥ -वही, कड़वक ६ -सधि १ कड़वक ४

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