Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 164
________________ नहिं दोष गुंसाई ।' - पर फिर भी हम कह दें 'अपना मेरा कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर' - हमने संशोधक के कथन पर ही विचार किया है, पाठक उनके 'पुरोवाक्' के प्रकाश में चिन्तन करें -- उनके सभी कथन विरोधाभासी हैं। ध्यान रहे कि विभिन्न चिन्तकों के विभिन्न विचार हो सकते हैं । पर सभी निर्विवाद हों यह संभव नहीं । और न यह ही संभव है कि सभी ज्ञाता पूर्वाचार्यों के मनोभावों को जान सकने में समर्थ हो सकें । फलतः आज की व्याख्याएँ विवाद का विषय बन कर रह गई हैं और उनसे आगमों के कथन की निश्चिति में भी सन्देह बन रहा है। अब ऐसा विवाद व्याख्याओं तक सीमित न रहकर मृल पर भी चोट करने लगा है और प्राकृत ( जनबोली) के मूल शब्द रूपों में भी परवर्ती व्याकरण द्वारा एकरूपता लाई जा रही है । यह तो संशोधक ही जाने कि प्राकृत में व्याकरण के आत्मघाती प्रयोगों की शिक्षा पाने के लिए उन्होंने किम विश्वविद्यालय को चना और किम डिग्री को कहाँ से प्राप्त किया - या संशोधक ने किस गुरू को चुना? हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं । हमारा तो स्पष्ट मत है कि कोई अन्य किसी भी अन्य की रचना में उलट फर या शब्द चयन का अधिकार लेखक की अनुमति के बिना नहीं कर सकता । विधि यही है कि यदि किसी को मतभेद हो या पाठ भेद मिले तो उस टिप्पण में अंकित करे । ताकि प्राचीनता-विविधता और मूलरूप का लोप न हो । और हम प्रारम्भ से यह ही कहते रहे हैं और कहते रहेंगे-किसी से कोई समझौता नहीं । हमारे आगम परम्परित जिस रूप में हैं प्रामाणिक हैं । हम लिखते हैं और बिना किसी के नाम को इंगित किए ही सचाई लिखते हैं और प्रस्तुत प्रसंग में भी संपादकीय 'पुरोवचन' को लक्ष्य कर ही सभी बातें लिखी हैं । फिर भी आश्चर्य है कि जो यह स्वीकार करें 51

Loading...

Page Navigation
1 ... 162 163 164 165 166 167 168