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२२, वर्ष ४६, कि०३
करने-बढाने के लिए, माता के समान बारह भावनाओ ) में इस विषय को इस प्रकार समझाया हैका चितवन करते रहते हैं। इन बारह भावनाओं के 'सुदत्यस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहरु णाम चितवन करते रहने से ममता रूपी मुख की बढवागे होती पर्थात् सुने हुए अर्थ का, श्रुत के अनुसार चिन्तवन करना है, जिस प्रकार से अग्नि के हवा लगने से मग्नि प्रज्वलित- 'बनूप्रेक्षा' है। मर्थिसिद्धि अध्याय सूत्र २५ की टीका देदीप्यमान होती है । इन बारह-भावना के विशेष चितवन में भी इसका विवेचन है । वहाँ लिखा है . 'अधिगतार्थस्य करने से हो, ससारी-जीवात्मा अपने असली स्वभाव को मनसाऽध्यासोऽनुप्रेक्षा' अर्थात् जाने हुए पदार्थ का, मन मे जानता है और नबी यह जीवात्म। एक दिन मोक्ष सुख बार-बार अभ्यास करना 'अनुप्रेक्षा' है। को प्राप्त कर लेता है।
वास्तव में किसी भी विषय को पुन -पुनः चिन्तवन कविवर भंया भगवती दास जी ने भी स्वचित करना 'अनुप्रेक्षा' है। मोक्षमार्ग में वैराग्य को बढ़ाने के बारह भावना के अन्त मे लिखा है
लिए, बारह प्रकार के विषय के चितवन रूप बारह ये ही बारह भावना सार, तीर्थकर भावहि निरधार ।
प्रकार की अनुप्रेक्षा का कयन जंग शास्त्री म पाया जाता है वैराग्य महाव्रत लेम, तब भवभ्रमण जना देहि॥ है। इन्हे बारह भावना कहन है। इनके चिन्तवन से अर्थात् ये अ नत्यादि बारह भावना ही श्रेष्ठ उत्तम
व्यक्ति, ससार, शरीर और भोगो से वैगी-उदासीन है, जिन्हे होने वाले तीर्थकर भगवान भी निश्चय मे चिन- होकर मन्यास दशा को अगीकार करता है। यह अवस्था वन करते है। इनसे वैराग्य को प्राप्त करके महाब्रतो को आत्म-शान्ति व मुक्ति का प्रधान कारण है। धारण करते है पश्चान् जन्म-मरण मे छुटकारा प्राप्त
आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षाओ के क्रम में कुछ करते है।
अन्तर पाया जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य न इनका क्रम इस प्रकार अनेक आचार्यों एव अनेक कवियों ने इस प्रकार रक्खा है-१. अधब, २. अशरण, ३. एकन्व,
रामाय बोडा इन स्वरूप ४. अन्यत्व, ५. ससार, ६. लोक, ७. अशुचित्व, ८ आस्रव प्रादि की और भी दृष्टिपात करे।
१. सबर, १०. निर्जरा, ११. धर्म और १२. बोधि । अनु++ा इन तीनो के मेल से अनुप्रेक्षा'
श्री उमा स्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र में इनका शब्द बना है। पुन: पुन: प्रकर्ष रूप में देखना, अवलोकन
कम इस प्रकार रक्खा है -१. शानिन्य, २. अशरण, करना, चितवन करना इसका अर्थ होना है।
३. ससार, ४ एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुवि, 3. आसव, श्री उमा स्वामी अचार्य न नत्यार्थ सूत्र अध्याय ९ सूत्र .
८. सबर, ६. निर्जरा, १०. लाक, ११. बाधिदुर्लभ और सात मे इम विपथ को इस प्रकार से समझाया है-'स्वा- १२. धर्म। ख्यातत्त्वानुनितनमनुप्रेक्षा' अर्थात् इन अनित्य आदि बारह
स्वामी कार्तिकेय ने भी कार्तिकेयानप्रेक्षा में इसी प्रकार के कह गये तत्त्व का बार-बार चितवन करना पिछले क्रम को अपनाया है। 'अनुप्रेक्षा' है।
लगभग सभी आचार्यों एवं कवियों ने इस पिछले क्रम श्री अकलक देव मूरि ने भी तत्वार्थ राजवाति मे को ही अपनाया है। हो सकता है आचार्य कुन्दकुन्द के उल्लेख किया है--
'वारसणवेश्खा' का अन्वेषण देरी में हुआ हो। किसी-२ "शरादीनां स्वभावानुदिननमनुप्रेक्षा वेदितव्या." ने ग्यारहवे नाम की बारहवां और बारहवे नाम को ११वा अर्थात् शरीर आदि के स्व-नाव का बार-बार चिन्तन करना भी लिखा है । अघ्र व और अनित्य ये पर्यायवाची शब्द । अनुप्रेक्षा है ऐमा समझना चाहिए ।
जितने भी कर । मोक्षगामी भव्य-पुरुष हुए हैं 'अनप्रेक्षा' यह स्वाध्याय नामक अतरग तप के चौथे और होगे वे मब इन बारह अनुप्रेक्षाओ-भावनाओ का चितभेद रूप में भी प्रयुक्त हुआ है । धवला (१४१५, ६, १४, वन को ही हुए और होगे। इत्पलम्