________________
संचयित-ज्ञानकण
0 जिन कार्यों के करने मे आकुलता हो उन्हें कदापि न करो। चाहे वह अशुभ हों, चाहे शुभ हों, 0 परिग्रह लेने में दुःख, देने में दुःख, भोगने में दुःख, रक्षा में दुःख, धरने में दुःख, सड़ने में दुःख । धिक् है
इस दुखमय परिग्रह को।
- स्व-परिणामो द्वारा अजित ससार को पर का बताना महान अन्याय है।
n विश्व की अशान्ति देख अशान्त न होना, यहां अशान्ति ही होती है। नमक सर्वाङ्ग-क्षारमय होता है।
संसार की जितनी पर्याएं हैं सब दुखमय है, इनमें सुख की कल्पना भ्रम है।
0 जैसे विष करिके लिप्त जो वाण ताकरि बेधे जो पुरुष तिनिका इलाज नही, मारयां ही जाय । तसे
मिथ्यात्वशल्मकरि बेध्या पुरुष हूं तीव्र वेदना करि निगोद में तथा नरक, तिर्यच में अनंतानन्त काल दुःख
अनुभव है। g जो लिंगी बहुत मानकषायकरि गर्ववान भया निरन्तर कलह कर है, वाद कर है, धूत-क्रीड़ा कर है, सो
नरक कू प्राप्त होय है। D जिसके हृदय में पर द्रव्य के विषय में अणुमात्र भी राग विद्यमान है वह ११ अंग और पूर्वो का जानकार होकर भी अपने आत्मा को नहीं जानता वह तीन मिथ्यात्वी है।
संकलन : श्री शान्तिलाल जैन कागजी के सौजन्य से
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) १०, इस अंक का मुख्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते।
कागज पाप्ति :-धोमतो अंगरी देवो जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तीलाल जैन कागजी के सौजन्य से, नई दिल्ली-२