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नकल करेंगे । पण्डित बलभद्र जी का समयसार 1978 में प्रकाशित हुआ । जयपुर से प्रकाशित समयसार 1983 व 1986 के संस्करण वीर सेवा मन्दिर के ग्रन्थालय में मौजूद हैं जो उनके समयसार की नकल नहीं है । इसलिए पण्डित जी का यह प्रचार नितान्त भ्रामक है । कानजी स्वामी ने तो आचार्य कुन्दकुन्द का पूरा समयसार पाषाणों पर उत्कीर्ण कराकर सोनगढ के मन्दिर में लगाया है । उनके अनुयायी उसको गलत मान कर आपके ग्रन्थ की नकल करेंगे यह कितना हास्यास्पद लगता है ।
श्री बाबूलाल जैन वक्ता __ पण्डित बलभद्र जी ने लिखा है कि बाबूलाल जी ने 8 अप्रैल 1993 को उन्हें फोन पर यह बताया कि वे प्राकृत नहीं जानते । इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन पर्याप्त है कि सन् 1988 में श्री मुसद्दीलाल जैन चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित समयसार पर उनकी प्रस्तावना देखी जा सकती है और वह समयसार पर धाराप्रवाह प्रवचन भी करते हैं । स्पष्ट है कि पण्डित बलभद्र जी के इस कथन में कोई सार नहीं है । अधिकार की सीमा
श्री बाबूलाल जैन (वक्ता) यदि प्राकृत नहीं भी जानते हों तो क्या इस तथ्य से पं. बलभद्र जी को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह आगम में मूल शब्दों को बदल दें । हम पुन: निवेदन कर दें कि वीर सेवा मन्दिर की दृष्टि में आगम के सभी प्राचीन रूप सर्वशुद्ध हैं, कोई भी अशुद्ध नहीं है । उन्हें शुद्ध करने का हमें कोई अधिकार नहीं है । हम अपने विचार को पाठ टिप्पण में व्यक्त कर सकते हैं । दुर्भाग्य है कि पण्डित बलभद्र जी की दृष्टि में, जैसा कि उन्होंने “रयणसार" की